Opinion: मायावती का अकेले चुनाव लड़ने का सियासी दाँव, बीजेपी को लाभ, 'इंडिया' गठबंधन के लिए झटका, हर पहलू समझें
आम चुनाव, 2024 को लेकर बहुजन समाज पार्टी या'नी बसपा प्रमुख मायावती के रुख़ में कोई बदलाव नहीं हुआ है. अपने जन्मदिन के अवसर पर उन्होंने एक बार फिर से दोहराया है कि आगामी लोक सभा चुनाव में बसपा किसी किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनने वाली है.
मायावती ने स्पष्ट कर दिया है उनकी पार्टी का न तो कांग्रेस की अगुवाई वाली विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के साथ कोई तालमेल होगा और न ही बीजेपी की अगुवाई वाली सत्ताधारी गठबंधन एनडीए के साथ. इसके साथ ही पिछले कुछ दिनों से जारी उन अटकलों पर भी पूर्ण विराम लग गया है, जिसके तहत अनुमान लगाया जा रहा था कि बसपा विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का हिस्सा बन सकती है.
मायावती का अकेले चुनाव लड़ने का फ़ैसला
जब पिछले साल जुलाई में कांग्रेस समेत 26 दलों का विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' अस्तित्व में आया था, उसके अगले ही दिन मायावती ने साफ कर दिया था कि उनकी पार्टी बसपा का 2024 का लोक सभा चुनाव अकेले दम पर लड़ेगी. हालाँकि उसके बाद से कांग्रेस की ओर से ज़रूर इस बात की कोशिश की जा रही थी कि मायावती अपना रुख़ बदल लें और 'इंडिया' गठबंधन का हिस्सा बन जाएं. मायावती ने 15 जनवरी को अपने जन्मदिन के मौक़े पर एक तरह से विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' को ज़बरदस्त झटका दिया है.
विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' को ज़बरदस्त झटका
बसपा के अकेले चुनाव लड़ने के मायावती के सियासी दाँव का अगर विश्लेषण करें, तो इससे तीन प्रमुख आयाम और सवाल जुड़े हैं. पहला, यह दाँव अस्तित्व के लिए जूझ रही बसपा के लिए कितना कारगर साबित होगा. दूसरा, मायावती के इस रुख़ से आगामी लोक सभा चुनाव में बीजेपी को फ़ाइदा होगा या नुक़सान. तीसरा, मायावती का यह फ़ैसला विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के लिए कितना अधिक नुक़सानदायक है.
सरल शब्दों में अगर जवाब दें, तो मायावती के इस रुख़ से बसपा की मुश्किलें और बढ़ेंगी. बसपा के लिए उत्तर प्रदेश में एक भी लोक सभा सीट पर जीत सुनिश्चित कर पाना मुश्किल हो सकता है. वहीं पहले से ही बेहद ताक़तवर नजर आ रही बीजेपी के लिए इससे उत्तर प्रदेश के साथ ही कुछ और राज्यों की राह और भी आसान हो जायेगी. उत्तर प्रदेश में तो मायावती का यह क़दम बीजेपी के लिए मास्टर स्ट्रोक तक साबित सकता है. जहाँ तक तीसरे पहलू की बात है, यह ज़रूर कहा जा सकता है कि मायावती के इस रुख़ से विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की धार और भी कमज़ोर हो गयी है.
बसपा को नहीं होने वाला है कोई लाभ!
मायावती का अकेले चुनाव लड़ने के फ़ैसले से बसपा को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है, बल्कि इसका पार्टी के प्रदर्शन और जनाधार पर नकारात्मक असर ही पड़ सकता है. उत्तर प्रदेश के सियासी माहौल और उसमें बसपा की वर्तमान राजनीतिक हैसियत या कहें स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता. भले ही बसपा का उत्तर प्रदेश में एक कोर वोट बैंक है. उसके बावजूद बसपा फ़िलहाल बेहद दयनीय स्थिति में है. उसकी हालत इतनी ख़राब है कि अकेले दम पर आगामी लोक सभा चुनाव में एक भी सीट जीतना अत्यंत मुश्किल है.
बसपा के सामने है अस्तित्व की चुनौती
बसपा फ़िलहाल अस्तित्व की चुनौती से संबंधित लड़ाई से जूझ रही है. 68 वर्षीय मायावती सितंबर 2003 से बसपा की अध्यक्ष हैं. वे चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. मायावती चार बार (1989, 1998, 1999 और 2004) लोक सभा के लिए निर्वाचित हो चुकी हैं. अभी भी पूरे देश में अनुसूचित जाति की सबसे बड़ी नेता के रूप में मायावती की पहचान है. उत्तर प्रदेश में एक बड़ा वोट बैंक उनकी पार्टी के पास है. इतना सब कुछ होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में फ़िलहाल कोई ऐसी एक लोक सभा सीट का नाम नहीं लिया जा सकता है, जहाँ से अकेले दम पर ख़ुद मायावती के चुनाव जीतने की गारंटी हो. इससे बसपा की नाज़ुक स्थिति का अंदाज़ा ब-ख़ूबी लगाया जा सकता है.
गठबंधन से नुक़सान के तर्क में कितना दम?
अकेले चुनाव लड़ने के पीछे मायावती दलील देती हैं कि गठबंधन में शामिल होने से उनकी पार्टी को नुक़सान होता. मायावती का कहना है कि गठबंधन के सहयोगी दलों को तो बसपा के कोर वोट बैंक का समर्थन तो मिल जाता है, जबकि बसपा को बाक़ी सहयोगी दलों का वोट ट्रांसफर नहीं हो पाता है. मायावती ने इस संदर्भ में ख़ासकर तथाकथित सर्वण वोट बैंक का ज़िक्र किया है.
मायावती ने इस तथ्य को समझाने के लिए उत्तर प्रदेश के1993 में हुए विधान सभा चुनाव का उदाहरण दिया है. उस समय समाजवादी पार्टी और बसपा मिलकर चुनाव लड़ी थी. मायावती का कहना है कि उस चुनाव में सपा को बसपा का वोट मिल गया था, जबकि बसपा को सपा का वोट ट्रांसफर नहीं हो पाया. इसके कारण समाजवादी पार्टी 107 सीट जीतने में सफल रही, जबकि बसपा महज़ 67 सीट ही जीत पायी.
यूपी की राजनीति एक दशक में बदल गयी है
मायावती उदाहरण तीन दशक पुराने चुनाव का दे रही हैं, जिसका अब के समय में कोई ख़ास महत्व नहीं रह गया है. उत्तर प्रदेश की सियासत पिछले एक दशक में पूरी तरह से बदल गयी है. बीजेपी यहाँ की राजनीति पर पूरी तरह से हावी है. समाजवादी पार्टी किसी तरह से सियासी जंग में बनी हुई है. वहीं मायावती की पार्टी के लिए अकेले बहुत कुछ रह नहीं गया है. कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश दुःस्वप्न सरीखा हो गया है. यहाँ कांग्रेस के प्रति लोगों का भरोसा पूरी तरह से खत्म़ हो गया है, ज़मीनी हक़ीक़त यही है.
बसपा उत्तर प्रदेश में लगातार कमज़ोर हुई है
उत्तर प्रदेश में मायावती की पार्टी की स्थिति लगातार कमज़ोर हुई है. पिछले कुछ विधान सभा और लोक सभा चुनाव के आँकड़े भी यही बताते हैं. बसपा 2007 उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करती है. उस चुनाव में कुल 403 में से 206 सीटों पर बसपा जीत जाती है. बसपा का वोट शेयर भी 30 फ़ीसदी के पार चला जाता है. सबसे ज़्यादा सीटों पर जीत के साथ ही यह पहला और आख़िरी मौक़ा था, जब विधान सभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर 30 फ़ीसदी के आँकड़े को पार कर गया था.
बसपा का ग्राफ़ 2012 से तेज़ी से गिरा है
इस चुनाव के बाद बसपा की उलटी गिनती शुरू होती है. बसपा के सीटों का ग्राफ़ 2012 के विधान सभा चुनाव में 80 पर जा पहुंचता है और उसके वोट शेयर में भी साढ़े चार फ़ीसदी से ज़ियादा की गिरावट आती है. मायावती के लिए 2017 का विधान सभा चुनाव और भी ख़राब रहता है. इस चुनाव में बसपा महज़ 19 सीट ही जीत पाती है और उसका वोट शेयर गिरकर 22.23% ही रह जाता है.
विधान सभा चुनाव 2022 में बसपा का सफाया
उत्तर प्रदेश में आख़िरी बार विधान सभा चुनाव फरवरी-मार्च 2022 में हुआ था. यह चुनाव बसपा के लिए उत्तर प्रदेश में सीट के लिहाज़ से एक तरह से सफाया सरीखा साबित होता है. बसपा सिर्फ़ एक सीट जीत पाती है. इस चुनाव में बसपा की स्थिति कितनी दयनीय हो जाती है, यह इससे समझा जा सकता है कि उसके 287 उम्मीदवारों की ज़मानत तक ज़ब्त हो जाती है.
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव, 2022 में बसपा से अधिक सीट अपना दल (सोनेलाल), निषाद पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) जैसी पार्टियाँ ले आती हैं, जिनका प्रदेश में वोट शेयर के हिसाब से बहुत ही मामूली सा और क्षेत्र विशेष तक सीमित जनाधार है.
डेढ़ दशक में बसपा के वोट में 17.55% की गिरावट
बसपा का वोट शेयर 2022 के विधान सभा चुनाव में महज़ 12.88% रहता है. 2007 से लेकर 2022 के डेढ़ दशक में बसपा सीट के मामले में 206 से एक पर आ जाती है. वहीं वोट शेयर के मामले में बसपा 30.43% से 12.88% पर आ जाती है. डेढ़ दशक में बसपा के वोट शेयर में 17.55% की गिरावट हो जाती है. जिस तरह का प्रदर्शन बसपा को 2022 के विधान सभा चुनाव में रहा, उससे कई गुणा बेहतर प्रदर्शन पार्टी ने अपने पहले चुनाव 1989 में किया था. उस वक्त़ नई पार्टी बसपा 13 सीट पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी.
लोक सभा चुनाव में भी बसपा की स्थिति दयनीय
लोक सभा चुनाव की बात करें, तो बसपा की स्थिति की कुछ ख़ास नहीं है. बसपा 2009 के लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में 27.42% वोट हासिल कुल 80 में से 20 सीट जीतने में कामयाब रही थी. इसके पाँच साल बाद 2014 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में बसपा का खाता तक नहीं खुलता है. हालाँकि इस चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश में तक़रीबन 20 फ़ीसदी वोट ज़रूर हासिल होता है. उससे बेहतर प्रदर्शन तो अपना दल का रहता है, जो एनडीए में रहते हुए महज़ एक प्रतिशत वोट पाने के बावजूद दो सीट पर जीत जाती है. इस चुनाव में बसपा न तो कांग्रेस के साथ थी और न ही समाजवादी पार्टी के साथ.
सपा से गठबंधन का 2019 में बसपा को हुआ था लाभ
जब 2019 का लोक सभा चुनाव होता है, तो बसपा और समाजवादी पार्टी मिलकर चुनाव लड़ती हैं. इसका असर भी होता है. समाजवादी पार्टी के साथ से बसपा इस चुनाव में शून्य से 10 पर पहुँच जाती है, जबकि उसका वोट बैंक क़रीब-क़रीब 2014 जितना ही रहता है. इसके विपरीत समाजवादी पार्टी को बसपा के साथ को कोई लाभ मिलता हुआ नहीं दिखता है. 2014 के समान ही समाजवादी पार्टी 2019 में भी सिर्फ़ पाँच ही सीट जीत पाती है और उसके वोट शेयर में भी चार फ़ीसदी से अधिक की गिरावट हो जाती है.
मायावती जब कहती हैं कि गठबंधन में बसपा को सहयोगी दलों का वोट ट्रांसफर नहीं हो पाता है और पार्टी को नुक़सान का सामना करना पड़ता है, तो 2019 के लोक सभा चुनाव के नतीजों के आधार पर मायावती की बात सही नहीं ठहरती है.
बसपा में अकेले दम पर जीतने की क्षमता नहीं
उत्तर प्रदेश की सभी 80 लोक सभा सीटों पर दमदार चेहरा मिलना ही मायावती की पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. प्रदेश में राजनीतिक ज़मीनी हक़ीकत और बसपा के लगातार खिसकते जनाधार के आधार पर यह कहना बेहद आसान है कि आगामी लोक सभा चुनाव में अकेले दम पर मायावती के लिए कुछ बड़ा करना लगभग नामुमकिन है. एक तरह से विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से दूरी और अकेले चुनाव लड़ने का मायावती का फ़ैसला बसपा के लिए आत्मघाती ही साबित होगा, इसकी भरपूर गुंजाइश दिख रही है.
बीजेपी को काफ़ी फ़ाइदा होने की संभावना
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि 1990 के दशक और इस सदी के पहले दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे प्रभावी दख़्ल रखने वाली मायावती बसपा की मौजूदा स्थिति और ताक़त से अनजान हों. उसके बावजूद अकेले चुनाव लड़ने के फ़ैसले के पीछे की वास्तविकता समझना बेहद कठिन है. इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि मायावती के इस रुख़ से आगामी लोक सभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में काफ़ी फ़ाइदा होने की संभावना बन गयी है.
ऐसे तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी पहले से ही बेहद ताक़तवर है. पिछले दो लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से बीजेपी को भरपूर समर्थन भी मिला है. अयोध्या में 22 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कर-कमलों से राम मंदिर का उद्घाटन होना है. उसके बाद आगामी लोक सभा चुनाव को लेकर उत्तर प्रदेश की राजनीतिक हवा में विपक्ष के लिए बची-खुची संभावना भी ध्वस्त हो सकती है.
उत्तर प्रदेश में बीजेपी विरोधी वोट का बँटवारा
मायावती के फ़ैसले से एक बात तो तय हो गया है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी विरोधी वोट का बँटवारा होगा. एक तरफ़ समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल का गठबंधन बीजेपी के ख़िलाफ़ एक पक्ष होगा. वहीं अकेले लड़ने के मायावती के फ़ैसले से उत्तर प्रदेश की सियासी लड़ाई त्रिकोणीय होगी. मायावती के अकेले चुनाव लड़ने से समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल के गठबंधन से बीजेपी को कोई बड़ा नुक़सान होने का ख़तरा स्वाभाविक तौर से चल जाता है. ऐसा बिल्कुल कहा जा सकता है.
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के मिलने से बीजेपी को उतना नुक़सान नहीं होगा, जितना नुक़सान मायावती और समाजवादी पार्टी के मिलने से होता. बीजेपी की संभावनाएं उत्तर प्रदेश में प्रबल हैं. समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस के एक पाले में होने के बावजूद बीजेपी प्रदेश में अच्छा-ख़ासा सीट जीतने का दमख़म रखती है.
हम 2019 के चुनाव में देख चुके हैं कि समाजवादी पार्टी और बसपा मिलकर चुनाव लड़ती हैं, तो उसका ख़म्याज़ा बीजेपी को भुगतना पड़ा था. आम चुनाव 2014 में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की कुल 80 में से 71 सीटों पर जीत हासिल की थी. उसकी सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) को भी दो सीट पर जीत मिली ती. या'नी प्रदेश की 80 में से 73 सीटें एनडीए के खाते में गयी थी. इस चुनाव में बीजेपी, समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस चारों अलग-अलग चुनाव लड़ती हैं.
सपा-बसपा के साथ से बीजेपी को होता नुक़सान
जब 2019 के लोक सभा चुनाव में अखिलेश यादव और मायावती मिलकर चुनाव लड़ते हैं, तो बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में 2014 का प्रदर्शन दोहराना मुश्किल हो जाता है. बीजेपी को उत्तर प्रदेश में 9 सीटों का नुक़सान उठाना पड़ता है, जबकि 2019 के चुनाव में बीजेपी के वोट शेयर में सात फ़ीसदी से अधिक का इज़ाफ़ा हुआ था. यह आँकड़े बताने के लिए काफ़ी है कि समाजवादी पार्टी और बसपा का गठजोड़ बीजेपी के लिए ख़तरनाक है.
पिछले 7 लोक सभा चुनाव के आंकड़ों से पता चलता है बीएसपी उत्तर प्रदेश में कोई सीट जीते या नहीं..उसका वोट बैंक 20 फ़ीसदी के आस-पास रहता ही है. यह वोट बैंक अगर समाजवादी पार्टी के वोट से मिल जायेगा, तो बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में थोड़ी मुश्किल पैदा होती है. 2019 में हम यह देख चुके हैं. उसके विपरीत समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठजोड़ से कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता है.
सपा-कांग्रेस गठबंधन का कोई असर नहीं
ऐसे भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास अब कोई प्रभावी जनाधार बचा नहीं है. कांग्रेस 2019 में उत्तर प्रदेश में 6.39% वोट शेयर के साथ सिर्फ़ एक सीट रायबरेली जीत पायी थी. कांग्रेस 2014 में यहाँ 7.53% वोट हासिल करते हुए महज़ दो सीट रायबरेली और अमेठी ही जीत पायी थी. उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव, 2022 में तो कांग्रेस को महज़ 2.33 फ़ीसदी वोट ही हासिल हो पाया था और उसकी सीटों की संख्या भी दो पर ही रुक गयी थी. ऐसे भी उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक में कांग्रेस की छवि को लेकर आम लोगों में बेहद नकारात्मक रुख़ दिखा है.
ऐसे भी हम देख चुके हैं कि जब उत्तर प्रदेश में 2017 में समाजवादी पार्टी... कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी, तो उसका ख़म्याज़ा अखिलेश यादव की पार्टी को ही भुगतना पड़ा था. उस चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ होने के बावजूद बीजेपी उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक प्रदर्शन करने में सफल रही थी. बीजपी प्रदेश की कुल 403 में से 312 सीटों पर जीतने में सफल रही थी. वहीं समाजवादी पार्टी 177 सीटों के नुक़सान के साथ महज़ 47 सीटों पर सिमट गयी थी और कांग्रेस को सिर्फ़ 7 सीट पर ही जीत मिली थी.
ऐसे में बिना मायावती के समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन से उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुक़सान की संभावना बेहद क्षीण है. उस पर बीजेपी विरोधी वोटों का एक बड़ा हिस्सा मायावती के पास जाएगा, यह भी अब तय है. उत्तर प्रदेश के साथ ही मायावती के विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' हिस्सा नहीं बनने से बीजेपी को उत्तर भारत के कई और राज्यों में भी फ़ाइदा होगा.
बाक़ी राज्यों में भी है मायावती का जनाधार
मायावती की पार्टी के जनाधार का मूल आधार उत्तर प्रदेश ही है. इसके बावजूद उत्तर भारत के कई और राज्यों में भी अनुसूचित जातियों में मायावती की लोकप्रियता अभी भी काफ़ी है. बसपा का इन राज्यों में कम या ज़ियादा वोट बैंक भी है. यह वोट बैंक सीट जीतने के लिहाज़ से बीएसपी को तो उतना फ़ाइदा नहीं पहुँचा पाता है, लेकिन अगर यह इंडिया गठबंधन के वोट बैंक से मिल जायेगा तो कई राज्यों में कई सीटों पर बीजेपी को नुक़सान पहुँचा सकता है. इन राज्यों में मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, गुजरात, छत्तीसगढ़ , कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश प्रमुख हैं.
मायावती के अकेले लड़ने के फ़ैसले से बीजेपी इन राज्यों में नुक़सान से भी बच गयी. मायावती के अकेले चुनाव लड़ने से उत्तर प्रदेश में तो विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' कमज़ोर हुआ है. इसके अलावा उसके उत्तर भारत के कई राज्यों की कई सीटों पर भी बीजेपी के ख़िलाफ़ जीतने की संभावना कमज़ोर हुई है.
मायावती के रुख़ से बसपा से अधिक बीजेपी को लाभ
कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है कि अकेले लड़ने के फ़ैसले से बसपा को क्या फ़ाइदा होगा, यह तो मायावती ही बेहतर जानती हैं. इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि बसपा फ़िलहाल जिस मोड़ पर है, उसके लिए भविष्य की राह बेहद मुश्किल है. अस्तित्व के संकट से जूझ रही बसपा के लिए 2024 का आम चुनाव बेहद महत्वपूर्ण है. ऐसे में मायावती का यह फ़ैसला कई सवाल खड़े करता है. इससे बीजेपी की ही राह और भी आसान हो गयी है. मायावती का फ़ैसला विपक्षी गठबंधन के लिए ज़बरदस्त झटका है. मायावती के इस रुख़ से बीजेपी को बिहार और पश्चिम बंगाल में होने वाले नुक़सान की भरपाई करने का मौक़ा भी मिल गया है.
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