पुरानी कहावत है कि जो शख्स अपनी जड़ों से कट जाता है,वो फिर कहीं का नहीं रहता,फिर भले ही बात जिंदगी की हो या सियासत की. बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने भी कुछ ऐसी ही गलती की थी, जिसका नुकसान वे सत्ता से बाहर रहकर पिछले दस साल से भुगत रही हैं. 


यूपी की सत्ता में आने की तड़प ने उन्हें फिर से अपनी उन्हीं जड़ों की याद दिला दी है, जिस मकसद को पूरा करने के लिए 37 बरस पहले कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनाई थी. इस देश के दलितों व पिछड़े वर्ग को सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के मकसद से ही कांशीराम ने साल 1984 में बीएसपी की स्थापना की थी. हालांकि तब पंजाब उनका पहला लक्ष्य था लेकिन उनकी पार्टी को पहली व बड़ी कामयाबी मिली उत्तरप्रदेश में. लेकिन बाद के सालों में मायावती ने कांशीराम की उस राजनीति को दरकिनार करते हुए ब्राह्मणों व अन्य अगड़ी जातियों को साथ लेकर एक नई तरह की राजनीति शुरु कर दी.


एक बार कामयाबी मिलने के बाद मायावती को लगा कि उनका ये प्रयोग आगे भी सफल होता रहेगा लेकिन कहते हैं कि सियासत के चूल्हे पर काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती. लिहाज़ा मायावती को अब कांशीराम का वही पुराना फार्मूला याद आया है,जिसकी बदौलत ही वे पहली बार यूपी की सत्ता में आईं थीं. अब उनका पूरा ध्यान दलित व बैक्वर्ड कास्ट की राजनीति करने पर है.


दरअसल,मायावती को ये अहसास हो गया है कि इन दोनों का साथ मिले बगैर सत्ता हासिल करना मुश्किल है. इसलिये अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए अब उनका सारा फोकस प्रदेश की 86 सुरक्षित सीटों में से अधिकतम पर जीत दर्ज करने पर है. वैसे भी चुनावी इतिहास पर गौर करें,तो मायावती के अलावा सपा और बीजेपी को भी सत्ता दिलाने में इन्हीं सीटों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. यानी,जिस भी दल ने इन 86 में से अधिकतम सीटों पर जीत दर्ज की, उसने यूपी का किला भी फतह कर लिया. साल 2012 में सपा 58 सुरक्षित सीटें जीतकर सत्ता में आई, तो 2017 में बीजेपी व उसके सहयोगी दलों ने 70 सीटें जीतकर योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने का रास्ता आसान कर दिया था.


लिहाज़ा,इसी सियासी गणित को समझते हुए आज लखनऊ में पार्टी ऑफिस में पिछड़ी जाति के नेताओं की बैठक बुलाई गई. इस मीटिंग में पश्चिमी यूपी के जाट नेताओं को ख़ास तौर से एक नया समीकरण बनाने के मकसद से बुलाया गया था. क्योंकि बीएसपी अब जाटलैंड पर जाटों व मुस्लिमों को साथ जोड़कर सपा के वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है. इसी मजबूत समीकरण को ध्यान में रखते हुए ही पिछले दिनों अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी के आरएलडी के साथ चुनावी गठबंधन किया है. हालांकि मायावती की रणनीति ये है कि सुरक्षित सीटों पर दलित, पिछड़ी जातियों और मुस्लिम समाज को जोड़ कर जीत का फ़ार्मूला बन सकता है.


हालांकि मायावती ने आज ये भी याद दिलाया कि जब राज्य में बीएसपी की सरकार थी, तो जाटों-मुस्लिमों की तरक्की व जान माल की सुरक्षा का हमेशा ख्याल रखा गया. दोबारा सरकार में आने पर फिर से इस वर्ग के लोगों का विशेष ख्याल रखने की गारंटी देते हुए मायावती ने ये भी साफ किया कि सुरक्षित सीटों के अलावा जनरल सीटों पर भी ओबीसी, जाट -मुस्लिम, दलित और ब्राह्मण फार्मूला कार्य करेगा.


वैसे उन्होंने किसी भी अन्य दल के साथ गठबंधन  से इनकार करते हुए ऐलान किया है कि बीएसपी अकेले ही चुनाव लड़ेगी. योगी आदित्यनाथ सरकार पर मुसलमानों को तंग करने का आरोप लगाते हुए मायावती ने कहा कि इस सरकार मे धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हो रहा है और आज मुस्लिम सबसे अधिक दुखी नजर आते हैं. उनकी तरक्की रोकी जा रही है, फर्जी मुकदमे लगाकर उत्पीड़न किया जा रहा है और नए कानूनों से दहशत फैलाई जा रही है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि कांशीराम का फार्मूला लागू करने में मायावती ने क्या बहुत देर नहीं कर दी?


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