कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि नॉर्थ ईस्ट में चुनाव कांग्रेस के लिए सबक है. उन्होंने कहा कि इन स्थानों पर स्थानीय नेतृत्व मायने रखता है. कांग्रेस अध्यक्ष ने मल्लिकार्जुन खड़गे ने विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास शुरू कर दिया है. खरगे डीएमके के अध्यक्ष व तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के जन्मदिन के मौके पर इसके लिए प्रयास करते दिखे. खासकर के त्रिपुरा में भी बीजेपी के लिए भी कम चुनौती नहीं है. चूंकि वहां एक साल पहले तक बड़े पैमाने पर एंटी-इनकंबेंसी देखा जा रहा था. इसके बावजूद भाजपा ने बहुमत के आंकड़े को पार कर लिया है और विपक्षी वोटों को विभाजित करने के लिए टिपरा मोथा को इसके लिए धन्यवाद देना चाहिए. यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पार्टी त्रिपुरा के साथ-साथ दक्षिण पूर्व एशिया और शेष भारत के प्रवेश द्वार के रूप में विकसित कर रही है. त्रिपुरा में जीतना आसान नहीं था. मामूली बहुमत से भी हुई जीत फर्क पैदा करती है. पार्टी अपने दबदबे और संभावित धन प्रवाह के साथ इस क्षेत्र में एक बड़ी भूमिका निभाएगी.



कहां गलती हो गई कांग्रेस से?
जयराम रमेश पर दाव खेलना कांग्रेस को भारी पड़ गया चूंकि उनके पास अब वो क्षमता नहीं है कि वे स्थानीय नेतृत्व को बनाए रखें. त्रिपुरा में सक्षम नेताओं जैसै प्रद्योत बर्मन, शाही परिवार के वंशज को बाहर निकलने के लिए मजबूर कर दिया गया था और जिस कारण आज टीपरा मोथा का नेतृत्व कर रहे हैं. मेघालय में एक और नेता मुकुल संगमा तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए और उनके साथ और भी कई लोग पार्टी छोड़कर बाहर निकल गए. इसी तरह कांग्रेस नगालैंड में भी दोबारा नहीं जीत पाई है. कांग्रेस ने त्रिपुरा में अगर बर्मन को अपने साथ बनाए रखती तो सीपीएम और लेफ्ट के साथ बराबरी के साझेदार की संभावना बनी रहती, न कि जूनियर बनने की. इसके साथ ही प्रद्योत ने भी किंगमेकर की भूमिका निभाने का मौका खो दिया. उन्होंने इस चुनाव में 13 सीटें जीती लेकिन अगर सीटों के बंटवारा पर कांग्रेस और लेफ्ट के साथ सहमति बन गई होती तो वे कुछ और अधिक सीटें भी जीत सकते थे. उन्होंने भाजपा को बढ़त लेने का मौका दे दिया और अब वे उसके साथ सत्ता में साझेदार बनने के लिए अपने ट्राइबल समर्थकों को धोखा देने के साथ भाजपा के जूनियर पार्टनर बनने के संकेत दे रहे हैं.

इसका दूसरा पहलू भी है


वो कि क्या स्थानीय नेतृत्व को कहीं इसका फायदा हो रहा है? अगर ऐसा नहीं होता तो पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में कांग्रेस की तीन आश्चर्यजनक जीत कैसे हो सकती है? पश्चिम बंगाल में सबसे आश्चर्यजनक जीत बायरन बिस्वास की सागरदिघी की सीट पर हुई थी जो बीजेपी और वाम मोर्चे के समर्थन से तृणमूल के खिलाफ मिली थी. सवाल यह भी है कि क्या वामपंथी भाजपा से लड़ रहे हैं या तृणमूल से? इससे यह भी पता चलता है कि गठबंधन बनाने के लिए कांग्रेस के पास अजीबोगरीब साथी हो सकते हैं. लेकिन यह भी देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस के लिए ऐसा करना मजबूरी है या एक नया उभरता हुआ पैटर्न है. हालांकि यह एक चतुर रणनीति भी हो सकती है. चूंकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर चौधरी के लिए यह उनके गृह जिले मुर्शिदाबाद में प्रतिष्ठा की लड़ाई थी और राज्य के मंत्री सुब्रत साहा के निधन के बाद चुनाव होना जरूरी हो गया था.


यह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए भी एक सबक हो सकता है. उनका गुस्सा सीपीआईएम-बीजेपी-कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ सही हो सकता है लेकिन अगर वह कांग्रेस या बीजेपी के साथ गठबंधन में शामिल नहीं होती हैं, तो उनके तृणमूल कांग्रेस का अस्तित्व भी दांव पर लग सकता है. या जैसा कि वह कहती हैं, पराजय के बावजूद, 2024 के लोकसभा चुनाव में अकेले ही लड़ना चाहेंगी! हो सकता है इस पर वह फिर से सोच-विचार करे.


महाराष्ट्र में भी बदल सकती है तस्वीर


इसी तरह से महाराष्ट्र एक बार फिर विपक्ष के लिए सबक है. जिस तरह से चिंचवाड़ में महाराष्ट्र विकास अघाड़ी के बागी व असंतुष्ट शिवसेना नेता राहुल कलाटे ने  43170 मत प्राप्त किए. और इसका परिणाम ये हुआ कि एनसीपी के प्रत्याशी नाना काटे को 96175 मतों से हार का सामना करना पड़ा. जिससे भाजपा के अश्विनी जगताप ने कुल 131464 मतों से आसानी से जीत दर्ज कर ली. अगर कलाटे और केट को मिलाकर देखें तो उन्हें 139345 मिले. वहीं, संयुक्त एमवीए समर्थित कांग्रेस उम्मीदवार रवींद्र धंगेकर को कस्बा पेठ जो कि भाजपा का गढ़ माना जाता है वहां 62244 वोट लाने वाले भाजपा उम्मीदवार रसाने को हराने के लिए उन्हें 73194 वोट मिले. इसका मतलब ये है कि अगर महाअघाड़ी अपने आप को एक साथ रखता है तो महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव देखा जा सकता है.

तमिलनाडु के परिणाम यह भी संकेत देते हैं कि एक संयुक्त विपक्ष परिवर्तन को प्रभावित कर सकता है. सत्तारूढ़ डीएमके समर्थित कांग्रेस के उम्मीदवार ईवीएस एलंगोवन ने इरोड पूर्व के उपचुनाव में जीत दर्ज की है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने इसे अपनी सरकार के शासन के द्रविड़ मॉडल का सार्वजनिक समर्थन करार दिया है, लेकिन तमिलनाडु बीजेपी के राडार में भी है, जहां तमिल संगम के माध्यम से यह अच्छी खासी संख्या में तमिलों तक अपनी पहुंच बनाते हुए दिखाई पड़ रहा है.

पैटर्न साफ है


अगर मेघालय की तरह विपक्ष एकजुट रहता है तो वह अच्छा प्रदर्शन कर सकता है. वहां एनपीपी 26 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. लेकिन अब पूर्वोत्तर के लिए भाजपा के एक आयोजक का कहना है कि चुनाव के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ लड़ाई करने और उन्हें एक सार्वजनिक बैठक आयोजित करने से मना करने के कारण भाजपा मुख्यमंत्री कोनराड संगमा का सफाया कर देगी. नागालैंड में एनडीपीपी 25, बीजेपी 12 एफ और रिपब्लिकन पार्टी को 2, नीफू रियो के साथ आगे बढ़ी. यह फिर से दिखाता है कि अगर आप सामंजस्य बनाकर एक साथ रहते हैं तो इससे विपक्ष को वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में मदद मिल सकती है. वहीं, झारखंड में एक और परिदृश्य भी सामने आने लगा है. वहां रामगढ़ उपचुनाव में सत्ताधारी झामुमो-कांग्रेस को झटका लगा है.


कांग्रेस को सहयोगियों की तलाश व आंतरिक ढांचे को भी मजबूत करना होगा

रामगढ़ सीट से भाजपा समर्थित आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) पार्टी की उम्मीदवार सुनीता चौधरी ने कांग्रेस प्रत्याशी बजरंग महतो को पटखनी देते हुए उस सीट पर जीत हासिल कर ली. यह एक उभरता हुआ परिदृश्य है और 2024 के चुनावों में कई दिलचस्प चीजें देखने को मिल सकते हैं. भाजपा चुपचाप इसकी ओर बढ़ रही है. वह कई राज्यों में गठबंधन कर रही है. विपक्ष अभी भी प्रायोगिक मोड में है. तमिलनाडु, झारखंड, बंगाल या कहीं और विपक्ष की हर संभव चाल को भाजपा विफल करने की कोशिश कर रही है. त्रिपुरा में इसके और अधिक निर्मम होने और प्रद्योत बर्मन को खत्म हो जाने की उम्मीद है, जो एक संभावित चुनौती के रूप में उभर सकते हैं. ममता बनर्जी जैसे कई नेता इस स्थिति को समझ रहे हैं.


बिहार में अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है, जैसा कि कई अन्य राज्यों में भी है. आम आदमी पार्टी अब तक टालमटोल करती रही है. वहीं, मनीष सिसोदिया प्रकरण के बाद वह अपनी "एकला चलो" राजनीति की समीक्षा कर सकता है. कांग्रेस को न केवल नए सहयोगियों की तलाश करनी होगी, बल्कि अपने आंतरिक ढांचे को भी मजबूत करना होगा और अपने भगोड़ों को वापस लाना होगा. उत्तर-पूर्व के चुनावों के बाद कई आश्चर्यजनक परिस्थितियों के होने की प्रतीक्षा है. 2024 तक नए गठबंधनों के उभरने से भारतीय राजनीति तेजी से बदल सकती है.



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