हम लॉकडाउन से परेशान हो रहे हैं. उड़ती चिड़िया हैं, मानो पिंजड़े में कैद हो गए हैं. सामाजिक दूरी, यूं महानगरों में कोई नई बात नहीं. अपने किसी रिश्तेदार से मिले, सालों साल हो जाते हैं. दोस्तों से भी कभी- कभार फोन पर बात हो जाती है. दफ्तर से घर और घर से दफ्तर के बाद इतना समय ही नहीं मिलता. मोबाइल पर चैटिंग से काम चलता है. पर कोरोना के दौरान उन्हीं दोस्तों और रिश्तेदारों की बहुत याद आती है.


कल ही मिलने चल पड़ेंगे मानो. यह सामाजिक दूरी शारीरिक कम, मानसिक स्तर पर ज्यादा परेशान कर रही है. हम अपने घरों की चारदीवारी में कैद हैं. एक साथिन ने कहा- तुम बाहर निकलने वाले हो ना.. इसीलिए ज्यादा परेशान हो. हम तो घर में ही रहते हैं- शाम को थोड़ा टहल लिया तो टहल लिया. बाकी तो घरों में ही रहते हैं. सालों से घर की चारदीवारी ही हमारी दुनिया है. औरतों की दुनिया तो एकांतवास में ही बनती-संवरती है. अपनी सहेली आप, अपनी साथिन भी आप. सहेलियां मायके के साथ छूट जाती हैं. उनके साथ गपियाने, खिलखिलाने का दौर भी कभी का छूट जाता है.


सामाजिक दूरियां लंबे समय तक कायम रहती हैं. उन औरतों के लिए लॉकडाउन तो बरसों का होता है. उन्हें कोरोना के लॉकडाउन से क्या दिक्कत. बेशक, औरतों के लिए लॉकडाउन के मायने बहुत अधिक बदले नहीं हैं. पहले माता-पिता के साथ मायके में लॉकडाउन झेला होता है, फिर ससुराल आकर इसी लॉकडाउन को ढोना होता है. स्कूल-कॉलेज अक्सर सिर्फ इसलिए छुड़ा दिया जाता है ताकि बाहर की हवा न लगे. एनएसएस के 75वें चरण में 5 से 9 साल की उम्र की लड़कियों के स्कूल ड्रॉपआउट्स के आंकड़े इकट्ठे किए गए. उनमें कहा गया कि 30 प्रतिशत लड़कियां पढ़ाई इसलिए छोड़ देती हैं क्योंकि उन्हें घर का कामकाज करना होता है.


15 प्रतिशत की पढ़ने में रुचि नहीं होती, जबकि 13 प्रतिशत की शादियां कर दी जाती हैं. इतनी सी उम्र में घरों में रहकर घर काम करना, लॉकडाउन के सबसे बुरे चरणों में से एक है. क्या इस लॉकडाउन की हम कल्पना कर सकते हैं. यह लॉकडाउन सिर्फ मायके तक सीमित नहीं होता. शादियों के बाद अक्सर औरतें ससुराल में भी लॉकडाउन की शिकार होती हैं.


2019 में औरतों का लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट भारत में सिर्फ 23 प्रतिशत है. यानी बाकी की अधिकतर औरतें घरों पर ही रहती हैं. कोई तर्क दे सकता है कि वर्किंग का मतलब, सिर्फ लेबर फोर्स में पार्टिसिपेशन नहीं है. घरों में रहकर अपना काम करने वाली या कृषि कार्यों में लगी औरतों की संख्या आप क्यों नहीं जोड़तीं. पर औरतें बहुत से काम घर की चारदीवारी में ही करती हैं- वह भी कई बार पुरुष सदस्यों की मदद से या उनके साथ.


यह भी एक तरह का लॉकडाउन ही हुआ. अपना स्पेस यहां भी पुरुष सदस्यों की दखल से बच नहीं बन पाता. फिर लॉकडाउन की सिर्फ एक परिभाषा नहीं. जब आप शारीरिक ही नहीं, मानसिक रूप से भी सींखचों में बंद कर दिए जाएं. औरतों के इर्द-गिर्द ऐसे बहुत से सींखचें हैं जिन्हें आप लॉकडाउन ही कह सकते हैं. यहां जान बचाने के लिए लॉकडाउन के पालन का आग्रह है- वहां औरतें शारीरिक-मानसिक लॉकडाउन का पालन करने के बावजूद अपनी जान से हाथ धोती हैं.


ऑनलाइन जनरल बीएमजे ग्लोबल हेल्थ में वॉशिंगटन विश्वविद्यालय की एक स्टडी में कहा गया है कि भारत में महिलाओं के अपने पार्टनर या पति के हाथों मारे जाने की आशंका 40 प्रतिशत अधिक होती है. इस स्टडी में अमेरिका और भारत के बीच तुलना की गई थी. 2018 के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि भारत में हाउसवाइव्स सबसे ज्यादा सुसाइड करती हैं.


उस साल लगभग 63 हाउसवाइव्स ने रोजाना सुसाइड किया. 2018 में लगभग दो हजार लोगों ने सुसाइड करने की कोशिश की पर वे सफल नहीं हुए. उनमें से एक थी शिवानी जो रोहतक की रहने वाली है. उसने एक न्यूज स्टोरी में बताया था कि अपनी 16 साल की शादीशुदा जिंदगी में वह इतनी डिप्रेस हो गई है कि उसके पास सुसाइड के अलावा कोई विकल्प नहीं. इसकी एक बहुत बड़ी वजह यह है कि उसका पति और ससुराली, उसे घर से बाहर निकलने नहीं देते. उसका पति उसके ज्यादा वजन पर बार-बार ताने देता है जिसके चलते वह बीमार रहने लगी है.



यहां औरतों के लिए लॉकडाउन की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है. इस लॉकडाउन में भी हिंसा उनके सिर पर मंडरा रही है. अधिकतर देशों से ऐसी खबरें है कि औरतों को कोरोना के लॉकडाउन के चलते घरेलू हिंसा का बड़े पैमाने पर शिकार बनाया जा रहा है. जर्मनी से लेकर चीन, ग्रीस और ब्राजील में औरतें बार-बार इस बात की शिकायत रही हैं कि उनके पार्टनर या पति उन्हें अपनी कुंठा का शिकार बना रहे हैं. जर्मनी की ग्रीन पार्टी की संसदीय नेता तो यहां तक कह चुकी हैं कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान हिंसक पार्टनर्स के साथ घरों में बंद औरतों की जान की चिंता है.


उन्होंने सरकार से कहा है कि संवेदनशील महिलाओं को खाली पड़े हॉस्टल्स और गेस्ट हाउसेज़ में रखने का बंदोबस्त करना चाहिए. औरतें एक लंबे-लंबे समय से तालाबंदी यानी लॉकडाउन का सामना कर रही हैं, क्योंकि पितृ सत्ता ने तय किया है कि वे घरों के भीतर रहें, तभी अच्छी हैं- गुणसंपन्न और योग्य हैं. कैदी की तरह रहना क्या होता है.. जब उसके सभी हक छीन लिए जाते हैं, वह एक निर्धारित क्षेत्र से बाहर नहीं जा सकता. लॉकडाउन की परिभाषा यही है.


पुरुष अब यह महसूस कर रहे हैं, जो सदियों से औरतों ने महसूस किया है. कॉलेज न जा पाने का लॉकडाउन, नौकरी न कर पाने का लॉकडाउन, देर रात तक दोस्तों के साथ बाहर न जा पाने का लॉकडाउन, शादी से इतर किसी पुरुष मित्र से दोस्ती न कर पाने का लॉकडाउन, पैसों के लिए पति के आगे हाथ फैलाने का लॉकडाउन... ये लॉकडाउन लगाने वाले पुरुष ही हुआ करते हैं. अब 21 दिनों के लॉकडाउन में वही पगला रहे हैं. पर, अगर यह लॉकडाउन जान बचाने के लिए है, तो कुंठित मत होइए. अपनी पार्टनर्स का साथ
दीजिए- यह लॉकडाउन उतना बुरा नहीं लगेगा.