हिंसा से ज्यादा खौफनाक है हिंसा का सलिब्रेशन!
कानून के जरिए लोगों को सदाचारी नहीं बनाया जा सकता, लेकिन उनके आचार को नियंत्रित तो किया ही जा सकता है. इसीलिए मारने वाले का संकल्प कितना भी प्रबल क्यों न हो, उसे बचाने का जतन उससे भी प्रबल होना चाहिए.
हर मृत्यु दुखद होती है, पर हत्याओं को हमेशा दुखद नहीं माना जाता. हत्याएं कई बार वांछनीय भी होती है. पिछले कई महीनों से आवारा भीड़ की हिंसा ऐसी ही वांछनीय हत्याओं में लगी है. जिसे अंग्रेजी में मॉब लिंचिंग कहा जाता है, पिछले साल मई से अब तक 29 लोगों को शिकार बना चुकी है. अफवाहें पलक झपकते सीना ताने सोशल मीडिया के जरिए पैर पसार रही हैं और हम गुस्से में तमतमाए कानून अपने हाथों में ले रहे हैं. हिंसा के जरिए कानून की रक्षा करना जैसे विधिसम्मत हो गया है. एक अफवाह से दो दर्जन से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा बैठे हैं और हम चुप लगाए हुए हैं. जवाबदेह भी जबाव देने से बेफिक्र हैं.
असम के नीलोत्पल दास, मिदनापुर के संजय, अहमदाबाद की शांता देवी, नाम कई हैं और मामूली भी. इनकी हत्या मामूली तरीके से नहीं हुई और न ही मामूली आरोप लगाकर की गई. यह हत्याएं आईना हैं हमारी दुनिया में इंसानियत की नाकामी और अपराधियों की जीत का. हत्याओं के वीडियो बनाए जा रहे हैं. सर्कुलेट भी किए जा रहे हैं. हिंसा से ज्यादा खौफनाक है इन हत्याओं का सलिब्रेशन. उन्हें तमाशा, कौतुक बनाना. उन सभी को उस ‘विजय” का हिस्सेदार बनाना जो वहां मौजूद नहीं थे और उससे भी ज्यादा दहशतगर्द है, इस पर चुप्पी साधे रहना.
चुप्पी रजामंदी का दूसरा नाम होती है. अगर रजामंदी नहीं है तो हमें बताना होगा कि हम किसके साथ खड़े हैं. पीड़ित के साथ या उत्पीड़न के साथ, वरना जनदृष्टि में हम संदिग्ध हो जाएगे.
संदिग्ध व्हॉट्सएप भी है. सरकार ने इतना जरूर किया है कि उसे चेतावनी दी है. व्हॉट्सएप के मालिक फेसबुक ने फेक न्यूज पर स्टडी के लिए 50,000 डॉलर खर्च करने का फैसला किया है. कहा जा रहा है कि कोई ऐसा टूल होना चाहिए कि फेक न्यूज वायरल ही न हो. यूं यह इतना आसान नहीं. तकनीक अपना काम करती रहती है, हम कितने सजग हैं, यह जानना भी जरूरी है. जिस देश में बीस साल पहले अफवाहों ने मुंह-मुंह फैलकर लोगों से प्रतिमाओं को दूध तक ‘पिलवा’ दिया था, वहां इंटरनेट और मोबाइल जैसे तुरत-फुरत के साधनों से किसी को नेस्तानाबूद करना मुश्किल नहीं.
इंटरनेट और मोबाइल इस देश की सबसे बड़ी सच्चाई बन गए हैं. इंटरनेट और मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया बताता है कि भारतीय शहरों में 295 मिलियन लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या 186 मिलियन है. इसीलिए भारत सोशल मीडिया और कम्यूनिकेशन कंपनियों जैसे फेसबुक, ट्विटर, व्हॉट्सएप के सबसे बड़ा मार्केट्स में से एक है. 2020 तक व्हॉट्सएप का इस्तेमाल करने वाली की संख्या 450 मिलियन तक पहुंचने वाली है. पिछले चार सालों में देश में स्मार्टफोन ओनरशिप्स में भी 83 परसेंट का इजाफा हुआ है. लेकिन क्या सभी तकनीक का सदुपयोग करना जानते हैं? कहा जा रहा है कि फिलहाल साक्षरता और शिक्षा के बीच बड़ा अंतराल है, और इन दोनों के बीच की खाली जगह में ही तकनीक ने अपनी जड़े जमाई हैं. इन्हें लंबे परिश्रम और अभ्यास के साथ ही खत्म किया जा सकता है. फिर कई बार फेक न्यूज को बड़े-बड़े धुरंधर भी नहीं जांच पाते. वैरविक यूनिवर्सिटी, यूके की एक रिसर्च बताती है कि 40 परसेंट फेक न्यूज का पता औसत शिक्षित वयस्क भी नहीं लगा पाता और सिर्फ 45 परसेंट वयस्क फेक न्यूज पर उंगली उठा पाते हैं.
तो, साक्षर और शिक्षित- तकनीक ने इस बार दोनों वर्गों के गुस्से को हवा दी है. लोकतंत्र में यह गुस्सा निश्चित समय पर ही निकाला जा सकता है. यह गुस्सा महंगी होती शिक्षा का है. नौकरी न मिलने का है. अस्पताल न होने का है. कारोबार के खत्म होने का है. ये गुस्सा इस भ्रम से पैदा होता है कि ‘बाहरी’ और ‘दूसरे’ लोग हमारे संसाधनों में हिस्सा बांट कर रहे हैं. मशहूर कनाडियन पॉलिटिकल साइंटिस्ट थॉम्सन होमन-डिक्सन कहते हैं, ‘’हममें से बहुत से लोगों का व्यवहार बहुत बुरा हो सकता है, अगर परिस्थितियां कुछ इस प्रकार ऑर्गेनाइज की जाएं.’’ फेसबुक और व्हॉट्सएप की अफवाहों ने इस गुस्से को ट्रिगर किया है. यह समझना भी जरूरी है कि ऐसी प्रतिक्रिया डर और नफरत के इको-सिस्टम का परिणाम है. द्वेष और नापसंदगी इसका मूलभाव है. यह द्वेष नया नहीं है, और यह भी नया नहीं है कि प्रशासन की नाक की नीचे निरीह लोगों पर हिंसक हमले किए जा रहे हों. कुछ भी कहकर. कैसी भी पट्टी पढ़ाकर.
फेक न्यूज को फेक समझा जाए. इसके लिए केरल में कन्नूर जिले के 150 स्कूलों में सत्यमेव जयते नाम से एक पहल की गई है. इसमें क्लास आठ से लेकर क्लास बारह तक के बच्चों को एक घंटे की क्लास में बताया जाता है कि फेक न्यूज और न्यूज के बीच कैसे फर्क करें. खबर के स्रोत की जांच करें. खबर भेजने वाले से पुष्टि करें. अगर वह भी नहीं जानता हो तो उससे खबर के स्रोत को पुष्ट करने को कहें. यह जांच करें कि क्या अखबारों में भी ऐसी कोई खबर है. क्या फोटो को फोटोशॉप से तो तैयार नहीं किया गया. क्या वीडियो किसी दूसरे देश का तो नहीं है.
एक कदम आगे बढ़ने के लिए पिछले साल मॉब लिंचिंग के खिलाफ मानव सुरक्षा कानून बनाने की मांग की गई. लेकिन इस पर ठोस पहल नहीं हुई. मार्टिन लूथर किंग ने सालों पहले कहा था, ‘यह सच है कि कानून किसी व्यक्ति को मुझसे प्रेम करना नहीं सिखा सकता. लेकिन वह मेरी हत्या करने से उसे रोकता जरूर है.’ मतलब भले ही कानून के जरिए लोगों को सदाचारी नहीं बनाया जा सकता, लेकिन उनके आचार को नियंत्रित तो किया ही जा सकता है. इसीलिए मारने वाले का संकल्प कितना भी प्रबल क्यों न हो, उसे बचाने का जतन उससे भी प्रबल होना चाहिए. कहीं आवारा भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए न कर लिया जाए, जैसा कि व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने 1991 में अपने निबंध में चेताया था.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)