मोबाइल फोन के अविष्कार को 50 वर्ष पूरे हो गए. दुनिया में मोबाइल फोन का प्रवेश 1973 में हुआ था जब मोटोरोला के पूर्व उपाध्यक्ष और डिवीजन मैनेजर मार्टिन कूपर ने इसका सबसे पहले इस्तेमाल किया था...तब से लेकर अब तक मोबाइल फोन ने मानव इतिहास में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर क्रांतिकारी बदलाव लाए हैं...लेकिन इसके साथ-साथ कई तरह की चुनौतियां भी मुह बाए सामने खड़ी है और उसमें डाटा सुरक्षा का मुद्दा, कानून व्यवस्था और साइबर सुरक्षा का मुद्दा महत्वपूर्ण है....तो ऐसे में सवाल है कि मोबाइल फोन ने किस तरह से भारत में कानूनी तौर पर चुनौतियां पेश की हैं...


मोबाइल फोन विज्ञान का एक बड़ा चमत्कार होने के साथ-साथ सामाजिक क्रांति और आर्थिक क्रांति का एक बड़ा माध्यम है. लेकिन इससे साइबर सुरक्षा और कानून के कई बड़े पहलू भी खड़े हो गए हैं. इसमें सबसे बड़ी बात ये है कि मोबाइल फोन हमारी सारी गतिविधियों का एक बहुत बड़ा केंद्र बन गया है. इसकी वजह से देश के जो कानून हैं वो बेमानी साबित हो रहे हैं, क्योंकि अब जब अंतरराष्ट्रीय सीमाओं में मोबाइल फोन फैल गया है और कौन व्यक्ति कहां से व्यापार कर रहा है इस बात का फैसला करना बहुत ही मुश्किल हो गया है. यहां से अंतरराष्ट्रीय चुनौती सामने आती है, क्योंकि मोबाइल फोन से जुड़े हुए जो तीन बड़ी बाते हैं उसमें एक है इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर. दूसरा जो बड़ी-बड़ी कंपनियां हैं ई-कॉमर्स और इंटरनेट की, मनोरंजन की वीडियो गेम्स की और तीसरा इससे जुड़ा जो व्यापार है.


सरकार-संसद के सामने बड़ी चुनौतियां


इन सभी बातों में किस तरह से कानूनी व्यवस्था लागू हो यह सरकार और संसद के सामने बहुत बड़ी चुनौती है यह तो एक पहलू है. दूसरा पहलू यह है कि जो कानून के दायरे में उम्र के इतने सारे बंधन थे कि ये व्यस्क है, ये नाबालिग है, फिल्मों के बारे में ये एडल्ट के लिए है और ये नॉन एडल्ट के लिए है तो ये सारे वर्गीकरण मोबाइल फोन के बारे में ध्वस्त हो गए हैं. तीसरी बड़ी बात ये है कि मोबाइल फोन में इतने ज्यादा वित्तीय लेनदेन हो रहे हैं यूपीआई के माध्यम से और भी अन्य सोशल मीडिया के माध्यमों से तो इनमें जो नए सेक्टर हैं और उनके कंज्यूमर की सुरक्षा, मोबाइल धारकों की सुरक्षा है उसे लेकर जो हमारी कानूनी व्यवस्था है वो नाकाम साबित हो रही हैं.


इसके पीछे का कारण यह है कि संविधान में जो साइबर लॉ से संबंधित सातवीं अनुसूची में जो कानून है वो केंद्र सरकार के अधीन आता है. लेकिन जो कानून और व्यवस्था का विषय है वो राज्यों के अंदर आता है और राज्यों के पास मोबाइल फोन से संबंधित जो भी बातें हैं, अपराध हैं उनसे निपटने के लिए उनके पास सही तकनीक और संसाधन नहीं हैं. केंद्र सरकार अपने स्तर से सारे नियमों को बनाती है लेकिन राज्यों के स्तर पर उसे लेकर सही समन्वय नहीं होने की वजह से चुनौती का सामना करना पड़ा रहा है.


इसके अलावा मोबाइल फोन से जुड़े जो सामाजिक पहलू हैं और खास करके जो प्रतिबंधित बातें हैं यानी की जिन्हें सामाजिक तौर पर या कानूनी तौर पर मान्यता नहीं मिली है उनका भी विस्तार और कारोबार हो रहा है. उदाहरण के तौर पर ड्रग्स को ही ले लीजिए या फिर आप तमाम तरह के डेटिंग एप हैं, क्रिप्टो करेंसी है, कॉपीराइट्स का उल्लंघन का मामला है तो ये सारी नई तरह की चुनौतियां सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के सामने हैं...लेकिन मोबाइल फोन एक एक बहुत बड़ा क्रांति का माध्यम भी है...तो कहने का तात्पर्य यह है कि इसके आने से हमारी जो एक परंपरागत सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से बदल गई है. लेकिन जो नई व्यवस्था बन रही है उससे निपटने के लिए जो नियमों का नया तंत्र बनना चाहिए वो नहीं बन पाया है. यानी कि भारत सहित पूरी दुनिया एक तरह से ट्रांजिशनल फेज में है.


डेटा सुरक्षा को लेकर नहीं ठोस कानून


भारत में अभी तक डाटा के सुरक्षा को लेकर कोई भी ठोस कानून नहीं बना है. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों ने जस्टिस केएस पुट्टास्वामी मामले में 2009 में एक फैसला दिया था. लेकिन उसके बावजूद पिछले आठ सालों में सरकार और संसद से कानून नहीं बन पाया है. डाटा सुरक्षा को लेकर जस्टिस श्रीकृष्णा कमेटी बनी थी, संसदीय समिति भी बनी थी, ड्राफ्ट बिल भी पेश हुआ था. लेकिन अभी तक डाटा सुरक्षा को लेकर कोई कानून नहीं बना है. आईटी इंटरमीडियरी रूल्स के बेसिस पर केएन गोविंदाचार्य ने 2012 में दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी जिस पर मैंने बहस किया था और उस पर बहुत सारे आदेश भी हुए थे. बच्चों की सुरक्षा के लिए, डेटा की सुरक्षा के लिए, सरकारी डाटा की सुरक्षा को लेकर, सरकार की ईमेल पॉलिसी के बारे में, फिर चुनाव आयोग ने चुनाव के लिए सोशल मीडिया का गाइडलाइंस जारी किया.


अभी दो साल पहले सरकार ने आईटी इंटरमीडियरी रूल्स जारी किए हैं जिसके तहत वैसी कंपनियां जिनका कारोबार मोबाइल फोन के माध्यम से अधिक होता है और जिन्हें इंटरमीडियरी बोलते हैं उन्हें तीन तरह के अधिकारियों की नियुक्ति करनी है. जिसमें उन्हें कॉप्लाइंस ऑफिसर, ग्रीवांस ऑफिसर और नोडल ऑफिसर को पदस्थापित करना है और उसका विवरण देना है लेकिन उसके बारे में अभी तक कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जा रहा है कि उन नियमों का कितना पालन हो रहा है...तो हमारे यहां अभी ये मौजूदा व्यवस्था है. चूंकि संसद और सरकारें जब तक जागरूक होती हैं तब तक नया वर्जन और नई चीजें सामने आ जाती हैं. मोबाइल फोन और इंटरनेट अब छोटी चीजें हो गई, अब एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस)  की नई चुनौती सामने आ गई है. 


[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]