राजकिशोर तिवारी : सरकार के कामकाज का आंकलन करने के लिए एक साल बहुत छोटा अंतराल है, वो भी कोरोना काल में. जब पूरी दुनिया अदृश्य शत्रु के भय से घरों और वर्चुअल जगत में कैद है, लेकिन पूत के पाव पालने में ही दिख जाते हैं, यह कहावत भी तो एक सच है!
मोदी सरकार-2 के एक साल की बात करें तो, ऐसा लगता है कि पहले पांच साल तक संभल कर पैर बढ़ाकर चली मोदी सरकार अब दौड़ चली है. अगर क्रिकेट की भाषा में कहें, तो पहली पारी के पांच साल संभलकर खेलने के बाद दूसरी पारी में २०-२० स्टाइल में गगनचुंबी छक्के मारने से ही मोदी ने शुरुआत की. सरकार के एक साल के रिजल्ट में जब पॉज़िटिव और निगेटीव नंबरों की गढ़ना करें, तो नि:संदेह पॉजिटिव अंकों का बाहुल्य है.
मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में तमाम मूलभूत बदलाव किए थे. इनमें रक्षा मामलों से लेकर "ऑफेंसिव डिफेंस" की एप्रोच अपनाने की बात कही गई थी. सर्जिकल स्ट्राइक, ऑपरेशन ऑल आउट, बालाकोट स्ट्राइक व डोकलाम विवाद इस नई नीति की राह पर चल निकली सरकार की नीतिगत दृढ़ता को स्थापित करने जैसा था.
वहीं, दूसरी पारी के पहले ही साल धारा 370 और 34 ए को हटाकर और जम्मू-कश्मीर व लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाकर से अंजाम तक पहुंचाने का काम कर सरकार ने एक बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में मोदी की विदेश यात्राएं बहुत चर्चा के केंद्र में रही. विपक्ष इन को लेकर हमलावर रहा, तो आज के नए सामाजिक परिवेश को प्रभावित करने में सबसे सक्षम सोशल मीडिया पर इसको लेकर खूब तंज भी कसे गए, लेकिन इस सब से बेखबर मोदी "साफ्ट पावर" से शक्ति हासिल करने की नीति को आगे लेकर चलते रहे. देश-विदेश में एक सेल्स मैन की तरह कभी नगाड़े की थाप पर तो कभी चक्कर खाते स्टेज पर भारत के ब्रांड की धमक पहुंचाते रहे.
कश्मीर में ऐतिहासिक बदलाव के बाद पाकिस्तान की चीख पुकार पर अगर दुनिया खामोश रही, तो यह उसी सॉफ्ट पावर पॉलिसी की सफलता का परिणाम था, जिसे लेकर मोदी खुद निशाने पर रहते थे. विदेश नीति निश्चित रूप से सरकार की उपलब्धियों में एक बड़ा चमकता सितारा है, जो इस सरकार की आभा को बढ़ा रहा है.
सरकार की यह नीति कितनी कारगर है इसका उदाहरण मालदीव में भारत को लेकर आया बदलाव हो, या इस्लामिक संघ में भारत को घेरने को लेकर पाकिस्तान को बार-बार मिलने वाली अपमान जनक हार. मलेशिया के रुख में भारत की दृढ़ता के चलते आई नरमी हो या श्रीलंका में चीन के हाथों से अवसर छीन लेने का भारतीय दांव. भारत निश्चित रूप से 5 सालों में अपनी इस नीति में सफलता की सीढ़ियां चढ़ रहा है. एक नेपाल का मामला ज़रूर कुछ खट्टा अहसास वाली बात रही है, लेकिन ये बाइबिल के कथन ''उन्हें नहीं पता वे क्या कर रहे हैं'' वाली बात है. वैसे संकेत वहां से भी अब कुछ पाजिटिव ही हैं.
राजनीतिक मोर्चे पर भारतीय मानचित्र में भाजपा के घटते राज्य देखकर जरूर कुछ विश्लेषक बीजेपी या मोदीका ग्राफ नीचे जाने की बात कर सकते हैं. मगर इस तरह का कोई भी आकलन दरअसल न सिर्फ एकांगी, बल्कि सत्य से परे होगा.
वास्तव में जो नतीजे बीजेपी के पक्ष में नहीं गए, वो भी ब्रांड मोदी के लगातार मजबूत होने की ही तस्दीक करते हैं. दिल्ली के चुनावी नतीजों को अगर अपवाद मानें, तो सभी जगह बीजेपी का वोट प्रतिशत कमजोर नहीं हुआ है.
इसी तरह कोरोना काल में जिस तरह से एक सेनापति की तरह नरेंद्र मोदी ने फ्रंड पर आकर देश को खुद गाइड किया है. लॉकडाउन के कठिन फैसले से लेकर सीमित संस्थानों और तमाम अव्यवस्थाओं के बीच भी मोदी के उठाए गए कदमों और कोशिशों को विरोधी भी कठघरे में खड़ा करने से बचते रहे. हां, जिस मसले पर सबसे बड़ी चुनौती मोदी के सामने है, वह है आर्थिक मोर्चा. खासतौर से रोजगार और व्यापार का मसला मुंह बाए खड़ा है. मेक इन इंडिया के फौलादी शेर के कलपुर्जे ही नहीं घूम सके. काफी जोर लगाने के बाद भी यह योजना परवान नहीं पढ़ पाई.
हालांकि, मोदी-२ के बाद कुछ फैसले लिए गए, जिससे कुछ उम्मीद का दीया फिर टिमटिमाया, लेकिन कोरोना के गर्दोगुबार में वह भी फिलहाल धुआं छोड़ गया. इसी तरह CAA और NRC के मामले में सरकार के मंत्रियों का बड़बोलापन और अपरिपक्वता आड़े आ गई.
एक तो सरकार लोगों को जागरूक नहीं कर पाई. विपक्ष पर भी उंगलियां उठ रही हैं, लेकिन जिम्मेदारी से सरकार बच नहीं सकती.