नई दिल्लीः भारतीय वायु सेना के विंग कमांडर अभिनंदन की सकुशल घर वापसी के साथ ही देश में हालात सामान्य होते जा रहे हैं. दोनों बड़े राष्ट्रीय दल (बीजेपी और कांग्रेस ) चुनावी रैलियां करने लगे हैं. एक दूसरे पर आरोपो प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरु हो गया. प्रधानमंत्री मोदी अपनी चुनावी सभाओं की शुरुआत में जिस तरह से नारे लगवा रहे हैं उससे साफ है कि बीजेपी उग्र राष्ट्रवाद के मुद्दे पर चुनाव लड़ने जा रही है.
उधर कांग्रेस इस मोर्चे पर तो फिलहाल बैक फुट पर नजर आ रही है लेकिन उसे लग रहा है कि सीमा पर तनाव अगले कुछ दिनों में और ज्यादा कम होगा और तब एक बार फिर किसानों के दर्द और बेरोजगारों की निराशा को चुनावी मुद्दा बनाया जा सकेगा.
उधर छोटे दलों को गठबंधन पर भरोसा है. बीजेपी को लग रहा है कि 2014 में जिस तरह से धर्म ने जाति को तोड़ा था और हिंदुत्व ने उसे चुनाव जितवा दिया था उसी तरह इस बार राष्ट्रवाद जाति को तोड़ेगा और फिर से वापसी होगी मोदी सरकार की.
पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हमला और बालाकोट में भारतीय वायु सेना के हमले के बाद देश में चुनावी मौसम पूरी तरह से बदल गया है.
आज जहां जिस तबके के लोग से बात करो सभी पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात करते हैं और सभी को लगता है कि मोदी सरकार ने पाकिस्तान को झुका दिया है , दबा दिया है , उसका दाना पानी बंद कर दिया है , टमाटर खाने से वंचित कर दिया है और आगे से भारत में आतंकवादी भेजने से पहले पाकिस्तान हजार बार सोचेगा.
कुछ हुआ है, कुछ हवा टीवी चैनलों ने बनाई है और कुछ बीजेपी के प्रचार प्रसार विभाग का कमाल है. पिछले दस दिनों में राजस्थान , हरियाणा , दिल्ली , बिहार और यूपी में जितने लोगों से बात हुई उसके आधार पर कहा जा सकता है कि आज अगर चुनाव होते हैं तो बीजेपी आसानी से सरकार बनाने जा रही है. बहुत संभव है कि यह आकंड़ा तीन सौ पार कर जाए.
पुलवामा हमले से पहले सभी चुनावी सर्वे बीजेपी को 200 से कुछ ज्यादा और एनडीए को 240 के आसपास सीटें दे रहे थे. लेकिन अब इसमें अगर बीस तीस सीटों की इजाफा कर दिया जाए तो बीजेपी या यूं कहा जाए कि एनडीए फिर से सरकार बनाता नजर आ रहा है.
हालांकि, राजनीति में कुछ भी संभव है और एक हफ्ता भी बहुत ज्यादा होता है. यहां तो पहले चरण के चुनाव में एक महीने से ज्यादा समय बाकी है. जिस तरह से येदियुरप्पा जैसे नेताओं के बयान आ रहे हैं कि पाक पर हमले के बाद बीजेपी की कर्नाटक में सीटें 17 से बढ़कर 22 हो जाएंगी.
ऐसे बयानों का उल्टा असर भी पड़ सकता है. आखिर हमने देखा है कि पायलट अभिनंदन के पकड़े जाने की खबर के सामने आने पर टीवी चैनलों पर लड़ाई का उन्माद पचास फीसद कम हो गया था. सोशल मीडिया पर भी जिस तरह से युवा वर्ग इस कामयाबी के लिए सेना की पीठ थपथपा रहा है उससे भी बीजेपी को सावधान हो जाना चाहिए कि उसकी चुनावी रणनीति ऐसी होनी चाहिए जहां जवान सामने रहे और मोदीजी का पराक्रम थोड़ा पीछे.
थोड़ा इतिहास में जाएं तो कहा जा रहा है कि पहले भी युद्ध के बाद हुए चुनावों में सत्ताधारी दल को वैसी चमत्कारी सफलता नहीं मिली है. 1999 के करगिल युद्ध के बाद हुए चुनावों में वाजपेयी सरकार की सीटें 254 से बढ़कर 279 हो गयी थी लेकिन यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए इसमें टीडीपी की 29 सीटें शामिल थी जो पहले एनडीए का हिस्सा नहीं थी.
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इसी तरह 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े करने वाली इंदिरा गांधी को 1975 में आपातकाल लगाना पड़ा था और दो साल बाद हुए चुनाव में गद्दी गंवानी पड़ी थी. इसी तरह 1965 की भारत पाकिस्तान जंग के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस पहली बार कमजोर हुई थी और पहली बार एक दर्जन से ज्यादा राज्यों में विपक्ष पहली बार सरकार बनाने में कामयाब हुआ था.
यह सारे उदाहरण बीजेपी का दिल तोड़ने के लिए काफी हैं लेकिन यहां हमें यह भी देखना होगा कि 1965 की लड़ाई के बाद कांग्रेस में सत्ता का संघर्ष चरम पर आ गया था. कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग इंदिरा गांधी के खिलाफ खुलकर आ गया था और क्षत्रप बगावत पर उतर आए थे. यही वजह थी कि कांग्रेस 1967 के आम चुनावों में कमजोर पड़ी. इसका भारत पाक युद्ध से उतना लेना देना नहीं था.
1971 में बांग्लादेश बनाने वाली इंदिरा गांधी के चुनाव को सुप्रीम कोर्ट का अवैध ठहराना और आपातकाल लगाना उनकी 1977 में हार की वजह बना था न कि 1971 की लड़ाई. आज भी लोग इंदिरा गांधी उनके इस साहस के लिए याद करते हैं.
इसी तरह 1999 में करगिल की लड़ाई के बाद बीजेपी या एनडीए का सत्ता को बरकरार रख पाना लड़ाई के कारण ही संभव हो सका. कहा जाता है कि अगर करगिल नहीं होता तो वाजपेयी सरकार की वापसी नहीं होती.
अब बात 2019 की. 14 फरवरी को पुलवामा हमले से पहले मोदी सरकार चुनाव मैदान में दो शस्त्रों के साथ उतर रही थी. एक, किसानों के खाते में छह हजार रुपये सालाना भेजना और दो, सामान्य वर्ग को दस फीसद आरक्षण देना. इसके आलावा मुद्रा, उज्जवला, सौभाग्य, आवास योजना जैसी योजनाओं के लाभार्थियों के रिटर्न गिफ्ट वोट का सहारा था.
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उधर विपक्ष किसानों के रोने और नौकरियों के नहीं होने को मुद्दा बना रहा था. साथ ही में गठबंधन कर रहा था ताकि बीजेपी वोटों की गोलबंदी की जा सके. कुल मिलाकर बीजेपी बैकफुट पर नजर आ रही थी क्योंकि राममंदिर मुद्दा चुनावों तक ताक पर रख दिया गया था जिसका जवाब भी उसे देना पड़ रहा था. सभी कह रहे थे कि बीजेपी 180 पार नहीं जा पाएगी और उसे सरकार बनाने में दंड पेलने पड़ेंगे या फिर मोदी की जगह गडकरी प्रधानमंत्री बन सकते हैं आदि आदि आदि.
लेकिन, पुलवामा ने मोदी को मौका दिया और मोदी ने बालाकोट में हमला कर छक्का लगा दिया, विपक्ष के छक्के छुड़ा दिए. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विंग कमांडर अभिनंदन के वापसी को भी बीजेपी ने अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश की है और पाकिस्तान का टमाटर रोकने को भी चुनावी चर्चा का हिस्सा बना दिया है.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1965 , 1971 और 1999 में सोशल मीडिया नहीं था. इस बार है और उसका इस्तेमाल बीजेपी कुशलतापूर्वक करती रही है. अगर येदियुरप्पा जैसे बयान नहीं आते हैं और विपक्ष तकनीकी गलती करता है तो मोदी आसानी से वापसी कर सकते हैं. लेकिन अगर जवान के आगे प्रधान (सेवक) आया तो फिर कुछ भी हो सकता है.
ताजा उदाहरण सुप्रीम कोर्ट में राफेल पर सुनवाई का है जहां सरकार की तरफ से एजी ने कहा कि दस्तावेज चोरी हो गये थे. वह भी सैन्य दफ्तर से. इस पर जिस तरह से कांग्रेस समेत सोशल मीडिया ने हल्ला बोला है वह छवि की लड़ाई में केन्द्र सरकार को पीछे कर सकता है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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