विनोद तावड़े, बीजेपी ने नवंबर 2021 में इन्हें पार्टी का जनरल सेक्रेटरी बनाया. सितंबर 2022 में विनोद तावड़े को बिहार बीजेपी प्रभारी बना दिया गया. महाराष्ट्र की देवेंद्र फडणवीस सरकार में विनोद तावड़े को शिक्षा मंत्री बनाया गया था. बाद में मतभेद हुए, लेकिन पार्टी ने फडणवीस की मर्जी के खिलाफ जाकर तावड़े को जनरल सेक्रेटरी बनाया. अब बिहार में उनके पास बड़ी जिम्मेदारी है और वक्त भी बहुत ज्यादा है. नीतीश कुमार से रिश्ता टूटने के बाद बीजेपी के पास बिहार में 2025 विधानसभा चुनाव और उससे 2024 लोकसभा चुनाव की कड़ी चुनौती है और इस काम को पूरा करने का जिम्मा इन्हीं विनोद तावड़े के पास है, जिन्हें बीजेपी का PK यानी प्रशांत किशोर कहा जा रहा है.
ये प्रशांत किशोर से पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल
द प्रिंट की रिपोर्ट के मुताबिक, हाल ही में बीजेपी की एक मीटिंग हुई, जिसमें विनोद तावड़े लैपटॉप लेकर बैठे थे. बिहार की हर सीट का विश्लेषण करने के लिए वह अपने लैपटॉप का प्रयोग कर रहे थे. इसी दौरान एक नेता ने कहा, “सर, ये प्रशांत किशोर से पीछा छुड़ाना बड़ा मुश्किल है, वो तो लैपटॉप से ज्ञान देते हैं, लेकिन जमीन पर उतरकर जो ज्ञान मिलता है वही असली होता है.”
अब बीजेपी मीटिंग में उठे इस सवाल ने एक और सवाल खड़ा दिया है, क्या तावड़े बीजेपी के पीके बन पाएंगे? बिहार में जाकर, बिना बिहारी तेवर वाला नेता क्या अपने मराठा स्टाइल में लालू-नीतीश के गढ़ पर भगवा फहरा पाएगा? आखिर तावड़े के मिशन बिहार की रणनीति क्या है? चलिए इस पर थोड़ा बात करते हैं:
बिहार में एनडीए को विस्तार देने की तैयारी
उपेंद्र कुशवाहा ने जेडीयू का दामन छोड़ दिया है. बीजेपी का प्रयास है कि चिराग पासवान, मुकेश सहनी और जीतन राम मांझी को भी साथ लाया जाए. इस तरह एनडीए बिहार के जटिल जातिगत समीकरणों की काट निकालने में सफल हो सकती है. संभव है कि उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी, जीतन राम मांझी और चिराग पासवान में से कुछ को केंद्र में जगह भी दी जाए.
सबसे पहले 2020 बिहार विधानसभा चुनाव के पोस्ट पोल सर्वे पर नजर डालते हैं. लोकनीति-सीएसडीएस के मुताबिक, एनडीए को 37.3% और महागठबंधन को 37.2% वोट प्राप्त हुआ.
-बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे विकास, बेरोजगारी/नौकरी और गरीबी रहे. विकास के नाम 36 प्रतिशत, बेरोजगारी के नाम पर 20 प्रतिशत, महंगाई के नाम 11 प्रतिशत और गरीबी के मुद्दे पर 5 प्रतिशत लोगों ने वोट किया.
-2020 बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो बिहार असेंबली में हर चौथ विधायक सवर्ण है. 2020 में बीजेपी के कुज 74 विधायक जीते थे. इनमें 33 सवर्ण हैं. 243 सीटों वाली विधानसभा में कुल 64 सवर्ण विधायक जीते. 2020 में बिहार विधानसभा में यादव विधायकों की संख्या 2015 की तुलना में घटी. 2015 विधानसभा चुनाव में 61 यादव विधायक जीते थे, जबकि 2020 में यह संख्या घटकर 52 पर आ गई.
-2019 लोकसभा चुनाव की बात करें तो बीजेपी ने बिहार की कुल 40 सीटों में से 17 पर कब्जा किया था. तब नीतीश कुमार एनडीए में थे. इस चुनाव में बीजेपी को बड़ी संख्या में महादलित वोट प्राप्त हुआ था.
-अब बात करते हैं 2024 और 2025 में होने जा रहे नए सियासी या यूं कहें कि जातिगत समीकरण की. सबसे पहले बीजेपी के विरोधी खेमे यानी महागठबंधन की रणनीति देखते हैं. नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना का दांव चलकर न केवल ओबीसी वोट पाने बल्कि उसको संगठित करने का भी प्रयास किया है. बिहार में अन्य राज्यों की तुलना में राजनीतिक दलों की संख्या काफी ज्यादा है, ऐसा इसलिए है कि अलग-अलग जातियों के अलग-अलग नेता हैं और ये नेता अपने-अपने जाति वर्ग की बात करते हैं. जातिगत जनगणना के जरिए नीतीश ओबीसी वोट को संगठित करना चाहते हैं. ये वोट संगठित हुआ तो बीजेपी को बड़ा नुकसान होगा. अब सवाल यह है कि आखिरकार नीतीश कुमार ओबीसी वोट को संगठित करने का प्रयास क्यों कर रहे हैं? इसका जवाब जानने से पहले कुछ आंकड़ों पर गौर करें.
बीजेपी पर हो रही नॉन यादव ओबीसी वोटों की बरसात
-2014 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर आने के बाद से देशभर में बीजेपी को ओबीसी वोट मिल रहा है. हमारे देश में ओबीसी की करीब 2600 सब कास्ट हैं. हिंदी हार्टलैंड यानी हिंदी पट्टी के राज्यों में राजनीतिक पंडित इस वोट बैंक को नॉन यादव ओबीसी वोट बैंक भी कहते हैं. 2009 में बीजेपी को 23 प्रतिशत ओबीसी वोट मिलता था, 2019 तक यह बढ़कर 44 प्रतिशत पहुंच गया है. बीजेपी ने बीते 10 सालों में करीब 9 प्रतिशत ओबीसी वोट कांग्रेस से छीना और बाकी का 12 प्रतिशत क्षेत्रीय दलों से. (ये आंकड़े सीएसडीएस के पोस्ट सर्वे से लिए गए हैं)
मोदी की दोधारी तलवार से क्षेत्रीय दल लहूलुहान
-बीजेपी ओबीसी के सबसे निचले वर्ग को टारगेट कर रही है. इसके नरेंद्र मोदी और अमित शाह के पास दो बेहद घातक हथियार हैं. पहला- हिंदुत्व और दूसरा केंद्रीय की लाभकारी योजनाओं की लंबी फेहरिस्त. इन दो हथियारों के जरिए नरेंद्र मोदी ने बीते 10 सालों में क्षेत्रीय दलों की कमर तोड़कर रख दी है. आंकड़ा देखिए- 2009 में जनता परिवार से टूटकर बने क्षेत्रीय दलों की लोकसभा सीटों की संख्या 69 थी, जो 2019 लोकसभा चुनाव तक 34 पर रह गई. इस दौरान इन दलों का पांच प्रतिशत वोट भी घटा.
मोदी की काट के लिए नीतीश ने बनाया है ये मास्टर प्लान
-अब वापस बिहार पर लौटते हैं. नीतीश कुमार अब दोबारा महागठबंधन में हैं. उनकी नजर बिहार के 36 प्रतिशत ओबीसी आबादी पर है. जातिगत जनगणना उनका ब्रह्मास्त्र है. इसके अलावा मुस्लिम-यादव 31 प्रतिशत हैं. सबसे पहले जब महागठबंधन बना तो नीतीश कुमार और लालू यादव की पार्टी का वोट बैंक जुड़ने पर एनडीए बुरी तरह हारा था. पारंपरिक तौर पर नीतीश कुमार की पार्टी की गाड़ी- कुर्मी, लोअर ओबीसी वोट बैंक और महादलित के सहारे चलती रही है. इस वोट बैंक के सहारे वह विधानसभा में जीत जाते हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में जब पीएम मोदी हिंदुत्व और लाभकारी योजनाओं की दोधारी तलवार के साथ मैदान में आते हैं तो क्षेत्रीय दल धराशायी हो जा रहे हैं.
बहरहाल, नीतीश कुमार ने जाति जनगणना के नाम पर अपना दांव चल दिया है. अब देखना यह है कि जातियों के इस समुद्र को साधने के लिए क्या नीतीश कुमार जातिगत जनगणना के सहारे सेतु बना पाएंगे? और क्या नरेंद्र मोदी 2024 में अपनी ओबीसी सेना को कायम रख पाते हैं या नहीं? पहला परिणाम 2024 में आ जाएगा, उसके बाद 2025 की दिशा खुद ब खुद सामने आ जाएगी.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)