सुप्रीम कोर्ट ने ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर को उनके ख़िलाफ़ दर्ज़ सभी छह मामलों में अंतरिम जमानत देकर उत्तर प्रदेश सरकार को बड़ा झटका दिया है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देर शाम जुबैर को दिल्ली की तिहाड़ जेल से रिहा भी कर दिया गया. शीर्ष अदालत के इस फैसले का बड़ा संदेश यही है कि कोई भी सरकार मनमाने तरीके से अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचल नहीं सकती.


अगर वे ऐसा करती है,तो फिर न्यायपालिका को अपना रुख सख्त करते हुए देश के लोगों को ये बताना ही पड़ेगा कि इंसाफ अभी जिंदा है. ज़ुबैर के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने पूरी निष्पक्षता के साथ अपने इस रुख को स्पष्ट किया है. बड़ी बात ये भी है कि न्यायपालिका ने मोहम्मद जुबैर की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को कायम रखते हुए यूपी सरकार की इस मांग को सिरे से ठुकरा दिया कि जुबैर को ट्वीट करने से रोका जाये.


लेकिन बड़ा सवाल ये उठता है कि सरकारें ऐसी हर आवाज़ से इतना डरती क्यों है, जो उसे आईना दिखाने का काम करती है? और, दूसरा अहम सवाल ये भी कि इसकी क्या गारंटी है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद कोई भी सरकार बदले की भावना से की गई ऐसी कार्रवाई को दोबारा दोहराने से परहेज़ करेगी?


हालांकि न्यायपालिका अपने ऐसे किसी भी फैसले के जरिये पुलिस और जांच एजेंसियों समेत राज्य सरकारों को भी आगाह ही करती हैं वे मनमानी करने से बाज़ आएं. उसके बावजूद विरोध में उठने वाली आवाज को प्रताड़ित करने का सिलसिला नहीं रुकता है.


शीर्ष अदालत ने बुधवार को दिए अपने इस फैसले में यूपी पुलिस के खिलाफ भी काफी सख़्त टिप्पणियां की हैं, जिससे जाहिर होता है कि पुलिस ने जुबैर के ख़िलाफ़ बगैर किसी ठोस आधार के दुर्भावनापूर्ण तरीके से मामले दर्ज किये हैं. सर्वोच्च अदालत ने राज्य सरकार को दूसरा और बड़ा झटका देते हुए इस मामले की जांच के लिये बनाई गई SIT को भी भंग कर दिया है और जुबैर के ख़िलाफ़ यूपी में दर्ज सभी छह मामलों को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल को ट्रांसफर करने का आदेश दिया है.


दरअसल, यूपी सरकार की ओर से पेश हुई एडिशनल एडवोकेट जनरल गरिमा प्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान कहा कि मोहम्मद ज़ुबैर से कहा जाए वो कि ट्वीट न करें. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक पत्रकार को लिखने से भला कैसे रोका जा सकता है.


जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि ये तो कुछ ऐसा ही है कि एक वकील से कहा जाए कि वह बहस न करे. हम एक पत्रकार को ये कैसे कह सकते हैं कि वह लिखे नहीं और एक शब्द न कहे. जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर ज़ुबैर कोई आपत्तिजनक ट्वीट करते हैं तो वे उसके लिए जवाबदेह होंगे. सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि आवाज़ उठाने के लिए किसी के खिलाफ अग्रिम कार्रवाई कैसे की जा सकती है? इस दौरान अदालत ने कहा कि उनको अंतहीन समय तक हिरासत में बनाए रखना उचित नहीं है.


इससे पहले उत्तर प्रदेश में दर्ज मामलों का जिक्र करते हुए मोहम्मद ज़ुबैर की वकील वृंदा ग्रोवर ने खंडपीठ से कहा कि कृपया, इनके ट्वीट देखिए. इसमें उकसाने वाला कुछ भी नहीं है. उन्होंने सुदर्शन टीवी की ओर से दर्ज कराए गए मामले का ज़िक्र करते हुए बताया कि बतौर फ़ैक्ट चेकर उन्होंने सुदर्शन टीवी की एक ग्राफ़िक्स में ग़लत मस्जिद की तस्वीर दिखाने के मामले को उठाया. बतौर फ़ैक्ट चेकर गाजा बम धमाके में उन्होंने असल मस्जिद की तस्वीरें पेश की.


वृंदा ग्रोवर के अनुसार इस मामले को देखने से साफ़ है कि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया, लेकिन सुदर्शन चैनल ने उन पर 153ए, 295 ए के तहत केस दर्ज करा दिया. यह तो उनको चुप कराने की कोशिश है. पुलिस को टैग करते हुए कहा गया कि उम्मीद है कि वो एक्शन लेंगे. असल में उकसा कौन रहा है?


दरअसल, चार साल पुराने एक ट्वीट को लेकर बीते 20 जून को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने मोहम्मद ज़ुबैर के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की थी. उनको गिरफ़्तार किया गया था लेकिन दिल्ली हाइकोर्ट ने उनको नियमित जमानत दे दी थी. फिर भी वे इसलिए रिहा नहीं हो पाए थे क्योंकि यूपी पुलिस ने छह अन्य मामलों में कोर्ट से उनका रिमांड मांग लिया था. 


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