BLOG : महिलाएं सिर्फ बचा-खुचा खाने के लिए नहीं बनी हैं
राजस्थान न्यूट्रिशन प्रॉजेक्ट नाम की एक स्टडी में यह पाया गया है कि अगर औरतें परिवार के साथ बैठकर खाना खाएं तो उनके कुपोषित होने की समस्या दूर हो सकती है. बाद में खाना खाने की वजह से उन्हें बचा-खुचा मिलता है. कई बार बासी भी.
घर में खाना कौन पकाता है? और घर में खाना पकाने वाला खाना कब खाता है... हममें से ज्यादातर लोग इस बात पर गौर ही नहीं करते. पर हाल की एक स्टडी कहती है कि हमें इस बात पर गौर करना चाहिए. क्योंकि अधिकतर खाना पकाने वाले भरपेट खाने से ही वंचित रह जाते हैं. जाहिर सी बात है, हमारे यहां औरतें ही आधे पेट रह जाती हैं. चूंकि खाना वही पकाया करती हैं. अपनी मां, बहन या बीवी बेटी को खाना खाते हम कम ही देख पाते हैं. ज्यादातर चौके में खाया करती हैं. इसीलिए क्या खाती हैं, हम देख नहीं पाते.
हां उनके शरीर के दर्द, कराहना या दवाएं निगलना जरूर देखते हैं. कई बार गुस्साते भी हैं ज्यादा दवाइयां गटकने पर. पर इसका कारण ढूंढने की कोशिश नहीं करते. कारण हाल ही में पता चला है. राजस्थान न्यूट्रिशन प्रॉजेक्ट नाम की एक स्टडी में यह पाया गया है कि अगर औरतें परिवार के साथ बैठकर खाना खाएं तो उनके कुपोषित होने की समस्या दूर हो सकती है. बाद में खाना खाने की वजह से उन्हें बचा-खुचा मिलता है. कई बार बासी भी. वैसे तो यह स्टडी आदिवासी औरतों के बीच की गई थी लेकिन यह सच्चाई किसी भी समूह की हो सकती है- यह हमसे छिपा हुआ नहीं है.
स्टडी कहती है कि घर चलाने का काम जिसका होता है, पौष्टिक भोजन पर अधिकार भी उसी का होता है. औरतें सिर्फ हुक्म मानने का काम करती हैं, इसलिए बहुत सी चीजों से बेदखल कर दी जाती हैं. इससे पहले सेंटर फॉर इकोनॉमिक एंड सोशल स्टडीज के 2015 के एक पेपर में भी कहा गया था कि परिवार में फूड डिस्ट्रिब्यूशन जरूरत पर आधारित नहीं होता. मतलब जिसे पोषण की सबसे ज्यादा जरूरत है, खाना उस हिसाब से नहीं बांटा जाता. ब्रेडविनर मतलब कमाऊ सदस्य को सबसे पहले दिया जाता है.
ब्रेडविनर औरतें कम ही होती हैं, इसलिए उन्हें सबसे बाद में दिया जाता है. लायबिलिटी होती हैं, दूसरों के भरोसे, इसलिए कई बार खुद ही सकुचाई सी बचे-खुचे से काम चलाती हैं. अगर वे भी सबके साथ खाएं तो कुपोषण का शिकार होने से बचें. उनके बच्चे भी कुपोषित न हों. यह दुनिया भर के अध्ययन कहते हैं. यूनिसेफ कहता है कि भारत में रीप्रोडक्टिव एज में आने वाली हर तीन में से एक महिला का बॉडी मास इंडेक्स 18.5 किलोग्राम/मीटर2 से कम है. नॉर्मल 18.5 से 25 के बीच होता है.
मतलब महिला अगर कमजोर होगी तो कमजोर बच्चे पैदा करेगी. महिला और बाल विकास मंत्रालय के रैपिड सर्वे ऑन चिल्ड्रन ने भी कहा है कि भारत में स्टेंटेड मतलब कमजोर शारीरिक विकास बच्चों की संख्या बहुत अधिक है. हर 10 में से 4 बच्चों का शारीरिक विकास उनकी उम्र के हिसाब से नहीं होता. ऐसे बच्चे स्कूल में अच्छी पढ़ाई नहीं कर पाते, कमाई कम करते हैं और सामान्य बच्चों के मुकाबले जल्दी मौत का शिकार होते हैं. इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट में विजिटिंग रिसर्चर डायना कोफे कहती हैं- जब औरतें बाद में खाती हैं तो यह सब होता है.
सारी स्टडीज यही बताती हैं- मां का अच्छा भोजन कितना जरूरी है. शायद औरत और मां, इन दोनों छवियों को अलग करके हम देख ही नहीं पाते. पर औरत का सबके साथ खाना खाना सिर्फ कुपोषण दूर करने के लिए ही जरूरी नहीं है. यह इसलिए भी जरूरी है कि औरतें, औरतें हैं. एक ह्यूमन- जिसे हर चीज पर उतना ही अधिकार है, जितना दूसरों का. उन्हें पोषण चाहिए सिर्फ मां होने के नाते नहीं. एक मनुष्य होने के नाते- राइट टू फूड का उद्देश्य यही है- यही होना चाहिए. बेशक, अगर औरत मां न बनना चाहे, या न बन पाए तो क्या उसे पोषण के अधिकार से वंचित किया जा सकता है? न्यूट्रिशन सभी को मिलना चाहिए- बिना किसी रिश्ते की दुहाई दिए. इसी से एक और रिसर्च याद आती है जिसमें कहा गया था कि डेड बेबी को जन्म देने वाली औरतों की उतनी अच्छी देखभाल नहीं की जाती, जितनी जिंदा बेबी को जन्म देने वाली की. इसमें कहा गया था कि ऐसी 88 फीसदी औरतों को ना तो एक्स्ट्रा न्यूट्रिशन मिलता है, ना प्रॉपर आराम.
मतलब प्रॉडक्ट नहीं, तो आपकी कोई कद्र भी नहीं. प्रॉडक्ट हो तो आपकी वैल्यू है. प्रॉडक्ट भी कैसा- बेटा है तो ज्यादा देखभाल और पूछ. यह हमारे घरों में आम है. बेटों पर हम वारि-वारि जाते हैं. बेटियों को नजरंदाज करते रहते हैं. यही बेटियां मायके में भी बाद में न्यूट्रिशन पाती हैं, ससुराल में भी. यह भी कम हैरान करने वाली बात नहीं कि पैदाइश के समय लड़कियां, लड़कों से ज्यादा हेल्थी होती हैं. रैपिड सर्वे ऑफ चिल्ड्रन खुद कहता है कि पांच साल से कम उम्र की लड़कियां लड़कों के मुकाबले हेल्थी होती हैं.
1992-1993 और 2005-2006 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के विश्लेषण नो फीमेल डिसवांटेज इन एंथ्रोपोमेट्रिक स्टेटस अमंग चिल्ड्रन में भी यही कहा गया है कि पिछले दो दशकों में 0-59 महीने के लड़के लड़कियों की तुलना में कमजोर पाए गए हैं. लेकिन यह विश्लेषण यह नहीं बताता कि पांच साल की उम्र के बाद यह स्थिति उलट कैसे जाती है. 2015-16 का नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे यह क्यों कहता है कि एडल्ट औरतों में खून की भयंकर कमी होती है और उनका बीएमआई आदमियों के मुकाबले बहुत कम होता है. अब इस उलट स्थिति का खुलासा हुआ है. क्योंकि लड़कियां कम उम्र से चूल्हे चौके में फंसा दी जाती हैं, इसलिए साथ खाना खाने का चलन खत्म होने लगता है. फैमिली के सभी लोग साथ बैठकर खाएं तो इस कुपोषण की समस्या का हल हो सकता है. लेकिन एक बात और ध्यान देने की है.
जैसा कि ऑक्सफोर्ड की एक स्टडी डू ब्वॉय ईट बैटर देन गर्ल्स इन इंडिया में कहा गया है, जहां खाना एक ही पॉट से शेयर किया जाता है, वहां खाने देने में भेदभाव करना सबसे आसान है. घर वाले चाहें तो न्यूट्रीशियस खाना अपने मनपसंद बच्चे को पहले और जितना चाहे, दिया जा सकता है. तो, एटीट्यूड बदलने की भी जरूरत है. लड़कियां जब तक हमारी प्रायोरिटी नहीं बनेंगी, तब तक उनकी स्थिति सुधरने वाली नहीं है. इसीलिए रोटियां सेंक-सेंककर गर्म परोसने का चलन छोड़िए. पति से पहले खाना न खाने का चलन छोड़िए. क्योंकि हम सिर्फ बचा-खुचा खाने के लिए नहीं बने.
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार और आंकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.