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विशेषाधिकार पर राजनीतिक ख़ामोशी, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर नेताओं की चुप्पी, बिरादरी के नाम पर एकता, समझें मायने

सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 4 मार्च को एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया. यह फ़ैसला सांसदों और विधायकों के विशेषाधिकार के मसले से जुड़ा था. इस फ़ैसले में सर्वोच्च अदालत ने सांसदों या विधायकों को संविधान से मिले विशेषाधिकार से जुड़े एक महत्वपूर्ण पहलू को स्पष्ट कर दिया. सांसदों और विधायकों को सदन में भाषण देने और वोट डालने को लेकर संविधान से विशेषाधिकार हासिल है. इन दोनों ही मामलों में सांसदों या विधायकों को अदालती कार्यवाही से छूट हासिल है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट कर दिया कि सांसदों या विधायकों को हासिल विशेषाधिकार का यह कतई मतलब नहीं हैं कि वे रिश्वत लेकर सदन में भाषण दें या वोट डालें. अगर वे ऐसा करते हैं, तो उन पर अदालती कार्यवाही के तहत आपराधिक मुकदमा चलाया जाएगा. सांसदों और विधायकों को सदन में वोट डालने या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के मामले में अभियोग से कोई छूट नहीं मिलेगी.

'कैश फॉर वोट' और विशेषाधिकार का मसला

सात सदस्यीय संविधान पीठ के इस आदेश से सुप्रीम कोर्ट के ढाई दशक पहले दिया गया फ़ैसला पलट गया. वो फै़सला सांसदों और विधायकों को सदन में वोट देने को लेकर हासिल विशेषाधिकार से संबंधित था. सुप्रीम कोर्ट के 1998 के उस आदेश को झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत मामला या 'कैश फॉर वोट' के नाम से जाना जाता है. हालाँकि वो आधिकारिक तौर से पी. वी. नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई का केस था.

दरअसल यह मामला पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव की सरकार के ख़िलाफ़ 1993 में आए अविश्वास प्रस्ताव के विरोध में वोट करने के लिए पांच झामुमो नेताओं के रिश्वत लेने से संबंधित था. नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने के लिए झामुमो के सांसदों ने पैसे लिए थे और सरकार के पक्ष में वोट किए थे. जब यही मामला उस वक़्त सुप्रीम कोर्ट पहुँचा था, तब सुप्रीम कोर्ट ने सभी सांसदों को कैश फॉर वोट मामले में संविधान से हासिल विशेषाधिकार का हवाला देते हुए एक तरह से बे-दाग़  क़रार दे दिया था.

सांसद और विधायकों को विशेषाधिकार के मायने

सांसदों को अनुच्छेद 105 (2) और विधायकों को अनुच्छेद 194 (2) से यह विशेषाधिकार हासिल है कि सदन में बोलने और वोट देने के मामले में उनके ख़िलाफ़ किसी भी अदालत में कोई कार्यवाही नहीं चलायी जा सकती है. पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1998 में बहुमत से फ़ैसला दिया था. उस आदेश में कहा गया था कि सांसदों और विधायकों को संविधान के अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194(2) के तहत सदन के अंदर भाषण और वोट के लिए रिश्वत के आपराधिक मुकदमा से छूट हासिल है.

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी. वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ ने बहुमत से 1998 के फ़ैसले को ओवररूल या'नी निष्प्रभावी कर दिया. सात सदस्यीय पीठ में सीजेआई डी. वाई. चंद्रचूड़ के साथ ही जस्टिस पी एस नरसिम्हा,जस्टिस जे बी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार, जस्टिस ए एस बोपन्ना, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस एम एम सुंदरेश भी शामिल थे.

संसदीय व्यवस्था की शुचिता और विश्वसनीयता

पिछले कुछ वर्षों में संविधान की व्याख्या और संसदीय व्यवस्था के साथ ही नागरिक अधिकारों के संरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट से जितने भी आदेश आए हैं, उनमें यह सबसे महत्वपूर्ण कहा जा सकता है. मामला सांसदों या विधायकों के विशेषाधिकार से जुड़ा है. यह देश की संसदीय व्यवस्था की शुचिता और विश्वसनीयता से भी सीधा संबंध रखता है.

इसके साथ ही संसदीय व्यवस्था में सांसद या विधायक...विधायिका और मतदाताओं के बीच एक ऐसी कड़ी हैं, जिनसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत बने राजनीतिक और सरकारी तंत्र में देश के नागरिकों की सहभागिता सुनिश्चित होती है. इस लिहाज़ से सांसद या विधायक सदन में जो भी करते हैं, बतौर नागरिक के प्रतिनिधि के तौर पर करते हैं. चाहे भाषण देना हो या फिर वोट देना हो..जनप्रतिनिधि होने के नाते सांसदों या विधायकों का सदन में व्यवहार सीधे तौर से नागरिकों से जुड़ा है. संविधान और संविधानवाद का आधार और मूल आदर्श भी यही है.

विशेषाधिकार के मुद्दे पर राजनीतिक ख़ामोशी

लोकतांत्रिक व्यवस्था की शुचिता या पवित्रता को लेकर सुप्रीम कोर्ट से इतना महत्वपूर्ण फ़ैसला आता है, लेकिन इस पर देश के तमाम राजनीतिक दलों और बड़े-बड़े नेताओं की एक तरह से चुप्पी चौंकाने वाली है. अगर किसी दल या नेता की ओर से थोड़ी-बहुत प्रतिक्रिया भी आयी तो, वो महज़ खानापूर्ति जैसी थी. लोक सभा चुनाव के मद्द-ए-नज़र सभी राजनीतिक दल और उनके बड़े-बड़े नेता देश के नागरिकों को रिझाने के लिए तमाम तरह के दावे और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में मुस्तैदी से जुटे हैं, लेकिन इतने महत्वपूर्ण मसले पर उन लोगों की ख़ामोशी बहुत कुछ कहती है.

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर नेताओं की चुप्पी

ऐसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर मुद्दे पर बयान देते रहते हैं. प्रधानमंत्री पिछले तीन दिन से लगातार किसी न किसी राज्य के दौरे पर ही हैं. जहाँ भी जा रहे हैं, चाहे सरकारी कार्यक्रम हो या फिर पार्टी से संबंधित चुनावी जनसभा..प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण ज़रूर होता है. इन तीन दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के किसी भी भाषण में 'कैश फॉर वोट' और सांसदों-विधायकों के विशेषाधिकार से जुड़े आदेश पर कुछ नहीं कहा गया है.

जिस दिन सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया था, उस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया से जुड़े मंच 'एक्स' पर बस एक छोटा सा पोस्ट कर दिया था. इस पोस्ट के माध्यम से प्रधानमंत्री की ओर से इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर बस प्रतिक्रिया देने की रस्म निभा दी गयी थी. उनके पोस्ट में लिखा गया था कि "स्वागतम्! माननीय सर्वोच्च न्यायालय का एक महान फैसला, जो स्वच्छ राजनीति सुनिश्चित करेगा और सिस्टम में लोगों का विश्वास गहरा करेगा."

प्रधानमंत्री से देशवासियों को मिलनी चाहिए गारंटी

विषय की महत्ता को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस मसले पर देश के लोगों से और भी बात करनी चाहिए था. धर्म से लेकर नैतिकता, रहन-सहन, पहनावा और खान-पान पर बात और नसीहत देते रहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस मसले पर भी एक गारंटी देनी चाहिए थी. इस गारंटी का नाम है..संसद में विशेषाधिकार के नाम पर रिश्वत-ख़ोरी नहीं होने देने की गारंटी. अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते कि उनकी तीसरी बार सरकार बनी, तो वो इस प्रकार की व्यवस्था संविधान में ज़रूर करेंगे, जिससे कोई भी सांसद या राज्यों में विधायक विशेषाधिकार के नाम पर घूस लेने जैसी हरकत को अंजाम देने के बारे में सोच भी नहीं सकता है.

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद आपराधिक अभियोग तो चलेगा, यह तय हो गया है, लेकिन ऐसी घटना भविष्य में दोबारा नहीं हो, यह भी सुनिश्चित होना चाहिए. संविधान में संशोधन के ज़रिये इसकी व्यवस्था होनी चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसकी गारंटी देनी चाहिए. लोक सभा चुनाव के लिए बीजेपी के मेनिफेस्टो में इस बार इस गारंटी का वादा होना चाहिए. प्रधानमंत्री अगर इस तरह की गारंटी देते हैं, तो बीजेपी के साथ ही दूसरे राजनीतिक दलों और तमाम नेताओं पर इसका व्यापक असर और दबाव पड़ेगा.

इस मुद्दे पर राहुल गांधी क्यों नहीं बोल रहे हैं?

बीजेपी के अन्य बड़े-बड़े नेताओं की ओर से भी इस मसले पर कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं आयी. हैरानी की बात है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी पूरी तरह से ख़ामोश दिखे. राहुल गांधी आजकल संवैधानिक मूल्यों के साथ ही नागरिक अधिकारों की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं. वे मोदी सरकार पर संवैधानिक संस्थाओं को कमज़ोर करने और नागरिक अधिकारों को छीनने का भी लगातार आरोप लगा रहे है. लेकिन सांसदों और विधायकों के विशेषाधिकार पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर राहुल गांधी की चुप्पी भी बहुत कुछ कहती है.

हर मुद्दे पर सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने वाले राहुल गांधी ने इस पर कुछ नहीं लिखा है. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, पूर्व पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी, पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा समेत  कांग्रेस के तमाम दूसरे बड़े नेताओं की ओर से भी कोई प्रतिक्रिया या बयान सामने नहीं आया है.

कांग्रेस के तमाम नेताओं के साथ राहुल गांधी को भी अन्य मुद्दों की तरह इस मसले पर भी मुखर होने की ज़रूरत है क्योंकि यह सीधे-सीधे संसदीय व्यवस्था और मतदाताओं के भरोसे से जुड़ा विषय है. लोक सभा चुनाव के मद्द-ए-नज़र राहुल गांधी तमाम तरह के वादे कर रहे हैं, जिससे जनता के बीच कांग्रेस को लेकर भरोसा बढ़े.

अगर सचमुच राहुल गांधी को संवैधानिक संस्थाओं और मूल्यों के साथ ही नागरिक अधिकारों की चिंता है, तो, उन्हें अन्य वादों के साथ इस मसले से जुड़ा एक वादा भी करना चाहिए.  देश की जनता के सामने उन्हें खुलकर यह बोलना चाहिए कि अगर कांग्रेस की सरकार आती है, तो संविधान में हर वो बदलाव किया जाएगा, जिससे विशेषाधिकार के नाम पर सांसदों या विधायकों को लोकतंत्र की धज्जी उड़ाने की खुली छूट नहीं मिल जाए.

बाक़ी दलों के बड़े-बड़े नेता भी क्यों हैं ख़ामोश?

सत्ता पक्ष में में सबसे बड़ी पार्टी फ़िलहाल भारतीय जनता पार्टी है और विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है. इन दोनों के साथ ही देश में जितने भी राजनीतिक दल हैं, उनके बड़े-बड़े नेताओं की ओर से भी विशेषाधिकार से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर अब तक कोई ख़ास सुगबुगाहट देखने को नहीं मिली है. तृणमूल कांग्रेस, आरजेडी, जेडीयू, समाजवादी पार्टी, बसपा, डीएमके, बीजेडी, वाम दल, शिवसेना और एनसीपी का दोनों धड़ा से लेकर आम आदमी पार्टी तक सभी इस मसले पर एक ही पाले में नज़र आ रहे हैं और वो पाला ख़ामोशी का है. इनके दलों के नेताओं के रुख़ से ऐसा लग रहा है, जैसे तमाम राजनीतिक दल विशेषाधिकारऔर उसके वास्वातविक मायने पर चर्चा चाहते ही नहीं हैं. दरअसल तमाम राजनीतिक दलों की यही कोशिश है कि सासंदों और विधायकों को व्यवहार में सर्वोपरि बनाकर रखा जाए.

अपराध में भी क्यों चाहिए विशेषाधिकार?

हम कह सकते हैं कि जब कोई ऐसा मुद्दा आता है, जिसमें बिरादरी के तौर पर सांसदों के काम-काज पर सवाल उठता है, तो तमाम राजनीतिक दलों में संसद से लेकर सड़क तक राजनीतिक एकता दिखाई देती है. सांसदों और विधायकों को विशेषाधिकार का मसला भी कुछ वैसा ही है. संविधान निर्माताओं ने सांसदों या विधायकों को व्यक्तिगत विशेषाधिकार देने के लिए अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 को संविधान में जगह दी थी. इसके पीछे उनका यह अभिप्राय या मंसूबा कतई नहीं होगा कि सांसद या विधायक विशेषाधिकार के नाम पर सदन में सवाल पूछने या वोट देने के लिए रिश्वत लेने जैसा आपराधिक कृत्य करने लग जाएं. यह कॉमन सेंस की बात है.

अनुच्छेद 14 को क्यों नहीं मानना चाहते?

हालाँकि पी.वी.नरसिम्हा राव सरकार के मामले में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों ने जो कुछ भी किया था, वो सरासर अनैतिक, असंवैधानिक और अपराध था. जब किसी नागरिक के लिए घूस लेना या देना अपराध है, तो सामान्य-सी बात है कि सांसद या विधायकों के लिए भी यह अपराध ही होगा. मूल अधिकार के तहत अनुच्छेद 14 भी देश के हर नागरिक के लिए क़ानून के सामने समानता की गारंटी देता है.  पी.वी.नरसिम्हा राव सरकार के मामले में जो कुछ भी हुआ और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में जो फ़ैसला दिया, उससे किसी भी तरह से आपराधिक कृत्य के मामले में अनुच्छेद 14 के तहत समानता सुनिश्चित नहीं होता है. अपराध चाहे कोई करे, अपराध है. ऐसा नहीं हो सकता कि घूस लेना आम लोगों के लिए तो अपराध होगा, लेकिन सांसदों और विधायकों के लिए विशेषाधिकार के नाम पर इसे अपराध नहीं माना जाएगा.

विशेषाधिकार का वास्तविक मक़्सद क्या है?

विशेषाधिकार का यह मतलब नहीं है कि सदन के अंदर बोलने और वोट डालने के लिए रिश्वत लेने की छूट मिल जाती है. संविधान निर्माताओं की ओर से संविधान में  विशेषाधिकार का प्रावधान इसलिए किया गया था कि अपने-अपने इलाकों के आम लोगों की समस्याओं को उठाने में सांसदों या विधायकों के सामने किसी तरह की अदालती अड़चन पैदा नहीं हो. सदन में नागरिकों की बात रखने में सांसदों और विधायकों के मन में अदालती कार्यवाही का डर नहीं पैदा. संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 में विशेषाधिकार इसलिए रखा गया है, जिससे सदन के भीतर बहस और विचार-विमर्श के लिए निष्पक्ष माहौल बन सके. अगर कोई सांसद या विधायक रिश्वत लेकर ऐसा करता है, तो भी फिर विशेषाधिकार का वास्तविक मक़्सद ही नष्ट हो जाता है.

सामान्य समझ को जटिल बनाने की कोशिश

यह तो हास्यास्पद है कि घूस लेने को भी सांसद या विधायक विशेषाधिकार समझने लगें. त'अज्जुब इस बात पर भी होता है कि 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पहलू पर ग़ौर क्यों नहीं किया, जिसके आधार पर अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि विशेषाधिकार के दायरे में घूस लेने पर अभियोग से छूट शामिल नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने 4 मार्च के फ़ैसले में स्पष्ट से उल्लेख किया है कि 1998 के फै़सले का सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी, सार्वजनिक हित और संसदीय लोकतंत्र पर व्यापक असर पड़ा है. अब सांसद या विधायक सदन में कुठ बोलने या वोट डालने के लिए रिश्वत-ख़ोरी के आरोप में अभियोग से अनुच्छेद 105 और 194 के तहत छूट पाने के विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं.

विशेषाधिकार का मुद्दा और संविधान के प्रावधान

सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फ़ैसले के आलोक में सांसदों या विधायकों को हासिल विशेषाधिकार के संवैधानिक प्रावधानों पर भी देश के आम लोगों को नज़र डालने की ज़रूरत है. संविधान के भाग 5 के अध्याय 2 में संसद और उसके सदस्यों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ से जुड़े प्रावधान है. इसके के तहत ही अनुच्छेद 105 में संसद के सदनों की तथा उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ विशेषाधिकार आदि का ज़िक्र किया गया है.

अनुच्छेद 105 (1) में संसद में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया गया है. वहीं अनुच्छेद 105(2) में यह सुनिश्चित किया गया है कि ..." संसद में या उसकी किसी समिति में संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गयी किसी बात या दिए गए मत ( any vote given by him) के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और किसी व्यक्ति के विरुद्ध संसद के किसी सदन के प्राधिकार द्वारा या उसके अधीन किसी प्रतिवेदन, पत्र, मत या कार्यवाही के प्रकाशन के संबंध में इस प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी.''

उसी तरह से संविधान के भाग 6 में अध्याय 3 में अनुच्छेद 194 में विधान मंडलों के सदनों की और उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार आदि का उल्लेख है. अनुच्छेद 194 (2)  के तहत विधान सभा और विधान परिषद के सदस्यों के लिए सांसदों की तरह ही विशेषाधिकार की व्यवस्था की गयी है.

घूसख़ोरी कैसे हो सकता है विशेषाधिकार?

ताज़ा फै़सले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने स्पष्ट तौर से माना है कि सांसदों या विधायकों के भ्रष्टाचार और रिश्वत-ख़ोरी से भारतीय संसदीय लोकतंत्र की नींव कमज़ोर होती है. हालाँकि यह ऐसी जटिल बात भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट कहेगी, तभी सांसद या विधायक इस पहलू को समझेंगे. घूसख़ोरी संसदीय विशेषाधिकारों के तहत संरक्षण का हिस्सा हो ही नहीं सकता. हर सांसद और विधायक के साथ ही देश के हर नागरिक को भी इस बात को समझने की ज़रूरत है. ताज़ा फ़ैसले से स्पष्ट हो गया है कि पाँच सदस्यीय संविधान पीठ के 1998 के आदेश की व्याख्या अनुच्छेद 105 और 194 के विपरीत है.

संविधान में ज़रूरी संशोधन से स्थिति हो स्पष्ट 

हालाँकि इससे जुड़ा एक और महत्वपूर्ण पहलू है, जिसकी गारंटी देश के दो मुख्य राजनीतिक दलों बीजेपी और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को देनी चाहिए. हम सबने देखा कि 1998 के फ़ैसले को उससे बड़ी संविधान पीठ ने पलट दिया. ऐसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भविष्य में सात सदस्यीय पीठ से भी बड़ी पीठ मौजूदा फ़ैसले को संवैधानिक मज़बूरी का हवाला देते हुए पलट दे. विषय संवेदनशील, महत्वपूर्ण और भारतीय संसदीय लोकतंत्र की पवित्रता और विश्वसनीयता से जुड़ा है. भविष्य में ऐसा नहीं हो, इसके लिए संविधान में बदलाव करके विशेषाधिकार से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन किया जाना चाहिए. संशोधन के ज़रिये संविधान में यह स्पष्ट लिखा जाना चाहिए कि विशेषाधिकार के दायरे में आपराधिक कृत्यों को शामिल नहीं माना जाएगा.

नागरिक अधिकारों के लिहाज़ से है महत्वपूर्ण

भारत की न्याय व्यवस्था में अगर कोई कृत्य अपराध है, तो, वह सबके लिए अपराध होगा. यह अपने आप में अजीब-ओ-ग़रीब है कि क्या एक सांसद या विधायक अदालत में घूस लेने के आरोप में अभियोग से छूट का दावा कर सकता है. ताज़ा फै़सले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी है कि रिश्वत-ख़ोरी और भ्रष्टाचार  संविधान की आकांक्षाओं और विचारशील आदर्शों के लिए ख़तरनाक है. इससे राजतंत्र स्थापित होता है, जिससे देश के नागरिक उत्तरदायी, ज़िम्मेदार और प्रतिनिधित्व प्रदान करने वाले लोकतंत्र से वंचित हो जाते हैं.

राजनीतिक दलों पर दबाव बनाने की ज़रूरत

देश लोक सभा चुनाव की दहलीज़ पर खड़ा है. ऐसे में तमाम राजनीतिक दलों को वादा करना चाहिए कि उनकी पार्टी की सरकार आने पर संविधान में यह बदलाव किया जाएगा. इस विषय पर देश के नागरिकों के लिए राजनीतिक दलों पर दबाव बनाने का यह एक मौक़ा है. नागरिकों को भी इस पहलू को समझने की ज़रूरत है. सांसदों या विधायकों को विशेषाधिकार का मसला सीधे नागरिकों से जुड़ा है. मतदाता सांसदों या विधायकों को चुनते हैं. ऐसे में सदन में सांसद या विधायक जो भी कृत्य कर रहे हैं, नागरिक प्रतिनिधि के तौर पर कर रहे हैं. अगर कोई सांसद या विधायक रिश्वत लेकर सदन में सवाल पूछता है, कोई मुद्दा उठाता है या वोट देता है, तो सरासर वो अपने क्षेत्र के मतदाताओं का भरोसा तोड़ता है और उनका अपमान करता है.

संविधान के तहत वास्तविक माननीय नागरिक

रिश्वत-ख़ोरी में लिप्त होकर सांसद या विधायक सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को तहस-नहस करते हैं. विशेषाधिकार के नाम पर वे बच नहीं सकते हैं. अगर सोचते हैं कि उनको छूट है, तो यह सरासर संविधान के मूल आदर्श, मूल लक्ष्य और मूल विमर्श को ताक पर रखने सरीखा होगा.

लोकतांत्रिक ढाँचे में संसदीय व्यवस्था के तहत संविधान के मूल आदर्श, मूल लक्ष्य और मूल विमर्श के केंद्र में सिर्फ़ और सिर्फ़ नागरिक होता है. संविधान के मुताबिक़ सही मायने में सम्माननीय या माननीय सांसद या विधायक नहीं होते हैं, बल्कि यह अधिकार नागरिकों को मिला हुआ है. सांसदों या विधायकों को विशेषाधिकार माननीय होने या अपने राजनीतिक हितों, स्वार्थों की पूर्ति के लिए नहीं मिला है, बल्कि नागरिकों के कल्याण में काम करने के लिए मिला है. संविधान के तहत विशेषाधिकार का विमर्श भी नागरिक केंद्रित है.

विशेषाधिकार का दावा और न्यायिक समीक्षा

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश के निष्कर्ष में कहा है कि यूनाइटेड किंगडम के हाउस ऑफ कॉमन्स के विपरीत, भारत के पास 'प्राचीन और निस्संदेह' विशेषाधिकार नहीं हैं जो संसद और राजा के बीच संघर्ष के बाद निहित थे. आज़ादी के पहले भारत में अनिच्छुक औपनिवेशिक सरकार के सामने विशेषाधिकार क़ानून द्वारा शासित होते थे. संविधान लागू होने के बाद वैधानिक विशेषाधिकार संवैधानिक विशेषाधिकार में तब्दील हो गया. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि संवैधानिक विशेषाधिकार होने के कारण किसी विशेष मामले में विशेषाधिकार का दावा संविधान के मापदंडों के अनुरूप है या नहीं, इसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है.

सांसद या विधायक सदन में वोट या भाषण के संबंध में रिश्वत-ख़ोरी के आरोप में अभियोजन से अनुच्छेद 105 और 194 के तहत छूट प्राप्त करने के लिए विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता है. अगर ऐसा दावा किया जाता है तो यह सदन के सामूहिक काम-काज के साथ ही विधायिका के सदस्य के तौर पर उस व्यक्ति के कर्तव्यों के निर्वहन पर भी सवाल खड़ा करता है.

संविधान की व्याख्या में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका

संविधान की व्याख्या करने का काम सुप्रीम कोर्ट का है. इसके तहत ही ताज़ा फ़ैसले में  विशेषाधिकार से जुड़े प्रावधान की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194 के संबंधित प्रावधान के तहत रिश्वत-ख़ोरी को लेकर छूट नहीं दी गई है. रिश्वत-ख़ोरी में शामिल विधायिका सदस्य एक अपराध करता है. वोट डालने या वोट कैसे डाला जाना चाहिए... यह तय करने की क्षमता के लिए रिश्वत-ख़ोरी आवश्यक नहीं है. यही सिद्धांत सदन या किसी समिति में भाषण के संबंध में रिश्वत-ख़ोरी पर भी लागू होता है.

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि विधायिका के किसी सदस्य, जिस पर रिश्वत-ख़ोरी में शामिल होने का आरोप है, के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने के न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को मान्यता देने से विधायिका के व्यक्तिगत सदस्यों के ख़िलाफ़ दुरुपयोग की संभावना न तो बढ़ती है और न ही कम होती है. जब कोई सदस्य घूस स्वीकार करता है, उसी समय ही रिश्वत-ख़ोरी का अपराध पूरा हो जाता है. अपराध का इससे कोई लेना-देना नहीं है कि वो सदस्य घूस देने वाले के पक्ष में वोट करे या नहीं करे.

विरोधाभास को सुप्रीम कोर्ट ने किया दूर

पीवी नरसिम्हा राव केस में एक महत्वपूर्ण पहलू था. जिसने घूस लिया और घूस देने वाले के पक्ष में मतदान किया, उसे अनुच्छेद 105 और 194 ते तहत अभियोग से छूट मिल जा रही थी. दूसरी ओर जो रिश्वत लेने के लिए तैयार होता है, लेकिन वोट स्वतंत्र निर्णय से करता है, उस पर मुकदमा चलाया जाएगा. यह विरोधाभासी स्थिति था. ताज़ा फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि ऐसी व्याख्या अनुच्छेद 105 और 194 के टेक्स्ट और उद्देश्य के विपरीत है.

राज्य सभा चुनाव से जुड़ा था पूरा मामला

यह केस राज्य सभा के लिए झारखंड से आने वाली सीटों पर हुए चुनाव से संबंधित था. सीता सोरेन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया का मामला था. झारखंड मुक्ति मोर्चा की नेता सीता सोरेन पर आरोप था. 30 मार्च 2012 को झारखंड के कोट में पड़ने वाली दो राज्य सभा सीट पर चुनाव हुआ था. सीता सोरेन इस वक़्त विधान सभा सदस्य या'नी एमएलए थी. उन पर इस चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार से रिश्वत लेने का आरोप लगा था. हालाँकि उन्होंने कथित रिश्वत देने वाले के पक्ष में अपना वोट नहीं डाला. इसके बजाय अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में अपना वोट डाला.

बाद में गड़बड़ी की आशंका के बाद चुनाव रद्द कर दिया गया. नए सिरे से हुए चुनाव में भी सीता सोरेन ने अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान किया. चुनाव में गड़बड़ी से जुड़े मामले की सीबीआई जाँच हुई थी. इसमें सीता सोरेन को घूस लेने का आरोपी बनाया गया. सीता सोरेन ने आरोप पत्र और उसके ख़िलाफ़ शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए झारखंड हाईकोर्ट का रुख़ किया. हाईकोर्ट ने 17 फरवरी, 2014  इस आधार पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से इंकार कर दिया कि अपीलकर्ता ने कथित रिश्वत देने वाले के पक्ष में अपना वोट नहीं दिया था. ऐसे में वे  अनुच्छेद 194(2) के तहत सुरक्षा की हक़दार नहीं हैं.

राज्य सभा चुनाव अनुच्छेद 194(2) के दायरे में

इसके बाद सीता सोरेन ने हाईकोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थीं. बाद में यह मामला दो सदस्यीय बेंच से गुज़रता हुआ सात सदस्यीय संविधान पीठ के पास पहुँच गया. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने 4 मार्च के आदेश में स्पष्ट कहा है कि राज्य सभा के चुनाव अनुच्छेद 194(2) के दायरे में हैं. सर्वोच्च अदालत ने इन विशेषाधिकारों को संसदीय विशेषाधिकार कहा. इस आधार पर संसदीय विशेषाधिकार का उद्देश्य राज्य सभा के चुनावों के साथ ही राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों पर भी समान रूप से लागू होता है.

आम लोगों के बीच व्यापक चर्चा की ज़रूरत

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले पर देश के आम लोगों के बीच व्यापक चर्चा की ज़रूरत है. यह सिर्फ़ एक या दो दिन तक सीमित रहना वाला विमर्श नहीं है. अगर भविष्य में संसद और संसदीय प्रक्रिया को निष्पक्ष और भरोसेमंद बनाकर रखना है, तो इस दिशा में जनता को अपने जनप्रतिनिधियों, राजनीतिक दलों और उनके नेताओं से और भी मुस्तैदी से सवाल पूछने के लिए तैयार रहना चाहिए.

ऐसा होने पर ही जनप्रतिनिधि विधायिका के काम-काज में नागरिक को सर्वोपरि मानने के विमर्श को व्यवहार में महत्व देंगे. ख़ुद को माननीय मानने के बजाए देश के आम लोगों को माननीय मानेंगे. जब देश के आम लोग संविधान और उसके प्रावधानों के प्रति जागरूक होकर लगातार सवाल करने लगेंगे, तभी उस विमर्श को राजनीतिक दल और नेता बढ़ावा देना बंद कर देंगे, जिसमें सांसदों और विधायकों को माननीय मान लिया जाता है.

यहाँ माननीय से मेरा तात्पर्य संसदीय व्यवस्था में ख़ुद को सर्वोपरि मानने से है. चाहे राष्ट्रपति हों या प्रधानमंत्री.. सांसद-विधायक हों या अलग-अलग अदालतों के जज..लोकतंत्र में नागरिक से ऊपर कोई नहीं हो सकता है. इसे हर किसी को समझने की ज़रूरत है. भविष्य में नागरिक विशेषाधिकार पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए. नागरिक विशेषाधिकार सुनिश्चित करने के तौर-तरीक़े तलाशने के लिए राजनीतिक दलों और नेताओं को मजबूर किया जाना चाहिए. संसद से लेकर सड़क तक, चुनाव से लेकर सरकारी और राजनीतिक नीतियों में इससे महत्वपूर्ण कोई मुद्दा नहीं हो सकता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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