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मुनव्वर राणा का जाना शायरी और अदब का बड़ा नुकसान, राजनीतिक विचार हो सकते हैं विवादित पर लेखन था अव्वल दर्जे का

मशहूर शायर मुनव्वर राना का बीते रविवार को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. वह 71 साल के थे. मुनव्वर राना लंबे समय से बीमार चल रहे थे. उन्होंने लखनऊ के पीजीआई अस्पताल में आखिरी सास ली. पीजीआई अस्पताल में भर्ती होने के पहले राना को लखनऊ के ही मेदांता अस्पताल में भर्ती किया गया था. जानकारी के मुताबिक, मुनव्वर राना को क्रॉनिक बीमारी की समस्या थी. कुछ दिनों पहले उन्हें निमोनिया भी हुआ था. मुनव्वर राना के जाने से ही एक बेहद कमाल का शायर, जज्बातों को खूबसूरत शब्दों में पिरोनेवाला अदीब और उर्दू-हिंदुस्तानी को अपनी कलम से धनी बनाने वाला गजलगो, किस्सागो हमारे बीच से चला गया है, साहित्य आज कुछ और दरिद्र हो गया है. 

बहुत बड़े शायर और आदमी थे 

मुनव्वर राना हमारी आधुनिक उर्दू शायरी के बड़े प्यारे शायर थे. जो एक हद तक अपने आप को हिन्दुस्तानी जड़ों से जोड़े हुए थे. राना का निधन उर्दू के लिए एक क्षति जैसा है. मुनव्वर राना ने अरबी, फारसी जैसी भाषाओं को पकड़ते-छोड़ते हुए अवधी और खासकर हमारी स्थानीय भाषा को, बोली को को उर्दू शायरी में जोड़ने की कोशिश की थी. उन्होंने शायरी की दुनिया में अपनी एक अलग शैली बनाई थी. वग बेहद जहीन और उर्दू के बड़े शायर थे. मुनव्वर राना ने अपनी हिन्दुस्तानी शैली की शायरी की अलग शैली विकसित की, जिसमें वह अवधी और हिन्दी के शब्दों का एक नया मयार बनाते थे. विशेषकर मां के ऊपर की उनकी कविताएं या शायरी या नज्म है, या अगर शाहदाबा को पढ़ें, या फिर मां पर लिखी उनकी गजलें पढ़ें, वह रवानी खूब मिलती है.

उनको 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, वो एक संग्रह था. वो कविताएं थी जो हिन्दी के आसपास लिखी जा रही थी, उनके आस-पास आने का वो प्रयास करते थे. खासकर लखनऊ स्कूल की शायरी, जिसे माना जाता था कि एक मैखाने की शायरी है उसे वे बदलते हुए मुद्दों से जोड़ते हैं, जो जीवन के मुद्दे थे. जनता के जो मुद्दे थे, बयान के जो मुद्दे थे, वो कहते थे “बाल नहीं बदलूंगा बयान नहीं बदलूंगा”. यदि आप उनकी तमाम शायरी, नज्म या कविताओं को पढे़ंगे तो उनमें ये दिखाई देता है. राना की शायरी या उनकी जो वैचारिक पृष्ठभूमि है वो बाद में भले बदल गई. इसमें कोई शक नहीं है कि वो बेहद जहीन और उर्दू के बड़े शायर थे.

मां पर लिखी शायरी है बेजोड़  

मुनव्वर राना ने जो कुछ भी मां पर लिखा है, वह अद्भुत है. उनको अक्सर मां का मुनव्वर भी कहा जाता था. जब वह लिखते हैं -चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है, मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है.' तो किस बेटे का हृदय नहीं पिघल उठेगा, वह रिश्तों के कवि हैं, शायर हैं और परिवार के पुरसाहाल हैं. चाहे उनकी भाभी पर लिखी शायरी हो, बहन पर लिखी गजल हो, अशआर हो या फिर मां पर लिखी गजलें हों. वह बेहद भावुक और संवेदनशील कवि थे, साथ ही उनमें अवध की नफासत, बेबाक बयानी और गंगा-जमनी तहजीब भी देखने को मिलती है.

यह अलग बात है कि बाद में वह राजनीतिक शेर भी कहने लगे थे और वह राजनीतिक मसलों पर ऐसी राय भी रखने लगे थे, जो लोगों को बहुत पसंद नहीं आयी. उनकी विचारधारा पर उनकी शायरी को कमजोर बनाने का भी आरोप लगा है. खासकर फ्रांस में शार्ली हेब्दों में छपे एक कार्टून प्रकाशित होने पर जब गला काटकर हत्याएं हुईं और मुनव्वर राना ने उस चीज का समर्थन किया था. उन्होंने यहां तक कहा था कि मै भी होता तो यहीं करता. तालिबान को भी जिस तरह से राना ने जस्टिफाई किया, एक तरह से देश के लिए लड़ने वाला कांग्रेस घोषित किया, वह चौंकाने वाली थी. यहां तक कि पूरी की पूरी घटना की तुलना राना ने वाल्मिकी से जोड़ी और कहा कि वो भी एक तरह से डाकू थे और तालिबानी थे.

इस्लामी शायरी की ओर हुआ बाद में झुकाव 

मदीने तक में हमने मुल्क की खातिर दुआ मांगी,
किसी से पूछ लो, इसको वतन का दर्द कहते हैं ।

मुनव्वर राना जब यह लिखते हैं तो मदीने का जो विंब है, वह उनके अवचेतन, जो खासकर इस्लामी शायरी में आकर्षक का केन्द्र है, में शामिल रहता है. अपने बाद के लेखन में मुनव्वर राना बहुत ही विवादित हो गए थे. 2014 के बाद देश में जिस तरह से राजनीतिक परिवर्तन हुए, मुन्नावर राना शायद अपने आप को 1947 के पहले वाली उस निजी परम्परा के साथ जुड़ने की एक चेतना विकसित की, जो उस समय उसी तरह से व्यवहार कर रही थी. ठीक वहीं चेतना मुनव्वर राना में 2014 के बाद भी थी. इस चेतना का भी गंभीर विश्लेषण करना चाहिए, उसके माध्यम से जो शायरी है, जो शायरान हैं उर्दू के, उन्हें उसपर विचार करना चाहिए की क्या उसके संसोधन की जरूरत नहीं है. इसमें कोई शक नहीं है कि मुन्नावर राना उर्दू कविता, शायरी का एक बहुत बड़े शायर थे.

सबसे बड़ी बात यह की वो एक शुद्ध शायर थे. सोनिया गांधी के ऊपर लिखी गई नज्मों को छोड़ दिया जाए तो जो पॉपुलैरिटी गेन करने का, जो क्षणिक रूप से जो लोकप्रियता पाने का जो प्रयास करते हैं, मुनव्वर राना के शफ्फाक दामन पर वही एकाध छींटे हैं. वह उर्दू कविता में कुछ अलग तरह से सुधार करना चाहते थे और उन्होंने किया भी. यदि मुनव्वर राना में थोड़ी लोकतांत्रिक विचारधारा या रेडिकल विचारधारा कम होती तो शायद वह इस देश की शान होते और शायद वो दूसरी कविताओं के लिए, दूसरी भाषाओं के कविताओं के लिए भी आइडियल व्यक्ति होते. बहरहाल, इतना तो तय है कि उनके जाने से आज उर्दू शायरी उदास है, शेख सादी से लेकर खुसरो तक की परंपरा कहीं न कहीं टूटी है, राहल इंदौरी से लेकर फैज और गालिब तक की चेतना में कहीं न कहीं कमी आयी है. मुनव्वर, आप कसम से याद तो बहुत आएंगे. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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