ब्लॉग: यूपी में मुस्लिम वोट की 'माया', किसका खेल बिगड़ेगा, किसका बनेगा?
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देश में सभी पार्टियां अपनी-अपनी पार्टी को लोकतांत्रिक पार्टी कहती हैं लेकिन असल में टिकट बंटबारे और चुनाव के समय सभी पार्टियां जाति और धर्म को काले चश्मे से देखती है. जगजाहिर है कि उत्तरप्रदेश चुनाव में मुस्लिम वोटरों की खास चर्चा हो रही है. इसमें सिर्फ पार्टी की गलती नहीं है बल्कि जाति और धर्म से जकड़े हुए वोटरों का भी यही नजरिया है जो पार्टी की है.
बीजेपी के उम्मीदवार की थाली से 20 फीसदी हैसियत वाली मुस्लिम आबादी पूरी तरह गायब है वहीं इसी मुस्लिम वोट के लिए बीएसपी और सपा में मारामारी चल रही है. साफ है कि जिस पार्टी की जेब में जितने मुस्लिम वोट गिरेंगे, उस पार्टी की जीत उतनी ही आसान हो जाएगी.
मायावती का फॉर्मूला
यूपी के चुनाव में मायावती ने इस बार दलित-मुस्लिम गठजोड़ को जीत का फॉर्मूला बनाया है. यही वजह है कि मायावती खुलेआम मुसलमानों से सिर्फ उन्हीं की पार्टी को वोट डालने की अपील कर रही है लेकिन बीजेपी इसे मुद्दा बना रही है. बीजेपी ने चुनाव आयोग से मायावती के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है.
बीएसपी और सपा की जीत मुस्लिम वोटरों के भरोसे है वहीं बीजेपी बिना मुस्लिम वोट यानि ध्रुवीकरण करके हिंदू वोटरों के सहारे चुनाव जीतने की जुगाड़ में हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में यही हुआ था बीजेपी बिना गठबंधन मुस्लिम वोट के सहारे 73 सीटें जीत गई थीं और पहली बार ऐसा हुआ कि एक भी मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीत नहीं पाया.
इसबार ऐसी भूल न हो इसके लिए सपा और बीएसपी खुल्लम खुल्ल्म मुस्लिम वोटरों को लुभाने में लगी है. यूपी के 125 सीटों पर प्रभाव रखनेवाली मुस्लिम आबादी पर मायावती की खास नजर है पिछले चुनाव के मुकाबले बीएसपी ने इस बार 13 ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार को चुनावी दंगल में उतारे हैं. 2012 में बीएसपी ने 88 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिये थे, इसबार ये संख्या बढ़कर 100 हो गई है. सपा-कांग्रेस गठबंधन ने इस बार 72 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं जबकि पिछली बार सपा ने भी 83 उम्मीदवार उतारे थे जबकि कांग्रेस ने सिर्फ 23 ही उम्मीदवार थे. पिछली बार से तुलना नहीं की जा सकती है चूंकि इस बार सपा-कांग्रेस के बीच गठबंधन है. वैसे मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देना गुनाह नहीं है क्योंकि उत्तर प्रदेश में करीब 20 फीसदी मुस्लिम की आबादी है. सवाल है कि कैसे मुस्लिम वोटरों को बीजेपी का डर दिखाकर और लुभाकर वोट लिया जाता है लेकिन मुस्लिम वोटरों की भी मजबूरी मायावती और अखिलेश हैं.
क्या है मुस्लिम वोटरों का तिलिस्म
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दरअसल मुस्लिम वोटरों का मकसद होता है बीजेपी को हराना क्योंकि बीजेपी और मुस्लिम वोटरों के बीच कई मुद्दों को लेकर खाई है और इस खाई को कम करने की कोशिश दोनों तरफ से नहीं हो रही है. मुस्लिम वोटरों की मजबूरी समझा जाए या लाचारी राजनीतिक पार्टियां बीजेपी का हौव्वा दिखाकर वोटरों को लुभावने की कोशिश करती रहती है. ये मालूम होते भी कि आजादी के 70 साल बाद भी मुस्लिम समाज की न तो आर्थिक स्थिति बेहतर हुई और न ही शैक्षणिक स्थिति. सरकारी नौकरियों में स्थिति बदतर ही है. ऐसा प्रतीत होता है कि मुस्लिम समाज के लिए पहले सम्मान फिर आर्थिक और शैक्षणिक मापदंड है.
बीजेपी को हराने के लिए मुसलमानों को ऐसी पार्टी को भी चुनने से गुरेज नहीं है जो उनकी हमदर्द पार्टी नहीं मानी जाती. इसकी मिसाल दिल्ली विधानसभा चुनाव है जहां मुसलमानों ने अरविंद केजरीवाल को जिताने का काम किया था, जबकि केजरीवाल से मुस्लिम वोटरों की कोई हमदर्दी नहीं थी. ये देखा गया है जो पार्टी बीजेपी को हराने की कुव्वत रखती है मुस्लिम वोटर उसी को वोट करते हैं. मसलन गुजरात में कांग्रेस, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तो बिहार में लालू यादव. यही एक वजह है कि चुनाव में बीजेपी मुस्लिम उम्मीदवारों को तरजीह नहीं देती है.
क्या है सस्पेंस?
पहले ऐसा कहा जा रहा था कि उत्तरप्रदेश में मुस्लिम वोटर अखिलेश के समर्थन में उतर गये हैं लेकिन बीएसपी ने सपा-कांग्रेस के 72 उम्मीदवार के खिलाफ 100 उम्मीदवार उतारकर सारा खेल खराब कर दिया है. अब ये कहा जा रहा है कि सपा को मुस्लिम का एकमुश्त वोट नहीं मिल रहा है इसी वजह से ये सस्पेंस बन गया है कि अब यूपी में किसकी सरकार बनेगी. ये भी देखा गया है कि अगर मुस्लिम वोट बंटते हैं तो कहा जाता है कि वोटरों का धुर्व्रीकरण नहीं हुआ है लेकिन इतिहास गवाह है कि 1993 से ही सपा और बीएसपी के वोट बंटते आ रहे हैं. जिस पार्टी की जीत की उम्मीद जितनी होती है मुस्लिम वोट उसी तरफ मुड़ने की कोशिश करते हैं.
अमूमन मुस्लिम वोट 60 और 40 फीसदी के अनुपात में बंट जाता है. जीतने वाली पार्टी को 60 से 65 फीसदी और 35 से 40 फीसदी वोट दूसरी पार्टियों में बंट जाता है. जब 2007 में मायावती जीतीं थीं जो बीएसपी के 30 मुस्लिम उम्मीदवार और सपा के 21 उम्मीदवारों की जीत हुई थी जब 2012 में अखिलेश का पलड़ा भारी हुआ तो 43 मुस्लिम उम्मीदवार सपा से और 15 मुस्लिम उम्मीदवार बीएसपी से जीते थे.
इस बार इस चुनावी दंगल में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी करीब 50 सीटों भाग्य आजमा रही है. इसके अलावा छोटी-मोटी पार्टियां भी चुनाव मैदान में हैं.
पहले चरण में बीएसपी के 21 मुस्लिम उम्मीदवार हैं तो वहीं सपा-कांग्रेस के सिर्फ 15 उम्मीदवार हैं. दूसरे चरण में बीएसपी के 30 मुस्लिम उम्मीदवार हैं तो सपा-कांग्रेस के 31 उम्मीदवार हैं जिनमें कुछ सीटों पर दोनों पार्टियों के बीच दोस्ताना लड़ाई है. मुस्लिम वोटरों की बिसात पर जीत किसकी होगी, ये तो वक्त ही तय करेगा लेकिन इतने ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशियों ने मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है और सस्पेंस भी पैदा कर दिया है कि किस पार्टी को मुस्लिम वोटरों का सहारा मिलेगा.
धर्मेन्द्र कुमार सिंह, चुनाव विश्लेषक और ब्रांड मोदी का तिलिस्म के लेखक हैं. इनसे ट्विटर पर जुड़ने के लिए @dharmendra135 पर क्लिक करें. फेसबुक पर जुड़ने के लिए इसपर क्लिक करें. https://www.facebook.com/dharmendra.singh.98434
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