कभी आपने सोचा कि अगर पेट्रोल और डीजल भी GST यानी वस्तु और सेवा कर के दायरे में आ जायें, तो आपके घर का मासिक बजट किस हद तक महंगाई से लड़ने में मददगार बन सकता है? जाहिर है कि सोचा भी होगा लेकिन इसका जवाब शायद नहीं मिल पा रहा होगा. चूंकि ये मसला सिर्फ आपके घर की तिजोरी से नहीं बल्कि केंद्र से लेकर हर राज्य की सरकार के खजाने से जुड़ा हुआ है. लिहाज़ा,पहले वे अपनी तिजोरी को भरने की चिंता करें,या हम सबकी. ये ऐसा मसला है,जो हम सबकी रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा हुआ है और इन दोनों जरुरी चीजों की कीमतें ही हमारे देश में महंगाई का पैमाना तय करती हैं कि वो कम होगी या फिर सुरसा की तरह बढ़ती ही जाएगी.
इसी मसले पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की अगुवाई में शुक्रवार को जीएसटी कॉउंसिल की जो मीटिंग हुई, उसमें दो राज्यों का रुख बेहद चौंकाने वाला था. वह इसलिये कि महाराष्ट्र व केरल ऐसे राज्य हैं,जहां बीजेपी सत्ता में नहीं है और वहां की सरकारों से लोगों को ये उम्मीद थी कि वे तो हर सूरत में पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देंगी. लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उलट क्योंकि इन दोनों सरकार ने कोरोना महामारी की दलील देते हुए साफ कह दिया कि अगर केंद्र सरकार ने ऐसा किया,तो हम तो सड़क पर आ जाएंगे. तो इससे एक बात तो साफ हो ही गई और लगे हाथ विपक्षी दलों के इस आरोप की भी हवा निकल गई,जो हर रोज चिल्लाते हुए कहते हैं कि मोदी सरकार अपना खज़ाना भरने के लिए इन दोनों ईंधन को जीएसटी में नहीं लाना चाहती.
तो सवाल ये उठता है कि आखिर केंद्र व राज्य सरकारें इसे जीएसटी में लाने से आखिर क्यों बच रही है? होना तो ये चाहिये कि लोगों को महंगाई से थोड़ी-सी भी राहत देने के लिए सबको एक सुर में इसका समर्थन करना चाहिये था. लेकिन सरकारें हमारे सोचने औऱ उसे हक़ीक़त में बदलने के हिसाब से नहीं चला करतीं. वे पहले अपना फायदा देखती हैं और जनता की तकलीफें उसकी सबसे निचली पायदान पर फरियाद करते हुए दम तोड़ देती हैं.
महंगाई बढ़ाने या उस पर काबू पाने की सबसे बड़ी वजह बनने वाली इन दोनों चीजों की कीमतें तय करने के पीछे का खेल आखिर है क्या. तो जानते हैं,वो हक़ीक़त. दरअसल,जितनी तेल की कीमत होती है, लगभग उतना ही टैक्स भी लगता है. कच्चा तेल ख़रीदने के बाद रिफ़ाइनरी में लाया जाता है और वहां से वो पेट्रोल-डीज़ल की शक्ल में बाहर निकलता है. इसके बाद उस पर टैक्स लगना शुरू होता है. सबसे पहले एक्साइज़ ड्यूटी केंद्र सरकार लगाती है. फिर राज्यों की बारी आती है जो अपना टैक्स लगाते हैं. इसे सेल्स टैक्स या वैट कहा जाता है. जानकारों के मुताबिक पेट्रोल-डीजल पर जो वैट अभी लगता है, वो पुराने सेल्स टैक्स का नया नाम है. इसका जीएसटी से कोई लेना-देना नहीं है. हर राज्य ख़ुद ये फ़ैसला करता है कि उसे पेट्रोल-डीजल पर कितना वैट लगाना है.
इसके साथ ही पेट्रोल पंप का डीलर उस पर अपना कमीशन जोड़ता है. अगर आप केंद्र और राज्य के टैक्स को जोड़ दें तो यह लगभग पेट्रोल या डीजल की वास्तविक कीमत के बराबर होती है. उत्पाद शुल्क से अलग वैट एड-वेलोरम (अतिरिक्त कर) होता है, ऐसे में जब पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ते हैं तो राज्यों की कमाई भी बढ़ती है. लिहाज़ा,कोई भी राज्य सरकार आखिर क्यों चाहेगी कि उसकी कमाई पर इस तरह से खुले आम डाका डाल दिया जाये.
अब फ़र्ज़ कीजिए कि एक्साइज़ ड्यूटी और वैट, दोनों हटाकर पेट्रोल को भी जीएसटी के दायरे में लाने का फ़ैसला कर लिया जाए तो क्या होगा? लोगों को तो काफी हद तक राहत मिलेगी लेकिन केंद्र और राज्य सरकार को इससे नुकसान होगा,इसलिये वे न तो ऐसा करना चाहती हैं और शायद चाहेंगी भी नहीं.
उदाहरण के तौर पर अगर दिल्ली की बात करें,तो जो पेट्रोल आज सौ रुपये प्रति लीटर के आसपास है, अगर उस पर से एक्साइज़ ड्यूटी और वैट हटा दिया जाए और उसे जीएसटी में ला दिया जाए,तो उसकी कीमत तब भी तकरीबन 77 रुपये लीटर से ज्यादा नहीं होंगी. यानी जनता को सीधे 23 रुपये प्रति लीटर का फायदा होगा. डीजल की कीमतों पर भी यही फार्मूला लागू होता है और जब उसकी कीमत कम होगी, तो जाहिर है कि ट्रांसपोर्ट पर खर्च कम होगा,तो सभी जरुरी वस्तुओं की कीमतें भी खुद ही कंट्रोल में आ जाएंगी. अगर किसी से ये पूछा जाये कि अपनी बम्पर कमाई का जरिया क्या आप छोड़ सकते हो,तो उसका जवाब 'ना' में ही मिलेगा. यही हक़ीक़त हमारी सरकारों पर भी लागू होती है, चाहे वह केंद्र हो या राज्य.
जानकर बताते हैं कि अगर इन दोनों को जीएसटी में लाया गया,तो फिर सरकार को पेट्रोल-डीजल की कीमतें तय करने का अधिकार दोबारा अपने हाथ में लेना होगा,जो फिलहाल आयल कंपनियों के पास है. गौरतलब है कि जून 2010 तक सरकार पेट्रोल की कीमत निर्धारित करती थी और हर 15 दिन में इसे बदला जाता था. लेकिन 26 जून 2010 के बाद सरकार ने पेट्रोल की कीमतों का निर्धारण ऑइल कंपनियों के ऊपर छोड़ दिया. इसी तरह अक्टूबर 2014 तक डीजल की कीमत भी सरकार निर्धारित करती थी, लेकिन 19 अक्टूबर 2014 से सरकार ने ये काम भी ऑइल कंपनियों को सौंप दिया. वे कंपनियां क्या इतनी नासमझ हैं ,जो खुद नुकसान झेलकर हमें खुश रखने के बारे में जरा-सा भी सोचेंगी?
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