जब चली गई थी नरेंद्र चंचल की आवाज़
सुप्रसिद्ध भजन गायक नरेंद्र चंचल यूं अब 80 साल के हो गए थे. लेकिन उनको देखकर, उनसे बात करके कभी उनकी इस उम्र का अहसास तक नहीं होता था. उनकी आवाज़ में भी वो कशिश अभी तक कायम थी जिसने करीब 50 साल पहले ही सभी को दीवाना सा कर दिया था. साथ ही उनकी चुस्ती फुर्ती, मुस्कुराने और हंसी मज़ाक का अंदाज भी इतना जीवंत था कि उनको देखकर कभी यह ख्याल तक नहीं आया कि वह जल्द ही दुनिया से चले जाएंगे. इसलिए जब 22 जनवरी दोपहर को पता लगा कि चंचल अब इस दुनिया में नहीं रहे तो दुख के साथ हैरानी भी हुई.
नरेंद्र चंचल का नाम सन 1973 में पहली बार सुर्खियों में तब आया था जब उन्होंने राज कपूर की फिल्म ‘बॉबी’ में ‘बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो’ गीत गाया था. अपने पहले ही गीत से उनका यह सूफियाना अंदाज़ दर्शकों को इतना पसंद आया कि चंचल एक सप्ताह में ही बॉलीवुड के स्टार सिंगर बन गए. बाद में फिल्मों में गाये उनके भक्ति गीतों ने तो उन्हें शिखर पर ही बैठा दिया. उसके बाद उनके द्वारा गायी माता की भेंटें, इतनी लोकप्रिय होती चली गईं कि देश में मां दुर्गा के रात्रि जागरण का प्रचलन बढ़ते बढ़ते एक नए युग में प्रवेश कर गया.
नरेंद्र चंचल को मैं पिछले करीब 40 बरसों से जानता था. तब उन्हें लोकप्रियता मिले सात-आठ साल ही हुए थे. लेकिन उनके नाम की धूम तब भी बहुत थी. तब से उनसे कितनी ही मुलाकातें हुईं, उन्हें इंटरव्यू किया, उन पर बहुत कुछ लिखा. चंचल की सबसे बड़ी बात यह थी कि वह बहुत ही मीठा बोलते थे. एक खास मुस्कान और हंसी उनके चेहरे पर अक्सर बनी रहती थी. इतनी प्रसिद्धी पाने के बाद भी अहंकार उनमें नहीं झलकता था. वह जब भी मिलते बहुत ही सादगी और सम्मान से मिलते थे. यहां तक उन पर जब भी कुछ लिखता तो वह बहुत खुश होते और उसके लिए अपना धन्यवाद भी प्रकट करते थे.
देखा जाये तो चंचल देश के एक ऐसे गायक रहे जिन्होंने मां दुर्गा की भेंटों को सबसे ज्यादा गाया भी और सबसे ज्यादा लोकप्रियता भी पाई. अपने भजनों, भेंटों के माध्यम से चंचल ने जागरण की लोकप्रियता को ऐसी क्रान्ति में बदल दिया, जिसके लहर देश भर में हे नहीं दुनिया के कई देशों में पहुंच गईं. यही कारण रहा कि उनका नाम आते ही माता रानी और जागरण की याद हो आती है. एक तरह से उनका नाम माता रानी के जागरण के साथ इस कद्र जुड़ चुका है, या यूं कहें कि उनका नाम जागरण का पर्याय बन चुका था कि माता के भजनों की बात हो या फिर जागरण आयोजन की तो सबसे पहले नरेंद्र चंचल का नाम ही सामने आता था. वह इस क्षेत्र के सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य और सर्वाधिक लोकप्रिय गायक रहे.
हालांकि माता रानी का जागरण पूरी तरह श्रद्धा और भक्ति का आयोजन है. इसे कौन कर रहा है या कौन करा रहा है यह मायने नहीं रखता. सिर्फ करने वाले व्यक्ति की भक्ति और श्रद्धा ही अहम होती है. लेकिन चंचल को जागरण में बुलाना एक ऐसा ‘स्टेटस सिंबल’ सा बन गया था कि पैसे वाले बड़े लोग चंचल को बुलाने के लिए कोई भी राशि देने को तैयार रहते थे. यहां तक चंचल जो भी तारीख दे दें जागरण उस दिन होता था.
यदि चंचल का कभी मन आ जाये,मूड बन जाये तो वह चाहे किसी के यहां मुफ्त में या कुछ कम रुपयों में गा दें वरना सही मायने में उन्हें अमीर लोग ही अपने जागरण में बुला सकते थे. देश के सबसे महंगे जागरण गायक होने के कारण निम्न और निम्न माध्यम वर्गीय परिवार के लोग उनसे अपने यहां जागरण कराने में असमर्थ रहते थे. लेकिन दिलचस्प यह है कि इस सबके बावजूद वह झोपड़ी से महलों तक के प्रिय गायक थे. जो उन्हें अपने यहां जागरण में बुलाने में सक्षम नहीं था वह भी उनके भजन गाता, उनसे उतना ही प्यार करता, उतना ही उन्हें मान देता, जितना समर्थ व्यक्ति करते रहे.
चंचल अपनी अनुपम गायकी और दिल को छू लेने वाले भजनों से लोगों के दिलों में घर कर चुके थे. लोग खुश होकर उन्हें दिल खोलकर कीमत देते थे. इधर चंचल भी अपनी कमाई दौलत से जहां अपनी पूरी मंडली को भी अच्छे पैसे देते थे. वहां अपनी कमाई जन कल्याण और धर्म के लिए किए गए कार्यों पर भी खूब खर्च करते थे. कुछ बरस पहले तक दिल्ली के जनपथ होटल में वह अक्सर कॉफी पीने जाते थे. लोगों से मिलना जुलना भी कई बरस तक वह वहीं करते रहे. मैं भी उनसे कुछ बार वहीं मिला तो देखा उनके होटल पहुंचते ही दरबान से लेकर सारे स्टाफ के चेहरे खिल जाते थे. वह एक सेलेब्रिटी थे,अच्छे गायक थे सिर्फ इसलिए ही नहीं. इसलिए भी कि चंचल वहां आते जाते कितने ही लोगों को अच्छी ख़ासी ‘टिप’ खुशी खुशी बांटते थे. उनका वहां उपस्थित कर्मचारियों को खैरात में नोट बांटने का यह अंदाज देख मैंने उनसे मज़ाक में कहा- एक कॉफी की जितनी कीमत है उससे कई गुना तो आप टिप दे देते हैं. मेरी इस बात पर उन्होंने अपनी चिरपरिचित हंसी बिखेरते हुआ कहा – "सब माता रानी की कृपा है, ये बच्चे खुश हो जाते हैं."
बचपन में ही बन गए थे मां के भक्त हालांकि लोगों की मदद के लिए धन बांटने वाले नरेंद्र मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुए थे. नमक मंडी, अमृतसर में चेतराम खरबन्दा के यहाँ 16 अक्तूबर 1940 को जन्मे नरेंद्र अपने सात भाइयों और एक बहन में से एक थे. परिवार धर्मपरायण होने के कारण माँ काली और दुर्गा की पूजा उपासना में तल्लीन रहता था. नरेंद्र की माता जी कैलाश वती तो घर में नियमित आरती, कीर्तन के साथ मंदिर भी जाती थीं. नरेंद्र बताते थे- माता रानी की भक्ति पर मेरा पहला ध्यान मेरी माता जी ने ही दिलाया. वह जब भी मंदिर जाती थीं, मुझे अपने साथ ले जाती थीं. हालांकि सर्दियों के दिनों में अमृतसर की कड़कती ठंड में सुबह सवेरे नहा धोकर मंदिर आना शुरू शुरू में मुश्किल काम लगता था लेकिन बाद में माँ के भक्ति में आनंद आने लगा. संगीत की भी पहली शिक्षा नरेंद्र को अपनी माँ से मिली. बाद में एक संगीत ज्ञाता प्रेम त्रिखा से नरेंद्र ने संगीत की शिक्षा ली.
मास्टर जी ने बना दिया चंचल नरेंद्र का मूल नाम नरेंद्र खरबन्दा था. स्कूल में भी यही नाम था. लेकिन नरेंद्र ने एक बार अपनी बातचीत में बताया था कि मैं स्कूल में काफी शरारतें करता था. अपने दोस्तों को भी तंग करने में आगे रहता था. लेकिन मेरे एक मास्टर जी जिन्हें हम शास्त्री जी कहते थे वह मुझे काफी पसंद करते थे. मेरे भजन गाना उन्हें अच्छा लगता था. इसलिए जब कोई उनसे मेरी किसी शरारत की शिकायत करता था तो वह कहते थे –अच्छा बच्चा है मगर थोड़ा चंचल है. इसके बाद मुझे धीरे धीरे सभी ने चंचल कहना शुरू कर दिया. मुझे पता ही नहीं लगा मैं नरेंद्र खरबन्दा से नरेंद्र चंचल हो गया.
चंचल बताते थे कि शुरू शुरू में उन्होंने अमृतसर की स्थानीय भजन मंडली और संगीत समूह के साथ शौकिया गाना शुरू किया. लेकिन बाद में चंडीगढ़ की एक संगीत प्रतियोगिता में बुल्ले शाह की काफी गाने पर उन्हें पहली बार पुरस्कार मिला तो उनका उत्साह गीत-संगीत की ओर और भी बढ़ गया. हालांकि चंचल ने फिल्मों में गायक बनने का सपना कभी नहीं देखा था. लेकिन एक बार सन 1972 में जब वह एक संगीत समूह के साथ मुंबई में पंजाबियों की एक संस्था के बैसाखी समारोह में गीत गाने पहुंचे तो उनकी ज़िंदगी बदल गयी.
राज कपूर ने पहचाना इस नगीने को नरेंद्र चंचल जिस बैसाखी समारोह में गा रहे थे. वहां राज कपूर भी मुख्य अतिथि के रूप में आए हुए थे. जब उन्होंने चंचल को बुल्लेशाह की काफियां गाते सुना तो वह इस युवा की आवाज़ से अभिभूत हो गए. क्योंकि राज कपूर संगीत के बड़े रसिया होने के साथ संगीत की गहरी समझ भी रखते थे. इसलिए उन्होंने चंचल को अगले दिन अपने आर के स्टुडियो बुला लिया. कुछ देर चंचल से बात करने के बाद राज कपूर ने उन्हें बोल दिया कि तुम मेरी फिल्म ‘बॉबी’ में गीत गाओगे. यह सुन चंचल हैरान रह गए. जो सपना उन्होंने देखा भी नहीं था. उस स्वप्न लोक में वह यकायक पहुंच गए.
उसके बाद जो हुआ वह किसी सी छिपा नहीं है. अपनी ‘मेरा नाम जोकर’ के सुपर फ्लॉप होने के बाद आर्थिक रूप से तंग हाल हुए राज कपूर ने 1973 में ‘बॉबी’ को रिलीज किया तो फिल्म ने इतिहास रच दिया. फिल्म में जहां ऋषि कपूर और डिम्पल कपाड़िया लॉंच हुए थे. वहाँ नरेंद्र चंचल एक गायक के रूप में लॉंच हुए. कश्मीर की वादियों पर चंचल के गाये गीत- ‘बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो,बुल्लेशाह यह कहता, प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, जिस दिल में दिलबर रहता’, को चंचल पर ही फिल्मांकित किया गया तो यह गीत सभी की जुबान पर चढ़ गया. ‘बॉबी’ में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत में और भी गीत सुपर हिट हुए. गायक शैलेंद्र भी इसी फिल्म से ऋषि कपूर की आवाज़ बनकर लॉंच हुए और लोकप्रिय भी. लेकिन उस साल का सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्मफेयर अवार्ड शैलेंद्र सिंह को नहीं नरेंद्र चंचल को मिला. जबकि शैलेंद्र का नाम भी गीत ‘मैं शायर तो नहीं’ के लिए फिल्मफेयर अवार्ड में नामांकित हुआ था.
‘बॉबी’ के बाद चमक उठी ज़िंदगी फिल्म ‘बॉबी’ की सफलता ने सभी की ज़िंदगी बदल दी थी. साथ ही चंचल भी एक गायक के रूप में एक ऐसे स्टार बन गए थे कि उनके पास देश विदेश में संगीत कार्यक्रमों का ढेर लग गया. फिल्मों में भी गीत गाने के नए नए प्रस्ताव उन्हें मिलने लगे. अपनी इसी सफलता के दिनों में चंचल ने 1976 में नम्रता से विवाह रचा लिया. चंचल की ज़िंदगी में फिल्म ‘बॉबी’ एक नयी रोशनी, एक नयी मंज़िल लेकर आई थी तो जब चंचल के यहाँ पहले बेटे का जन्म हुआ तो उन्होंने उसका नाम भी बॉबी रख दिया. बाद में उनके यहाँ एक और पुत्र और एक पुत्री भी हुए.
जब चली गयी चंचल की आवाज़ नरेंद्र चंचल ने अपनी ज़िंदगी की इस बात को एक बार मुझे साफ शब्दों में बताया था कि ‘बॉबी’ के बाद उन्हें जिस तरह जबर्दस्त सफलता-लोकप्रियता मिली तो वह उसे पचा नहीं पाये. चंचल ने बताया था-‘’मुझे फिल्म गीत गाने में इतना पैसा और नाम मिल रहा था कि मुझे लगा कि अब मैं माता के भजन न गाकर फिल्म गीतों पर ही अपना फोकस रखूँगा. सफलता का नशा मेरे सिर चढ़ कर बोल रहा था. ‘बॉबी’ के बाद फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान’ का गीत, बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गयी और फिल्म ‘बेनाम’ का शीर्षक गीत, मैं बेनाम हो गया, भी सुपर हिट हो गए थे. लेकिन मैं उस दिन को कभी नहीं भूलता जब मैं सुबह एक फिल्म संगीत की नाइट के लिए आगरा निकलने वाला था. तब रात को काली माता के उसी मंदिर में माथा टेकने गया, जहां पहले माता की भेंटें गाता भी था और माता रानी से अपने लिए मांगता भी था. वहाँ भक्तों की टोली भजन कीर्तन कर रही थे. मुझे किसी ने कहा आए हो तो एक भेंट सुनाते जाओ. लेकिन मैंने अपनी तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर माता की भेंट गाने से इंकार कर दिया. लेकिन रात को ही कुछ ऐसा चमत्कार हुआ कि मेरी आवाज़ ही चली गयी. मैं समझ गया कि माता रानी यह मुझे मेरी गलती, मेरे अहंकार की सज़ा दे रही है. मैंने माँ से माफी मांगी, मेरा इलाज़ चला, तब कई दिन बाद मेरी आवाज़ वापस आई तो मैंने फैसला किया कि अब मैं माता रानी की भेंटे ही गाऊँगा, उनके भजन ही गाऊँगा. बाकी तरह के फिल्म गीतों से मैंने तौबा कर ली.
चलो बुलावा आया है ने दी नयी पहचान चंचल को फिल्म गायक से एक भजन गायक और भेंट गायक के रूप में जिन दो गीतों से सर्वाधिक लोकप्रियता मिली वे थे फिल्म ‘आशा’ का तूने मुझे बुलाया शेरावालिये और फिल्म ‘अवतार’ का ‘चलो बुलावा आया है’. इन दोनों फिल्मों के संगीतकार भी ‘बॉबी’ वाले लक्ष्मी कांत प्यारेलाल थे. इन गीतों में यूं चंचल के साथ मोहम्मद रफी, आशा भोसले और महेंद्र कपूर भी थे. लेकिन सन 1980 और 1983 में आई इन दो फिल्मों के, इन दो गीतों से चंचल को ऐसी नयी पहचान मिली कि ये गीत उनके नाम ही हो गए. जबकि पर्दे पर इन गीतों को जीतेंद्र और राजेश खन्ना जैसे बड़े सितारों पर भी फिल्मांकित किया गया था. लेकिन ये गीत सिर्फ चंचल के होकर रह गए. इन धार्मिक गीतों का लोगों पर ऐसा जादू चला कि तब से अब तक माँ वैष्णो देवी के दरबार में जाने वाले माँ के भक्त अपने घर से निकलते हुए ये ही दो गीत ज्यादा गाते हैं. यहाँ तक जम्मू के कटरा से माँ वैष्णो देवी के मंदिर की चढ़ाई भरे रास्ते में भी कदम कदम पर आज तक ये ही गीत गाये जा रहे होते हैं.
खुद भी हर साल जाते थे माता के दरबार में देखा जाये तो नरेंद्र चंचल अपने इन गीतों से अमर हो गए हैं. हालांकि उन्होंने खुद भी माता के बहुत से गीत लिखे और भी कई गीतकारों के गीतों को अपने सुर दिये. जिनमें आज कई गीत प्रचलित हैं. लेकिन ये दो गीत तो चंचल के ‘सिग्नेचर सॉन्गस’ बन गए हैं. उधर यह भी कि स्वयं चंचल भी बरसों से माता के दरबार में अपनी हाजरी देने जाते थे. हर साल 29 दिसंबर को तो वह वैष्णो देवी मंदिर पहुँचते ही थे. फिर 31 दिसंबर को वहाँ उनका भजनों का विशाल कार्यक्रम होता था. नया वर्ष वहीं शुरू करके वह दिल्ली लौटते थे. ऐसे ही दिल्ली स्थित झंडेवालान माता मंदिर में भी वह साल में दो बार नवरात्री के दिनों में अपना भजनों का कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे. लेकिन इस बार कोरोना के चलते वह न झंडेवालान मंदिर जा सके और न ही वैष्णो देवी मंदिर जम्मू.
पिछले तीन महीने से थे बीमार यूं नरेंद्र चंचल ने कोरोना काल में झंडेवालान मंदिर में एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था. कोरोना को लेकर उन्होंने एक गीत भी तैयार किया था. लेकिन उनका जागरण का अंतिम कार्यक्रम पिछले वर्ष 20 अक्तूबर को दिल्ली में हुआ था. उसके बाद वह अस्वस्थ हो गए. धीरे धीरे उन्हें कमजोरी ने इतना घेर लिया कि उनका बैठने और बात करने की शक्ति भी जाती रही. पहले वह दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में लगभग सवा महीना दाखिल रहे लेकिन उन्हें आराम मिलने की जगह उनकी हालत और खराब हो गयी. तब उन्हें अपोलो अस्पताल में दाखिल किया गया, वहाँ भी वह करीब दो महीने रहे. लेकिन सुरों के इस सरताज के सुर 22 जनवरी दोपहर को हमेशा के लिए थम गए.
चंचल कितने लोकप्रिय थे इस बात की मिसाल इससे भी मिलती है कि उनके निधन का समाचार सुनते ही उन्हें श्रद्धांजली देने वालों का तांता लग गया. सोशल मीडिया पर तो वह एक बड़ा ट्रेंड बन गए, जिसे देखो क्या खास क्या आम सभी उन्हें नमन कर रहे हैं. राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और स्वास्थ मंत्री हर्षवर्धन सहित फिल्म, खेल और संगीत की दुनिया के अनेक लोग उन्हें लगातार याद कर रहे हैं. स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने भी उन्हें श्रद्धा से नमन किया है. हालांकि इस बात का दुख है कि इतने बड़े और इतने लोकप्रिय गायक को इतने बरसों की संगीत साधना के बाद भी आज तक पदमश्री सम्मान भी नहीं मिला. जबकि सिनेमा में आए कई नए से नए कलाकार भी पदमश्री पाते जा रहे हैं.
अब उन्हें मरणोपरांत कोई पदम सम्मान मिलता है या नहीं यह तो बाद में पता लगेगा लेकिन इतना तय है कि माता रानी के गुणगान करने वाले चंचल अपने गीतों-भजनों से हमेशा लोगों के दिलों में बसे रहेंगे.
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