लोकसभा चुनाव से ठीक पहले केंद्र सरकार ने एक प्रस्ताव दिया है. इसके जरिए सरकार की 9 वर्षों की उपलब्धि का प्रचार-प्रसार करने के लिए रथ निकाला जाएगा. इसके प्रभारी आइएएस अधिकारी बनाए जाएंगे, ऐसी योजना है. विपक्ष ने सरकार के उस आदेश पर भड़कते हुए नौकरशाही के राजनीतिकरण का आरोप लगाया है, जिसमें केन्द्र के 9 साल के कामकाज की उपलब्धियों को बताने के लिए विकसित भारत यात्रा के जरिए करीब 2.70 लाख पंचायतों तक प्रस्तावित अभियान से जुड़ने के लिए कहा गया है. सरकारी आदेश पत्र के सार्वजनिक होने के बाद सियासत गरमा गई है. विपक्ष इसे नौकरशाही के राजनीतिकरण का प्रयास बता रही है तो भाजपा इसे एक रूटीन काम बता कर जबरन मुद्दा न बनाने को कह रही है.
स्थापित मान्यताओं को तोड़ती सरकार
मौजूदा केंद्र सरकार जो है, उसने 2014 में शासन में आने के बाद से ही तमाम स्थापित मान्यताओं को पूरी तरह चकनाचूर कर दिया है और उसी में यह एक और कदम है. मान्यताओं को जो दरकिनार किया गया है, वह निरंतर राजनीतिक लाभ और उद्देश्यों के लिए किया गया है और यह उसी क्रम में एक और कदम है. भाजपा की नरेंद्र मोदीनीत सरकार ने आइएएस अफसरों को, आइपीएस अधिकारियों को और अन्य अफसरों को सीधे-सीधे दो खेमों में बांट दिया है- अपना और पराया, और जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने जो कहा था कि जो हमारे साथ नहीं है, वो हमारा विरोधी है, उस तर्ज पर ही काम हो रहा है. मेरे ख्याल से ऐसे न जाने कितने उदाहरण होंगे. ईडी वाले संजय मिश्र का उदाहरण लीजिए. साल दर साल उनका कार्यकाल बढ़ता रहा, आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा. जो राजीव बावा हैं, उनका हरेक साल बढ़ रहा है, एक्सटेंशन हो रहा है. जो अपना है, उसके लिए सारे नियमों की तिलांजलि और जो पराए हैं उनके लिए सारे अंकुश, ये एक पहलू है. दूसरा पहलू ये है कि जो अखिल भारतीय सेवाओं की 1968 की नियमावली है, इसमें स्पष्ट रूप से लिखा है कि जो अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी होंगे, वो राजनीतिक तौर पर न्यूट्रल रहेंगे, निष्पक्ष रहेंगे. यह नियमावली का नियम 3 है. इसमें स्पष्ट रूप से अंकित है कि राजनीतिक रुझान वे नहीं रखेंगे, लेकिन मौजूदा सरकार में ये है कि या तो आप हमारे लिए, हमारी पार्टी के लिए काम कीजिए या फिर दंडित होइए. अब अगर कोई आइएएस ऑफिसर जो रथी और महारथी बनाए गए हैं, इनमें यदि कोई मनाही करेगा तो हो सकता है कि उसे जबरिया रिटायर कर दिया जाए. जोड़तोड़ कर इन सेवाओं का यांत्रीकरण कर दिया गया है, अपने लिए इस्तेमाल करने का एक टूल बना लिया गया है.
भाजपा की दलील है भोथरी
इस बात से तो सहमत हुआ जा सकता है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने यह स्थिति स्पष्ट कर दी है कि उनके गुनाहों पर किसी को बोलने का हक नहीं है. अगर उनके गुनाह हैं तो कोई बोले नहीं उसके लिए उन्होंने तीन-चार शिकारी कुत्ते भी छोड़ रखे हैं. जबरा मारे, रोवे न देवै की स्थिति है. हालांकि, अगर सच्चाई से आकलन करें तो न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए. वैसे ही, अभी जो रथ निकालने की योजना है, वह चुनावी वर्ष है. जिस तरह मौजूदा सरकार ने गांव-गांव तक जनौषधि केंद्र में नरेंद्र मोदी की तस्वीर लगा रखी है. ये जो रथ चलेंगे, उस पर भी चारों ओर नरेंद्र मोदीजी की ही तस्वीर होगी. अगर मोदी यह घोषणा कर दें कि वह अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे, प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे और यह रथ चलें तब तो बात ठीक है. अब आप यह चाहते हैं कि आप प्रधानमंत्री भी बने रहें, उससे जुड़ी शक्ति का भी आनंद लें और आइएएस अफसरों को भी रथी-महारथी बनाएं तो वह बात अलग होगी, लेकिन वह अगर आज यह घोषणा कर दें कि प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे, पार्टी अलग है, सरकार अलग है, तब तो बात बने. वह कह दें कि वह केवल प्रधानमंत्री हैं देश के, वह चुनाव प्रचार नहीं करेंगे तो रथों पर लगाएं फोटो, कोई आपत्ति नहीं करेगा, लेकिन जब वह डबल रोल में हैं तो विपक्ष आपत्ति करेगा ही. उसकी आपत्ति बिल्कुल जायज है. यह चुनावी मौसम है और इसमें यह उनका चुनावी दांव है, और कुछ नहीं.
भाजपा के लोग कुछ भी कहेंगे, लेकिन उनको अगर नैतिक मूल्यों से वास्तविकता में तनिक भी लेनदेन है, तो वह केवल प्रधानमंत्री शब्द लिखें और उस पर न नरेंद्र मोदी की तस्वीर रहे न प्रधानमंत्री जी का नाम रहे, तो देखिएगा कि उनकी तनिक भी रुचि नहीं रहेगी. वह बस सरकारी साधनों से एक बार प्रचार कर लेना चाहते हैं. जो बृहत्तर प्रश्न है, वह यह है कि केवल भाजपा ही यह काम नहीं कर रही है. इंदिरा गांधी ने तो कमिटेड जुडिशरी तक की बात कर दी थी. न्यूट्रल होना चाहिए और न्यूट्रल नहीं है, यह नयी बात नहीं है, लेकिन पहले कहीं एक आंखों की शर्म थी, एक लाज होती थी, अब वो नहीं है. हमने कभी नहीं देखा कि एक ही व्यक्ति को साल दर साल एक्सटेंशन दिया जा रहा है, यह स्थिति पहली बार भाजपा ने ही क्रिएट की है. हमारे साथ ब्यूरोक्रेसी चले, यह उनका लालच रहा है. यह हालांकि जवाहरलाल नेहरू के समय से ही रही है, और शायद वहीं से गड़बड़ी शुरू हुई. उन्होंने तो कई को सीधा आइएफएस भी बना दिया. हां, रथयात्रा का जहां तक सवाल है, तो वह चले और नित नूतन योजनाएं लाएं, लेकिन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का नाम सरकारी योजनाओं से हटे, यह जरूरी है. उनकी तस्वीर को हटाना चाहिए, जिसको मौजूदा सरकार ने पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है, ताकि सरकारी बातों का बेजां इस्तेमाल न हो सके.
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