राहुल गांधी की पेशी: इतनी ताकत की नुमाइश के बावजूद आम जनता क्यों नहीं है कांग्रेस के साथ?
जर्मनी के तानाशाह शासक रहे अडोल्फ हिटलर की सबसे मजबूत रीढ़ हुआ करते थे ,उनके प्रचार मंत्री डॉ पॉल जोसेफ गोएबल्स जो 12 साल तक नाजी जर्मनी सरकार का मिनिस्टर ऑफ प्रोपेगेंडा थे.गोएबल्स ने कहा था कि "एक झूठ को अगर कई बार दोहराया जाए तो वह सच बन जाता है.और,लोग उस पर आंख मूंदकर भरोसा करने लगते हैं." गोएबल्स को उसकी जोशीली भाषणकला शैली और यहूदियों के सख्त विरोध के चलते भी इसलिये जाना जाता था कि वे नफ़रत फैलाने में माहिर थे.
हम नहीं जानते कि नेशनल हेराल्ड केस में कितना सच है और कितना झूठ,जिसका फैसला जनता की अदालत को नहीं बल्कि देश की अदालत को करना है. लेकिन अगर राजनीतिक तौर पर देखें,तो सत्तारूढ़ बीजेपी देश में ये नरेटिव सेट करने में बाजी मारते हुए दिख रही है कि कांग्रेस को चलाने वाली पार्टी के सबसे ताकतवर परिवार ने भ्रष्टाचार किया है.ये बीजेपी का आरोप है और इसे देश की जनता किस तरह से लेती है,ये तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा.
लेकिन सोमवार को राहुल गांधी की ईडी के सामने पेशी के वक़्त कांग्रेस ने दिल्ली समेत पूरे देश में जिस तरह से अपनी ताकत की नुमाइश दिखाई है,वही ताकत अगर पिछले आठ साल में जनता से जुड़े बुनियादी मुद्दों को उठाने पर लगाई होती, तो शायद कांग्रेस सियासी नक्शे से इतनी जल्द हाशिये पर भी न आई होती. किसी भी देश के लोकतंत्र में जनता मुख्य विपक्षी दल का साथ देने के लिए तभी आगे आती है,जब उसे लगता है कि विपक्ष पूरी ईमानदारी के साथ उसकी आवाज़ को ही अपनी जुबान देते हुए सड़कों पर आकर सरकार के खिलाफ संघर्ष कर रहा है.
साल 2014 में सत्ता से हटने के बाद नींद की खुमारी का शिकार हो चुकी कांग्रेस सोमवार को दिल्ली समेत राज्यों की राजधानियों में जिस स्फूर्ति के साथ जागी है,वो काबिले-तारीफ़ है.लेकिन साथ ही सवाल ये भी उठता है कि देश के आम लोगों को कांग्रेस ये समझाने में कामयाब हो पाई क्या कि वो उनकी ही लड़ाई लड़ रही है? इसलिए कि इस शक्ति-प्रदर्शन का मोटे तौर पर देश में संदेश यही गया है कि एक परिवार को बचाने के लिए ही पार्टी कार्यकर्ताओं को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इसलिये सवाल पूछे जा रहे हैं कि बढ़ती हुई महंगाई, बेरोजगारी व गरीबी को लेकर कांग्रेस ने पिछले कुछ सालों में इतना ताकतवर देशव्यापी प्रदर्शन करने की जहमत आखिर क्यों नहीं उठाई? दिन-रात मोदी सरकार को कोसने वाले कांग्रेसी नेता आखिर ये क्यों नहीं समझ पाये कि उन्हें जनता से जुड़े बुनियादी मुद्दे उठाने और सरकार के खिलाफ जबरदस्त लड़ाई लड़ने के इतने सारे अवसर मिले लेकिन उन्होंने कभी इसे तवज्जो नहीं दी .शायद इसलिये कि सरकार की जांच एजेंसियों का हमला सीधा उन पर नहीं हो रहा था.
सोमवार को कांग्रेस ने पूरे देश में अपनी जो ताकत दिखाई है,उससे एक बात तो साफ हो गई कि जिस पार्टी को सियासी हॉस्पिटल के वेंटीलेटर पर अंतिम सांसें गिनने वाली पार्टी माना जा रहा था,उसकी वो हालत अभी नहीं हुई है और उसे अपने पैरों पर खड़े होकर हर लड़ाई लड़ने के काबिल समझा जा सकता है.लेकिन सवाल ये है कि लड़ने का ये जज़्बा सिर्फ एक परिवार के सदस्यों के लिए ही क्यों होना चाहिए? मुख्य विपक्षी दल होने के नाते वह पूरे देश की जनता से जुड़े मुद्दों पर सरकार के ख़िलाफ़ इतनी ही ताकत से सड़कों पर उतरने से आख़िर इतनी कतराती क्यों है?
दरअसल, कांग्रेस पिछले आठ साल में उस नब्ज़ को पकड़ ही नहीं पाई है कि विपक्ष को किस तरह की भूमिका निभानी चाहिए जिससे आम जनता का समर्थन उसे खुद ब खुद मिल सके.कांग्रेस के नेताओं को इस कला की खूबियां सीखने के लिये बीजेपी के कुछ दिग्गज़ नेताओं से ट्रेनिंग इसलिये भी लेना चाहिए कि किसी छोटे-से मुद्दे को भी हवा में कैसे उछाला जाता है,जिसे लपकने के लिए जनता आतुर हो जाती है.साल 2013 में मनमोहन सिंह सरकार ने पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में महज़ दो रुपये की बढ़ोतरी की थी और वो भी अंतराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की लगातार बढ़ती हुई कीमतों की वजह से. लेकिन तब बीजेपी ने विरोध -प्रदर्शनों का ऐसा तूफान ला दिया था,मानो देश में भूकंप आ गया हो.लेकिन आठ साल तो छोड़िए, पिछले एक साल में भी कांग्रेस देश की जनता के बीच वैसा भोकाल बनाने में कामयाब नहीं हुई है.
राहुल गांधी की तो आज मंगलवार को भी दोबारा ईडी के सामने पेशी है और जाहिर है कि पार्टी कार्यकर्ता आज भी विरोध-प्रदर्शन करेंगे.लेकिन ऐसी कवायद का भला क्या फायदा जिसमें जनता न तो आपसे जुड़ पाये और न ही अपनी सहानुभूति दे पाए!
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)