बीती रात बीबीसी अर्थ पर एक वैज्ञानिक कार्यक्रम में दिखाया गया था कि कभी-कभी हिरनों को चिड़ियों के चूजे खाते हुए भी देखा गया है और गौरैया जैसी छोटी चिड़ियां चमगादड़ों का शिकार कर उसे सफाचट कर जाती हैं. हिरन तो पूर्णत: शाक‍ाहारी होते हैं और जो चिड़ियां चमगादड़ खाती है, वह अमूमन अनाज के दानों, फलों और छोटे-मोटे कीड़ों को ही खाती है. विज्ञानियों का कहना था कि इन जानवरों में खाने की आदत का यह बदलाव उनकी जरूरतों को देखते हुए प्रकृति प्रदत्‍त है. इससे ये अपने शरीर में आवश्‍यक तत्‍वों की कमी को पूरा करते हैं. इसी कारण जैसे कई पौधे मांसाहारी हो जाते हैं, जैसे- ड्रॉसैरा, पिचरप्‍लांट आदि वैसे ही कई शाकाहारी जानवर मांसाहारी हो जाते हैं. 


कुछ जानवर खनिज लवणों की पूर्ति के लिए नमकीन और खनिज युक्‍त मिट्टी खाते हैं. इन्‍हें ऐसा करने के लिए कौन बताता है, कौन सिखाता है. जीव विज्ञानी इसका उत्‍तर दे सकते हैं कि अपने माता-पिता को देखकर ये जानवर ऐसा करते हैं और यह गुण उनके जीन्‍स की याददाश्‍त में सुरक्षित रहता है. यदि उनके माता-पिता उन्‍हें  न सिखाएं तो भी वे जरूरत पर ऐसा ही करेंगे . 


एक और कार्यक्रम में मैने देखा कि जंगल में एक हाथी के आगे कोबरा फन काढ़े खड़ा हो गया. क्‍योंकि जिधर हाथी जा रहा था, वहां घास में कोबरा का घोंसला था और उसमें उसने अंडे दिए थे जिनसे बच्‍चे निकलने वाले थे. कोबरा नहीं चाहता था कि हाथी आगे जाए और उसके अंडे नष्‍ट हो जांए. वह  हाथी के आगे फन काढ़कर खड़ा हो गया और विष की धार फुंफकार कर छोड़ी, जो हाथी के पैर पर पड़ी. 


अमूमन कोबरा यह विष जीव की आंखों को लक्ष्‍य बनाकर छोड़ता है और आंख में इसकी धार पड़ने पर उसकी रोशनी प्रभावित हो जाती है और कभी-कभी तो जीव अंधा हो सकता है. हाथी की आंख तक तो यह विष नहीं पहुंच पाया, लेकिन वह जान गया कि कोबरा उसे आगे नहीं जाने देना चाहता और जाने पर उसके लिए खतरा हो सकता है और वह पीछे मुड़ गया. हाथी को यह किसने सिखाया था कि कोबरा उसके लिए हानिकर हो सकता है, जबकि कहां हाथी और कहां कोबरा. 
सबने यह देखा है कि शाकाहारी जानवर चरते समय कुछ खास किस्‍म की घासें ही खाते हैं और कुछ को छूते तक नहीं. यह कैसे होता है कि वे पहचान लेते हैं कि कौन घास खाने लायक है और कौन नहीं. क्‍या किसी ने किसी जानवर को मदार और धतूरा खाते देखा है, उत्‍तर होगा नहीं. सवाल उठता है वे इसे क्‍यों नहीं खाते?  किसने मना किया इन्‍हें खाने से? 


आप कह सकते हैं कि अपनी मां के साथ चरते समय वह उसकी देखा-देखी वही घास खाते हैं जो उनके लिए फायदेमंद होती है. जो नुकसान पहुंचा सकती हैं, उन्‍हें वह छूती तक नहीं. लेकिन उनकी मां को किसने बताया कि क्‍या खाया जाय क्‍या नहीं. वास्‍तव में वह भी अपने अनुभवों से ही सीखती है कि क्‍या खाने लायक है क्‍या नहीं. उन पहाड़ों की बकरियां जो ज्‍वालामुखी के लावों से बने होते हैं, चरते समय जिन घासों को चरती हैं, उनमें लावों के पथरीले अंश अधिक होते हैं जिससे ऐसी बकरियों के जबड़ों  के जोड़ पर कैलशियम या इसी तरह के तत्‍व जमा होने से वहां पथरीली गांठ बन जाती है. ये ही ब‍करियां जब दूसरी जगह चरती हैं तो यह गांठ नहीं बनती. 


हैनिमैन ने यही देखकर जबड़ों के जोड़ या गले आदि की पथरीली गांठों को ज्‍वालामुखियों के लावा से बनी दवा से इलाज किया, जिससे वे ठीक हो जाते हैं. इसे हेक्‍ला लावा कहते हैं, जो दांत की बीमारी की अच्‍छी होम्योपैथिक दवा भी है. 


इलाहाबाद के प्रख्‍यात हड्डी रोग विशेषज्ञ डा. आरसी गुप्‍ता भी इस तरह के प्रयोग करते थे. वह कहते थे कि जिन वनस्‍पतियों को जानवर भी नहीं खाते, उनके पास मच्‍छर भी नहीं आते. अपने तरह-तरह के प्रयोग के दौरान वह ऐसी घासों को घर में जगह- जगह रखने का प्रयोग करते थे. एक बार उन्‍होंने मुझे भी ये घासें दीं लेकिन उनकी गंध मच्‍छर को भले ही नहीं भगाती हो, मनुष्‍य को भगा देती थी और मुझे घर में विरोध को देखते हुए उसे फेंकना पड़ा.


लेकिन यह प्रयोग हंस कर टाला नहीं जा सकता. निश्चित ही ऐसी घासों से कोई खास गंध निकलती होगी जो अप्रिय होगी और जानवर उसे नहीं खाते होंगे, या उसके पास नहीं जाते होंगे. इस गंध को मनुष्‍य भले ही नहीं अनुभव नहीं कर पाएं, लेकिन जानवर अनुभव करते हैं. बीबीसी अर्थ पर प्रसारित उसी कार्यक्रम में बताया गया कि अमेजन के जंगलों में एक ऐसा फूल होता है जो ग्‍यारह साल में खिलता है और उससे तरह तरह की गंध निकलती है. कभी मानव मल की तो कभी सड़े शव की. इससे गोबरैले और सड़े शव खाने वाले  जीव उस ओर आकृष्‍ट होते उसका परागण करते हैं. चूंकि उसका परागण गोबरैले ही कर सकते हैं इसलिए उन्‍हें आकृष्‍ट करने के लिए उसने मानव मल और सड़े शव की गंध विकसित की.  


हर पौधे की अपनी खास गंध होती है. वह इसी से पहचाना भी जाता है. आप फूलों की विभिन्‍न प्रजातियों की गंध से यह समझ सकते हैं. जो गंध अप्रिय होती है, उसे जानवर नहीं खाते. दरअसल जानवर घास चरते-चरते इन गंधों के इतने अभ्‍यस्‍त हो जाते हैं कि अप्रिय गंध वाले पौधे के पास जाते ही उससे मुंह मोड़ लेते हैं. ठीक उसी तरह जैसे जो बच्‍चे दूध नहीं पीते, उन्‍हें दूध की गंध अच्‍छी नहीं लगती और वे दूध पीने से कतराते हैं. ऐसे बच्‍चों को यदि जबरन दूध पिलाया जाए तो वह उन्‍हें माफिक नहीं आएगा और पेट खराब कर देगा या अन्‍य समस्‍या पैदा कर देगा. यह प्रकृति की देन है. 


चूंकि दूध उसके शरीर में समस्‍या पैदा कर सकता है, इसलिए प्रकृति ने उसे दूध की गंध नापसंद कर दी. इसी तरह कई खाद्य पदार्थ हैं जो कुछ लोगों को अच्‍छे लगते हैं और कुछ को नहीं. नापसंद की चीज जबरिया खिलाने से कोई न कोई समस्‍या आ सकती है. जिनको ग्‍लूटिन से नुकसान हो सकता है,उन्‍हें गेहूं नहीं पचता. 
प्रकृति अपनी भाषा से संकेत देती है. इसे पहचानने की आवश्‍यकता भर है. प्रकृति ने अपनी इसी भाषा से मनुष्य को संकेत दिया है. इसी से कई औषधियां बनी हैं. प्रकृति ने पहाड़ों पर आर्निका मांटेना के पौधे बनाये जो गिरने आदि से लगी बंद चोट में काम करते हैं. इसे डाक्‍ट्राइन ऑफ सिगनेचर कहा जाता है. अर्थात प्रकृति ने मनुष्‍य के शरीर के विविध अंगों के लिए उपयोगी फल, फूल बीज और पत्‍तों को उसी की आकृति से मिलता-जुलता बनाया. 


सेव का फल हृदय को लाभ पहुंचाता है, क्‍योंकि वह हृदय की तरह होता है. अखरोट मस्तिष्‍क की तरह होता है, इसलिए उसके लिए फायदेमंद होता है. टमाटर के अंदर दिल की तरह चैंबर होते हैं, इसलिए वह दिल के लिए फायदेमंद होती है. पान का पत्‍ता भी दिल के लिए उपयोगी होता है. खजूर का रंग लाल होता है तो वह खून बढ़ाने वाला होता है. इसी तरह की एक लंबी सूची बन सकती है. जानकारों ने इन्‍हें देखकर ही वनस्‍पतियाों को औषध की तरह प्रयोग किया. 


हाथियों के फसल को नुकसान पहुंचाने के लिए एक बार सौर ऊर्जा चालित बाड़ बनाने का सुझाव आया. इसमें बाड़ के चारों ओर बिजली के नंगे तार दौड़ाए जाते थे और उन्‍हें सौर बैटरियों से जोड़ दिया जाता था. इन तारों में करेंट बहता और हाथी यदि इसके संपर्क में आता तो उसे करंट लगता जिससे वह दूर हो जाता. यदि एक बार उसे करंट लग गया तो वह दुबारा पास नहीं आ सकता. और कहने वाले कहते कि उसके जीन में यह करंट दर्ज हो जाता है और उसके बच्‍चे भी ऐसी बाड़ के निकट नहीं आते. यह बात सौर ऊर्जा से जुड़े एक जानकार ने बताई. 


जब मैं इलाहाबाद में ‘अमृत प्रभात’ में था तो इलाहाबाद विश्व विद्यालय के जीव विज्ञान विभाग के शोध छात्रों ने एक प्रयोग किया. उन्‍होंने लैब में मुर्गी के अंडों को सेंककर चूजे निकलने पर देखा कि इन चूजों को यदि मेज पर रखकर उनके सामने पेन से कुटकुटाया जाता था तो वे सब उस ओर भागकर आ जाते थे. उन्‍हें लगता था कि वहां उनके चुगने की कोई चीज है. यह कुटकुटाने की आवाज उनके जीन में दर्ज थी जो पीढ़ी दर पीढ़ी उनमें जा रही थी. इसे इंप्रिंटिंग कहते हैं. 


यह प्रयोग उस समय विभाग में रिसर्च कर रहे मेरे मित्र डा. अरविंद मिश्र ने मुझे दिखाया था. वह भी ‘अमृत प्रभात’ में विज्ञान विषयक लेख लिखते थे और इस समय देश के ख्‍यात विज्ञान संचारक और विज्ञान कथा लेखक हैं. दरअसल यही इप्रिंटिंग ही इस तरह के ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी  आगे बढ़ाती है. यही जीवों को बताती है कि क्‍या खाया जाए क्‍या नहीं. मनुष्‍य ने प्राकृतिक इंप्रिंटिग की जगह कृत्रिम ज्ञान से अपने को भर लिया है, इसलिए उसकी प्राकृतिक क्षमता कम हो गई है.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]