असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने मदरसों को लेकर जो बयान दिया है पहली नजर में सुनने से ऐसा लगता है कि ये बिल्कुल आपत्तिजनक है क्योंकि हमारे संविधान के अनुच्छेद 29-30 में अल्पसंख्यकों को अपने अनुसार शिक्षण संस्थाएं चलाने, अपनी संस्कृति के संरक्षण का पूरा अधिकार दिया गया है. 


संवैधानिक पद पर बैठा कोई भी व्यक्ति अगर ऐसा कहता है कि मदरसा नहीं होना चाहिए, मदरसों को हम मेडिकल कॉलेज और इंजीनियरिंग कॉलेज में बदल देंगे तो लगता है कि ये तो संविधान के भी विरुद्ध है और भारत में अल्पसंख्यकों के भी विरुद्ध है. लेकिन उनका पूरा भाषण ऐसा नहीं है. किसी भी वक्तव्य को अगर हर परिप्रेक्ष्य से काट कर देखेंगे तो उसका अर्थ यही निकलेगा. 


नियम-कानून के अनुसार ही चलाए जा सकते हैं मदरसे


लंबे समय से असम के साथ ही पूरे देश में ये देखा गया है कि मदरसों की एक बड़ी संख्या बगैर किसी नियम-कानून का पालन किये हुए स्थापित किए गये और गलत तरीके से संचालित किये जा रहे हैं. अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थान चलाने का पूरा अधिकार है और वो अधिकार उनका सुरक्षित है और रहेगा. लेकिन उस अधिकार के साथ कुछ नियम-कानून होते हैं. नियम कानून ये होता है कि हर प्रदेश का मदरसा बोर्ड होता है और वो एक पाठ्यक्रम तैयार करता है, एक मानक तय करता है कि कौन सा मदरसा सरकारी और कानून के अनुसार वैध माना जाएगा. आप अगर ऐसे ही कोई कॉलेज, मेडिकल कॉलेज या कोई अन्य शिक्षण संस्थान खोलें तो यूनिवर्सिटी के जो मानक होते हैं उसे पूरा करना पड़ता है. कितनी जमीन चाहिए, कितने कपने होने चाहिए, कितने फैकल्टी मेंबर होने चाहिए, लैब चाहिए, पाठ्यक्रम चाहिए, इन सब योग्यता को पूरा करने के बाद ही किसी यूनिवर्सिटी को मान्यता मिलती है. चाहे मदरसा हो या कोई भी शिक्षण संस्थान इन कसौटियों पर खड़ा नहीं है तो उनको तो खत्म करना पड़ेगा. अगर कोई मदरसा नियम कायदे से नहीं बना है या चल रहा है तो वो फिर शिक्षण संस्थान नहीं हो कर कुछ और ही होते हैं.


असम में हमने देखा है कि लोगों ने ही मदरसा तोड़ कर गिरा दिया क्योंकि उन्हें पता चला कि इनके जरिए शिक्षा के नाम पर यहां आतंकवादी गतिविधियां, मजहबी कट्टरवाद फैलाया जा रहा था. जांच में जब मामला सामने आया तो सरकार ने तो उसे गिराया ही, लोगों ने भी गुस्से में उसे गिरा दिया था. इससे लोगों को भी समस्याएं हो रहीं थी. बहुत सारे गैर मान्यता प्राप्त या नन-रजिस्टर्ड मदरसा असम में भी हैं और देश के अन्य राज्यों में भी संचालित किए जा रहे हैं और इनका उद्देश्य भी अलग है. मदरसों को स्थापित कर जो लोग ये बता रहे हैं कि हमारा मदरसा वैध है तो ये कौन लोग हैं, इसकी भी जांच-परख करना आवश्यक है. 


वोट बैंक की खातिर पहले हस्तक्षेप नहीं


पाया यह गया है कि मदरसे तो 50 गज में बने हुए हैं लेकिन मदरसे चलाने वाले खुद 100 गज के मकान में रह रहे हैं. मदरसे में एक भी पंखा नहीं है लेकिन उनके घरों में एसी लगी हुई है तो ये पैसे कहां से आते हैं. वो साल में विदेश की यात्रा कैसे करते हैं. उनका पासपोर्ट और वीजा की तो जांच की जानी चाहिए. अगर उनके पास कमी है तो वो इंग्लैंड, अमेरिका, सऊदी अरब, फ्रांस की यात्रा कैसे करते हैं...तो जाहिर है कि हवाला से पैसे आते हैं. अगर इस नाते असम के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि मदरसों को रहने का अधिकार नहीं है, तो बिल्कुल सही है. अगर कोई भी मदरसा कानून और संविधान के तहत बनाए कायदे से चल रहा है, तो उसे चाह कर भी कोई सरकार नहीं तोड़ सकती है. अपना देश संविधान और कानून से चलता है. लेकिन उनके कथन का एक संदर्भ और भी है क्योंकि वो ये बात पहले से भी कहते रहे हैं. चूंकि ये गौर करने वाली बात है कि मदरसा से जुड़े शिक्षा के क्षेत्र में रिफॉर्म की बहुत आवश्यकता है और वो भारत में हो नहीं पा रहा है. ये इसलिए नहीं हो पा रहा है क्योंकि हमारे देश में लंबे समय से सरकारों को सिर्फ वोट बैंक में नुकसान का डर सताते रहा है.
 


मदरसों का भी होना चाहिए स्टैंडर्ड 


पूर्व में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी आई थी. हालांकि उस रिपोर्ट में बहुत सारी बातें असत्य है लेकिन ये सच है कि मुसलमान सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से काफी पिछड़े रहे. मदरसों को मनमाने तरीके से चलाया जाता रहा और उनमें भ्रष्टाचार किया जाता रहा है. पहले उसमें कोई दखल नहीं देता था. पहली बार कोई सरकार आई, जो इस दिशा में कोई कदम उठाने की कोशिश कर रही है. क्योंकि अगर आप इन मदरसों में सिर्फ़ धार्मिक शिक्षा देते हैं तब तो बात समझ में आती है लेकिन अगर आप ये कह रहें हैं कि हम बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं, उनको डिग्रियां दे रहे हैं और मदरसों से निकले हुए बच्चों को जामिया मिलिया और जेएनयू में नामांकन होता है तो उसका एक स्टैंडर्ड तो होना चाहिए. तो वो चीजें आज होने लगी हैं तो इसलिए ये समस्या आई है हमारे यहां. लेकिन जो लोग मानते हैं कि मदरसों का एक अपना स्टैंडर्ड हो, मजहबी ज्ञान के साथ-साथ उनको आधुनिक समय के ज्ञान-विज्ञान की भी जानकारी दी जाए तो फिर उसके लिए तो आपको बदलाव लाना पड़ेगा. 



इसके लिए अगर सरकार प्रयास करती है और उसे नहीं माना जाता है तो कई बार सख्ती बरतनी पड़ती है. इस प्रकार के बयान देने पड़ते हैं. अगर हम मदरसा चला रहे हैं तो जो राज्य का मदरसा बोर्ड है उससे पंजीकृत हो और उसकी मान्यता लेने की कोशिश करें. लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है कि मदरसा के नाम पर लोग बाहर जाते हैं और फंड लेकर आते हैं और उन पैसों का इस्तेमाल मान्यता लेने और अच्छा मदरसा का निर्माण करने में नहीं होता है बल्कि उसका इस्तेमाल सिर्फ असामाजिक गतिविधियों को बढ़ावा देने में होता है. तो हमें परिप्रेक्ष्य के अनुसार किसी के बयान को देखना पड़ेगा. ये कतई मानने की आवश्यकता नहीं है कि भारत की कोई भी सरकार संविधान के विरुद्ध जाकर भारत में शासन करेगी. 


केंद्रीय मदरसा बोर्ड का हो गठन


मेरा मानना है कि भारत में जैसे यूनिवर्सिटी के संचालन के लिए यूजीसी है, स्कूलों के लिए एनसीईआरटी है, सीबीएसई है, उसी तरह से केंद्रीय मदरसा बोर्ड का गठन होना चाहिए. फिर केंद्रीय मदरसा बोर्ड से राज्य का मदरसा बोर्ड जुड़ा हो और फिर यहां से पाठ्यक्रम तय हो. अगर कोई राज्य सुझाव देता है कि हमारी अपनी स्थानीय संस्कृति के अनुसार कुछ व्यवस्थाएं चाहिए और अगर वो मान्य है तो उसको भी उसमें समाहित कर लेना चाहिए. मेरा मानना है कि देश भी इसे मानेगा. चाहे बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक अगर आपको शिक्षण संस्थान चलाना है तो आपको नियम-कानून के अनुसार उसे पारदर्शी तरीके से चलाना पड़ेगा. ये नहीं हो सकता है कि अपारदर्शी तरीके से आप अंदर क्या कर रहे हैं, क्या पढ़ा रहे हैं..ये बाहर के लोगों को पता ही नहीं चले और उस बारे में छानबीन और जांच भी नहीं हो. अगर देश को सुरक्षित रखना है और सारे समुदायों के बीच आर्थिक-सामाजिक बराबरी का संतुलन पैदा करना है और भारत को विश्व में एक शक्तिशाली और प्रभावी देश के रूप में खड़ा होना है तो उसके लिए तो शिक्षा व्यवस्था को ठीक करना पड़ेगा.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आर्टिकल वरिष्ठ पत्रकार अवधेश कुमार से बातचीत पर आधारित है.]