नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड' प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के न्योते पर 31 मई से भारत की चार दिवसीय यात्रा पर होंगे. पिछले साल दिसंबर में, तीसरी बार प्रधानमंत्री का पदभार संभालने के बाद यह प्रचंड की पहली विदेश यात्रा होगी. इस यात्रा को लेकर दोनों ही पक्षों में काफी उत्सुकता है, खासकर पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह नेपाल लगातार चीन के करीब होता जा रहा है, उसको देखते हुए कहा जा रहा है कि यह यात्रा नए सिरे से संबंधों में गर्माहट आएगी. 


संबंधों को नए सिरे से पारिभाषित करने की जरूरत


भारत और नेपाल के संबंधों में एक जो प्रसंग है कि नेपाल के प्रधानमंत्री अपनी पहली यात्रा पर भारत ही आते हैं, वह एक बहुप्रचारित धारणा है, जिसे नेपाल के बहुत से लोग सही नहीं मानते हैं. ऐसा तो है नहीं कि भारत कोई मंदिर है और आप आशीर्वाद लेने आएंगे. प्रचंड जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो चीन चले गए थे, क्योंकि ओलंपिक खेलों का कोई कार्यक्रम वहां था. यह हालांकि, बहुत मायने नहीं रखता, क्योंकि संबंधों में पहले के मुकाबले काफी बदलाव आया है. हमें याद रखना चाहिए कि कुछ वर्ष पहले जब के पी औली प्रधानमंत्री थे और भारत यात्रा पर आए थे, तो उनके साथ विदेश मंत्री प्रदीप जवाली भी थे. तब जवाली ने साफ-साफ कहा था कि अब भारत और नेपाल के द्विपक्षीय संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है. तो, जब तक नए सिरे से पारिभाषित नहीं करेंगे, तब तक पुरानी भावुक बातें जैसे, भारत-नेपाल के बीच रोटी-बेटी का संबंध है या सांस्कृतिक संबंध है, चलती रहेंगी. डिप्लोमैसी में ये सारी भावुकता की बातें नहीं चलतीं. ऐसे समय, जब चीन पूरी तरह नेपाल में निवेश करने पर जुड़ा है और भारत के सामरिक हित नेपाल से जुड़े हैं, तो भावुकता की जगह यथार्थ से काम लेना चाहिए.



प्रचंड की छवि हुई है धूमिल, यात्रा भी एक संयोग 


प्रचंड की पहली भारत यात्रा जब हुई थी तो जबर्दस्त क्रांतिकारी वाली उनकी छवि थी. वह सीधा जंगल से निकलकर 2006 में शांति समझौता करने आए. फिर, 2008 में नेपाल से राजतंत्र का खात्मा हुआ और प्रचंड प्रधानमंत्री बने. उस समय भारत के साथ पूरी दुनिया में उनको दुनिया के एकमात्र हिंदू राष्ट्र में राजशाही खत्म करनेवाले उग्र मार्क्सवादी नेता के तौर पर देखा जाता है. 2008 से आज 2023 तक बागमती में बहुत पानी बहा है. प्रचंड की छवि आज जितनी धूमिल हुई है, उतनी किसी बुर्जुआ नेता की भी नहीं होती, क्रांतिकारी की तो रहने दें. उनको सत्तालोलुप माना जाने लगा है क्योंकि उन्होंने राजनीति में जो पैंतरेबाजी की, कभी देउबा, कभी औली के साथ, उसको ठीक नहीं माना गया. यहां तक कि पिछली बार उन्होंने यह बयान दे दिया था कि उनकी केमिस्ट्री प्रधानमंत्री मोदी से मिलती है तो भी उनकी काफी आलोचना हुई थी. 


अभी जब प्रचंड आ रहे हैं तो एक और नया संयोग बन रहा है. 2015 में जब प्रचंड और उनके साथी नेपाल की सत्ता में आए थे, तो उनके प्रयास से हिंदूराष्ट्र का तमगा हटाकर नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के तौर पर संविधान में अंकित किया गया. दूसरी ओर, भारत में अभी जो माहौल चल रहा है, वह भारत के धर्मनिरपेक्ष राज्य से हिंदुत्व के रास्ते पर बढ़ने के करीब है और यह कल यानी 28 मई को नयी संसद के उद्घाटन के मौके पर आपने देखा ही होगा. प्रधानमंत्री मोदी संसद में तमाम हिंदू संतों-पुजारियों के साथ थे, वह भारत के धर्मनिरपेक्षता से हिंदुत्व की ओर बढ़ने का प्रमाण ही है. तो, राज्यों के संदर्भ में कभी-कभार ऐसे ऐतिहासिक संयोग बन जाते हैं. 


भारत का साथ नेपाल को लेना ही होगा


नेपाल की भौगोलिक स्थित ऐसी है कि वहां प्रचंड हों या कोई भी, खुद माओत्सेतुंग भी आ जाएं तो भी भारत के साथ अच्छे संबंध बनाकर ही चलना होगा. नेपाल पूरी तरह लैंडलॉक्ड, बल्कि भारतलॉक्ड संबंध है. तीन तरफ भारत और एक तरफ चीन से घिरा है नेपाल और दो ही इसके पड़ोसी हैं. तो, नेपाल का कोई भी प्रधानमंत्री जो अपनी जनता के अच्छे दिन चाहेगा, वह भारत से बनाकर ही रहेगा. इसके साथ पुराने और सांस्कृतिक संबंध तो हैं ही. प्रचंड की कोशिश भी यही रहेगी कि भारत के साथ उनके संबंध अच्छे ही रहें. नेपाल के संदर्भ में अगर चीन को देखें, तो इस संबंध में कहना होगा कि भारत का डेमोक्रेटिक फेल्योर है. इसके लिए हमें इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे. जब 2015 में नेपाल का संविधान बन रहा था, तो भगसिंह कोश्यारी और सुषमा स्वराज दोनों नेपाल गए और प्रचंड, देउबा और औली से बात की. कोश्यारी की बात तो ऑन रिकॉर्ड है कि नेपाल को हिंदूराष्ट्र बना रहने दें, संविधान से यह हटाएं नहीं. हालांकि, नेपाल ने यह बात नहीं मानी और हिंदूराष्ट्र का दर्जा हटा दिया. भारत तब काफी नाराज हुआ था. यही वजह है कि जब नेपाल का संविधान लागू हुआ तो पूरी दुनिया ने स्वागत किया, लेकिन भारत ने आधिकारिक विज्ञप्ति में लिखा था कि 'भारत सरकार ने इस बात का संज्ञान लिया' है, ना कि यह लिखा गया था कि 'भारत सरकार संविधान का स्वागत' करती है। डिप्लोमैसी में तो एक-एक शब्द का महत्व होता है, तो नेपाल ने भी उसका संज्ञान लिया ही होगा. इसके साथ ही संविधान लागू होने के अगले ही दिन, भारत ने ब्लॉकेड लागू कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि औली की सरकार को अपनी जनता को राहत देने के लिए चीन के साथ कई समझौते करने पड़े.


चीन से करीबी भारत के लिए दिक्कत


चीन लगातार उस गर्मजोशी को भुना रहा है. अभी आप देखिए कि प्रचंड की यात्रा 31 मई से शुरू हो रही है और चीन से एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंड अभी पहुंच गया है. ऐसा ही पहले भी हुआ था. चीन अपनी पैठ को लगातार बनाए रखना चाह रहा है. ओली सरकार ने कई समझौते चीन के साथ किए थे, ईस्ट-वेस्ट हाइवे के समांतर एक रेल लाइन की भी व्यवस्था हुई. काठमांडू के चारों तरफ की रिंग रोड में मेट्रो बनाने के लिए चीन से समझौता हुआ. एक और महत्वपूर्ण समझौता ट्रांजिट एंड ट्रांसपोर्टेशन एग्रीमेंट किया था. इससे नेपाल को चीन के समुद्री और थल बंदरगाह तक जाने की सुविधा मिलेगी और भारत पर निर्भरता कम होगी. 


अब जब प्रचंड आ रहे हैं, तो उनकी कोशिश होगी कि सारे समझौतों को पूरा किया जाए. कई सारे समझौते भारत के साथ भी होने हैं. इनमें एक महत्वपूर्ण समझौता सिलीगुड़ी से झापा तक पेट्रोल पाइपलाइन का निर्माण है. झापा पूर्वी नेपाल में है. बहुतेरे केमिकल-फर्टिलाइजर वगैरह की सप्लाई की बात है, कुछ हाइड्रोइलेक्ट्रिक योजनाएं हैं, जो पूरी होनी हैं. बहुत कुछ है जो भारत से सहयोग के रूप में नेपाल को मिल सकता है. भारत की मुख्य आपत्ति बीआरआई यानी बेल्ट एंड रोड लाइन इनिशिएटिव को लेकर है, जिस पर भारत ने अभी तक सहमति नहीं दी है. चीन जो नेपाल को अपने खांचे में लाने की जबर्दस्त कोशिश कर रहा है, वह उसी वजह से नेपाल से चीन तक रेल लाइन बिछाने वाला है. इसे लेकर भी भारत सशंकित है, क्योंकि सामरिक तौर पर फिर चीन भारत के बेहद करीब होगा. ये कुछ इरिटैंट्स अगर सुलझ गए तो प्रचंड की यात्रा बहुत सुखद परिणाम देगी. 


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)