भारत की नई शिक्षा नीति अमेरिकी व्यवस्था जैसी ! लेकिन क्या इसे लागू कर पाना संभव होगा
अमेरिका में चूंकि ज्यादातर यूनिवर्सिटीज प्राइवेट हैं और अगर सरकारी भी हैं तो उनके अपने डायरेक्टोरियल बोर्ड्स हैं जो सरकार को हस्तक्षेप नहीं करने देते हैं.
भारत में एक लंबे इंतजार के बाद नई शिक्षा नीति आई है. 60 पेज के इस दस्तावेज की मानें तो शिक्षा के क्षेत्र में आने वाले समय में आमूलचूल बदलाव का एजेंडा पेश किया गया है. पिछले कुछ दिनों में इस दस्तावेज में चिन्हित प्राथमिक और सेकंडरी शिक्षा को लेकर बहस तो हुई है लेकिन उच्च शिक्षा के मामले में बहस कुछेक मुद्दों तक सिमटी रही. मसलन एमफिल को खत्म करना कितना सही है या गलत. लेकिन अगर इस दस्तावेज की मानें तो आने वाले कुछ वर्षों में इसमें उच्च शिक्षा में सबसे बड़े बदलाव हो सकते हैं.
शिक्षा नीति कब और कैसे लागू होगी इस पर अधिक बात न करके हम ये जानने की कोशिश करते हैं कि उच्च शिक्षा के बारे में दस्तावेज में क्या कहा गया है और उससे क्या समझा जा सकता है.
शिक्षा का खराब स्तर
दस्तावेज के तीसरे हिस्से में उच्च शिक्षा की वर्तमान समस्याओं को चिन्हित करते हुए बताया गया है कि देश के पचास हजार से अधिक उच्च शिक्षा संस्थानों में से कई संस्थानों में सौ से कम छात्र पढ़ रहे हैं और संस्थानों में एक या एकाध विषय पढ़ाए जा रहे हैं. साथ ही शिक्षा के खराब स्तर, शिक्षकों की कमी, सांस्थानिक स्वायत्तता के अभाव और जाली यूनिवर्सिटियों की समस्या को रेखांकित किया गया है जो बहुत हद तक सही बात है.
दस्तावेज इन समस्याओं के समाधान के लिए बड़े मल्टी डिसिप्लीनिरी यूनिवर्सिटियों की स्थापना (हर जिले में एक), मल्टी डिसिप्लीनरी अंडर ग्रैड एजुकेशन, शिक्षकों और संस्थान की स्वायत्तता, सिलेबस में बदलाव, नियमों में बदलाव जैसे उपाय सुझाता है जो सुझाव के तौर पर ठीक हैं.
इसमें मुख्य बात ध्यान देने वाली विभिन्न विषय पढ़ाने वाली बड़ी यूनिवर्सिटीज के गठन की है. दस्तावेज के बिंदु 10.2 में उच्च शिक्षा का असल उद्देश्य स्पष्ट होता है कि आने वाले समय में भारतीय यूनिवर्सिटियों का मॉडल तक्षशिला और नालंदा के आधार पर होगा लेकिन उसकी सुविधाएं अमेरिकी यूनिवर्सिटियों मसल स्टैनफोर्ड और एमआईटी की तर्ज पर होगी.
अमेरिकी यूनिवर्सिटीज का नाम दस्तावेज में और भी आया है लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि ऐसा संभव कैसे किया जाएगा. दस्तावेज में ये भी स्पष्ट किया गया है कि उच्च शिक्षा संस्थानों को तीन तरह से डेवलप किया जाएगा. रिचर्स ओरिएन्टेड, टीचिंग ओरिएन्टेड और डिग्री देने वाले कॉलेज. संपूर्ण शिक्षा की अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि विज्ञान के साथ-साथ लिबरल आर्ट्स पर भी ध्यान दिया जाएगा जिसके जिक्र में प्राचीन भारतीय पद्धतियों मसलन बाणभट्ट की कादंबरी और चौंसठ कलाओं का जिक्र है तो साथ ही वोकेशनल ट्रेनिंग का भी जिक्र है.
अमेरिकी या यूरोपीय शिक्षा पद्धति से प्रेरित शिक्षा नीति!
कुल मिलाकर दस्तावेज में उच्च शिक्षा के लिए एक ऐसा मॉडल पेश किया गया है जो अपने आधार में भारत के प्राचीन ज्ञान पर आधारित है और साथ ही वर्तमान की बेहतरीन यूनिवर्सिटियों की सुविधाओं से लैस. दस्तावेज में भाषा, साहित्य, संगीत, दर्शन, इंडोलॉजी, आर्ट, डांस, थिएटर, शिक्षा, गणित, खेल, जैसे विषयों के विभाग बनाने पर ज़ोर दिया गया है.
अगर ओवरऑल देखें तो यह दस्तावेज अमेरिकी या यूरोपीय शिक्षा पद्धति से प्रेरित लगता है लेकिन असल में अमेरिकी शिक्षा पद्धति है क्या और उसे समझे बिना क्या शिक्षा नीति की आलोचना करना संभव है. मेरी समझ में ये जानना बेहद जरूरी है कि अमेरिका में उच्च शिक्षा कैसे और क्यों दी जाती है और ये भी कि क्या ये मॉडल भारत में लागू होना चाहिए. मुझे पिछले तीन सालों से अमेरिका में रहते हुए यहां की उच्च शिक्षा पद्धति को नजदीक से जानने का मौका मिला है और वही समझ आपसे शेयर कर रहा हूं.
भारत और अमेरिका के एजुकेशन सिस्टम में फर्क
भारत में जिसे हम इस समय तीन साल का ग्रैजुएशन कहते हैं, अमेरिका में वही ग्रैजुएशन चार साल का होता है. नई शिक्षा नीति में जो चार साल के ग्रैजुएशन का प्रावधान है उससे ये फायदा होगा कि भारतीय छात्रों को अमेरिकी संस्थानों में पीएचडी के लिए अप्लाई करने के लिए एमए करने की बाध्यता नहीं रह जाएगी. साथ ही एक लेबल हो जाएगा. दुनिया के ज्यादातर देशों में ग्रैजुएशन चार साल का ही होता है. सरकार ने ग्रैजुएशन के दौरान एक साल में डिप्लोमा, दो साल में डिग्री, तीन साल में ग्रैजुएशन और चार साल में रिसर्च ओरिएन्टेशन का जो मॉडल रखा है वो वाकई अच्छा आइडिया है. लागू कैसे होगा ये कहना मुश्किल है.
जब हम कहते हैं कि मल्टी डिसिप्लीनरी विश्वविद्यालय तो उसका अर्थ है कि एक ही यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग, मेडिकल, विज्ञान, और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों की पढ़ाई हो जो कि अमेरिका में आम तौर पर होती है. एमआईटी का ही उदाहरण लें तो भले ही ये यूनिवर्सिटी टेक्नोलॉजी के लिए प्रसिद्ध हो वहां के सोशल साइंस के विभाग में दुनिया में जाना पहचाना जाता है. इसी तरह कैलिफोर्निया की बर्केले यूनिवर्सिटी को ले लें या फिर हार्वर्ड, प्रिंस्टन, कोलंबिया या फिर येल, ड्यूक यूनिवर्सिटी हो, हर जगह दोनों तरह की पढ़ाई एक साथ होती है और ये सारे विभाग अच्छे माने जाते हैं.
भारत में इस समय ऐसी व्यवस्था नहीं हैं. आईआईटी में लिबरल आर्टस का विभाग छोटा सा है जबकि जेएनयू में इंजीनियरिंग और एमबीए की पढ़ाई अब शुरू हुई है. दिल्ली यूनिवर्सिटी में मेडिकल की पढ़ाई नहीं होती जबकि टेक्नोलॉजी के लिए अलग से कॉलेज है डीयू में. अगर नई शिक्षा नीति लागू होगी तो ये सब बदल जाएगा. इसका लाभ ये होता है कि अमेरिकी अनुभव के अनुसार कि कोई छात्र चाहे तो अपने ग्रैजुएशन में इतिहास के कोर्स के साथ-साथ एक कोर्स मेडिकल या इंजीनियरिंग का भी ले सकता है. ये सुनने में भले ही अटपटा लगे लेकिन ये अमेरिका में आम है कि लोग आर्ट और मेडिकल के कोर्सेस साथ साथ पढ़ते हैं. इसके पीछे अमेरिकी सिस्टम में उद्देश्य होता है एक समग्रता और इनोवेशन का जिसे नई शिक्षा नीति में अपनाने की कोशिश की गई है.
पीएचडी करने का प्रावधान
अमेरिकी सिस्टम में चार साल के बाद एमए करने या सीधे पीएचडी करने का प्रावधान होता है. पीएचडी अमूमन पांच से छह साल की होती है और अच्छी यूनिवर्सिटियों में पीएचडी करने वाले को एक निश्चित छात्रवृत्ति मिलती है. भारत में अगर एमफिल को मिला दें तो पीएचडी छह साल की थी लेकिन एमफिल हटने के बाद पीएचडी में कितने साल दिए जाएंगे ये शिक्षा नीति में स्पष्ट नहीं है.
पीएचडी की प्रक्रिया भी काफी अलग है. पीएचडी के पहले दो सालों में क्लासेस, जिसके बाद तीन सघन परीक्षाएं होंती हैं. इन परीक्षाओं के बाद ही कोई छात्र पीएचडी लिखने के लिए पात्रता पाता है. अमेरिकी सिस्टम में गाइड की जगह कमेटी होती है और कमेटी अपना काम अत्यंत गंभीरता से करता है. शोधार्थियों से अपेक्षा होती है कि छह साल में वो पर्चे लिखें और गंभीर शोध करें. शोध की पात्रता निश्चित करने के लिए होने वाले दो परीक्षाएं और प्रस्ताव लेखन अत्यंत कठिन माने जाते हैं. भारत में फिलहाल पीएचडी में एक गाइड पर छात्र का जीवन निर्भर रहता है तो अगर अमेरिकी व्यवस्था लागू होती है तो ये भी अच्छा ही होगा कि कमेटी के पांच लोग तय करेंगे कि शोध का स्तर ठीक है या खराब है.
समस्या कहां है
समस्या ये है कि भारत में जो सिस्टम पिछले कई सालों से बना हुआ है वो सिस्टम अगले कितने सालों में नया हो पाएगा. दस्तावेज में लक्ष्य अगले 15-20 सालों का है जो जरूरी भी है लेकिन इन बड़ी यूनिवर्सिटियों को बनाने के लिए पैसा कहां से आएगा और ये यूनिवर्सिटियां सरकारी पैसे से चलेंगी या निजी रूप से इसके बारे में बहुत स्पष्टता फिलहाल नहीं है. अगर ये सबकुछ निजी हुआ तो भारत के एक बड़े तबके के लिए उच्च शिक्षा सपने जैसा हो सकता है और यह भी एक अमेरिकी अनुभव है.
अमेरिका की किसी भी अच्छी यूनिवर्सिटी में पढ़ने की फीस कमोबेश सालाना 20 हजार डॉलर से 30 हजार डॉलर के बीच है यानी कि चार साल के ग्रैजुएशन की फीस 80 हजार डॉलर. भारतीय रुपयों में करीब 55 से 56 लाख रुपए. इसके अलावा रहने खाने पीने का खर्च अलग. यही कारण है कि ग्रैजुएशन के बाद ज्यादातर छात्र शिक्षा कर्ज के तले दबे रहते हैं.
शिक्षकों की नियुक्तियों का मनमाना ढंग
लिबरल आर्ट्स का जहां तक सवाल है तो सुझाव बेहतरीन है लेकिन शोध का स्तर भारत में खराब रहा है. चाहे वो आईआईटी हो या जेएनयू या डीयू. उच्च स्तरीय शोध कम हो रहे हैं भारत में. उसे बदलना एक बड़ी चुनौती होगी. अच्छे शोध के लिए अच्छे शिक्षकों की ज़रूरत होती ही है साथ ही यूनिवर्सिटियों के किसी वैचारिक खोल से अलग रहने की भी. भारत के संदर्भ में ये एक बहुत बड़ी समस्या है. जेएनयू यानी जवाहरलाल यूनिवर्सिटी को लेकर वर्तमान सरकार का जो रवैया रहा है उसके आलोक में यह कहना गलत नहीं होगा कि एक टकराव का माहौल बना है. शिक्षकों की नियुक्तियां पुरानी सरकारें और वर्तमान सरकार भी अपने मनमाने ढंग से करती रही है. क्या नई शिक्षा नीति के बाद सरकारें इन नियुक्तियों में मनमानी बंद कर देंगी. शिक्षा नीति कहती है कि स्वायत्तता होगी. हालांकि आधिकारिक रूप से सारी यूनिवर्सिटियां स्वतंत्र तो अभी भी हैं शिक्षकों की नियुक्ति में लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है.
अमेरिका में चूंकि ज्यादातर यूनिवर्सिटियां प्राइवेट हैं और अगर सरकारी भी हैं तो उनके अपने डायरेक्टोरियल बोर्ड्स हैं जो सरकार को हस्तक्षेप नहीं करने देती हैं. यही कारण है कि अमेरिकी यूनिवर्सिटियां लगातार सरकारों का विरोध करती रही हैं चाहे वो सरकार डेमोक्रेट हो या रिपब्लिकन.
अमेरिका में भारत की तुलना में ज्यादा रोजगार
अमेरिका में कॉलेज आने वाले छात्रों की संख्या भारत की तुलना में बहुत कम है. रोजगार के ज्यादा अवसर हैं और कॉलेज पढ़ने वही आता है जिसे आगे पढ़ने की इच्छा हो. इसके उलट भारत में ग्रैजुएशन करना तो लगभग हर बच्चा चाहता है. अगर वैकल्पिक या वोकेशनल शिक्षा को बढ़ा दिया जाए और रोजगार के अवसर बनने लगें तो जरूरी नहीं होगा कि हर बच्चा कॉलेज आए.
साथ ही मानसिक स्तर पर ये बदलाव भी भारत में होना होगा कि श्रम की इज्जत की जाए. सिर्फ कॉलेज में पढ़ने वाले के काम को ही अच्छा न माना जाए बल्कि घास काटने से लेकर, कारपेंट्री और तमाम काम करने वालों को भी समाज में इज्जत मिले जैसा कि यूरोप-अमेरिका में होता है.
कुल मिलाकर उच्च शिक्षा नीति एक बेहतरीन मॉडल है. एक बढ़िया सपना लेकिन वो सपना हकीकत में जमीन पर कैसे उतरता है ये कह पाना मुश्किल है क्योंकि जेएनयू भी बना तो था ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज की तर्ज पर लेकिन वो बन कर रह गया वामपंथ विचारों का गढ़ जिसे चुनौती देते हुए अब उसे दक्षिणपंथी विचारों का ठीहा बनाया जा रहा है. ऐसे अनुभव के आलोक में फिलहाल नई शिक्षा नीति से उम्मीद ही की जा सकती है कि ये अपने मसौदे के अनुरूप लागू किया जाएगा और जिस सोच के साथ इसे तैयार किया गया है वो सोच लागू करना संभव हो सकेगा.