नए संसद भवन में सेंगोल की स्थापना: राजपथ ग़ुलामी का प्रतीक था तो राजदंड लोकतंत्र का प्रतीक कैसे?
देश को नया संसद भवन मिल गया है. इस बीच नए संसद भवन के साथ ही एक और शब्द ही काफी चर्चा हुई. वो शब्द है सेंगोल. सेंगोल को नए संसद भवन में लोकसभा स्पीकर के आसन के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्थापित किया.
इसमें हमें कई चीजें समझने की जरूरत है. पूरे विश्व में, ख़ासकर पश्चिम में, हम देखते हैं कि वो अपने पुराने धरोहर को संजोकर रखते हैं. आइसलैंड का बिल्डिंग 930 में बना था और आज भी वो चल रहा है और उनको इस पर बहुत गर्व होता है. ब्रिटेन के पार्लियामेंट को दो सौ साल से ऊपर हो गए हैं, उसको भी देखकर उन्हें गर्व होता है. हालांकि पहले भी वो बिल्डिंग थी, लेकिन 1834 में वो जल गई थी तो दोबारा वहीं पर बनाया.
उसकी तरह अमेरिका का संसद यानी कांग्रेस, जिसे कैपिटल बिल्डिंग भी कहते हैं, 1800 ईस्वी से चला आ रहा है. इस तरह से आप फ्रांस, जर्मनी या इटली चले जाएं, हर जगह पुराने धरोहर, पुराने भवन होते हैं, उसको पूरे राष्ट्र से जोड़कर देखा जाता है क्योंकि वो एक जीवंत इतिहास का प्रतीक होता है.
हमारा तो अभी सौ साल भी नहीं हुआ है. इतनी खूबसूरत इमारत बनी हुई है. ये जरूर है कि उसे अंग्रेजों ने बनाया, लेकिन उन्होंने तो सारे भारत का जो गौरव है..चौसठ योगिनी मंदिर हो, सांची का स्तूप हो या फिर भारत की जितनी खूबसूरत चीजें या सांस्कृतिक चीजें हैं, उनको संसद भवन में संजो कर रखा.
ये बात ठीक है कि जब इमारत पुरानी होती है, तो उसको मरम्मत की जरूरत होती है. आपको उसको मरम्मत कराएं, उसमें कोई हर्ज नहीं है. अगर उसी संसद को हम पांच सौ या हजार साल चलाते हैं, तो उससे पूरे विश्व में एक संदेश जाता है.
मेरा मानना है कि उनको कोशिश यही करनी चाहिए थी कि पुराने भवन का जीर्णोद्धार होता और वहां भी इस तरह के कार्यक्रम हो सकते थे, उसमें कोई परेशानी नहीं है. इसमें दूसरी चीज जो है, उसमें हमने कुछ परंपराओं का पालन नहीं किया है. राष्ट्रपति देश के प्रमुख हैं, उनको आगे रखकर काम करने की परंपरा होती है. कहीं न कहीं हम उसमें भी चूक गए. उपराष्ट्रपति, स्पीकर उनका अपना एक प्रोटोकॉल होता है. उसमें भी हम चूक गए. या ये भी हो सकता है कि वे नई परंपरा कायम करना चाहते हों, जो शायद हमें समझ में न आया हो.
जहां तक सेंगोल की बात है..जिस तरह से सेंगोल को महिमामंडित किया जा रहा है, मुझे नहीं मालूम कि उसकी जरूरत है भी या नहीं. ये वो सेंगोल नहीं है जो चोल या पांड्य राजवंश अपनाते थे. ये उनका बनाया हुआ नहीं है.
मैं मानता हूं कि 15 अगस्त 1947 में जब भारत आज़ाद हो रहा था, उससे 10-15 दिन पहले कुछ ख़ास ग्रुप के लोगों (जो अधीनम के नाम से जाना जाता है और जो आजकल के तमिलनाडु से ताल्लुक रखते हैं) ने रातों-रात ये सेंगोल बनाया. ये बात रिकॉर्ड में है. ये लोग उसे नेहरू जी को आकर देना चाहते थे. जब कोई नया काम होता है तो कोई नई चीजें देना चाहता है.
ऐसे में सामान्य तौर से जो सरकार में होते हैं, प्रमुख पदों पर होते हैं, वे उपहार के लिए मना नहीं करते हैं और ले लेते हैं. उसे लेने का अर्थ ये नहीं था कि उसमें कोई ख़ास इतिहास छिपा हो. पुरानी चीज को देखते हुए एक नई चीज़ हमने बनाई और उसको आपको दे दिया ये कहते हुए कि पुरानी परंपरा रही है. मेरे हिसाब से नेहरू जी ने उसको ले लिया और फिर जो समुचित है, उसके मुताबिक उसे इलाहाबाद म्यूजियम में बतौर उपहार रखने के लिए दे दिया. मुझे ये इसलिए भी मालूम है क्योंकि मेरी पहली नौकरी इलाहाबाद म्यूजियम से ही शुरू हुई थी. वो जो पूरा कक्ष है, उसमें कई चीजें सजाकर रखी हुई हैं. उसमें वो ऐसे कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं था, जिस पर कि हम आज इस तरह से बात कर रहे हैं कि वो एक बहुत बड़ी चीज थी या फिर हमारे हिन्दू धर्म की कोई प्रथा थी. उस वक्त हिन्दू धर्म का जो स्वरूप था, वो भी बिल्कुल अलग था. उस वक्त दक्षिण की प्रथाएं अलग थीं और उत्तर की प्रथाएं अलग थीं.
उस चीज को इतना महिमामंडित करना, मुझे नहीं समझ में आता है कि इसकी कोई आवश्यकता सामान्य रूप से रही हो. हो सकता है कि जिन्होंने ये किया है, वे अपने हिसाब से सोचकर किया हो.
जब राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ किया था, तो उस वक्त भी शायद राजपथ का अर्थ हमने ग़लत समझा था. राजपथ का मतलब ही होता है कि राजा का कर्तव्य का रास्ता. कर्तव्य उसमें निहित है. उसके बिना राज हो नहीं सकता. ये परंपरा चल पड़ी है कि हम हर चीज का नाम बदल देते हैं, उसकी कोई जरूरत नहीं थी. राजपथ था और जनपथ था. दोनों एक जगह आकर मिलते हैं, और वो सेंट्रल विस्टा के सेंटर में आकर मिलते हैं. राजपथ और जनपथ का जो चौराहा है, वो इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन के बिल्कुल केंद्र पर है. राजपथ में कर्तव्य की बात शामिल होती है. अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कहा था कि हमें राजधर्म का पालन करना चाहिए. राजधर्म बिना कर्तव्य के नहीं होता है.
सामान्य रूप से इस तरह के राजदंड एक शाही परंपरा को जन्म देते हैं. शाही परंपरा का ही अनुसरण करते हैं. उस हिसाब से देखा जाए तो सामान्य जनतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें ये बहुत ज्यादा समीचीन (उचित) नहीं लगता है. अचानक इस प्रकार का कोई ऐतिहासिक धरोहर बनाना समझ से परे है.
जिन लोगों ने ऐसा किया है, हमे ये भी देखना चाहिए कि उसमें उनका कोई स्वार्थ तो नहीं है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये पब्लिक रिलेशन का कोई बहुत बड़ा एक्सरसाइज हो, जो नेहरू जी के जमाने से चला आ रहा हो और 75 साल से अभी भी चल रहा है. जिस मठ के बारे में कोई नहीं जानता था, उस वक्त उसके लिए 15 हजार रुपये खर्च किए गए थे, जो उस समय के हिसाब से बहुत बड़ी रकम होती थी. आजादी के कार्यक्रम से पहले नेहरू जी के पास पहुंच जाए, उसके लिए ख़ासकर फ्लाइट से भेजा गया.
इन सारी चीजों को देखें तो पाएंगे कि इसमें कहीं न कहीं बहुत कुछ व्यवस्थित बातें हैं, जो सामान्य लोगों को आसानी से नहीं दिख रहा है. आज अचानक इसको फिर से आगे लेकर क्यों आए हैं, क्यों इसको इस तरह से बढ़ाया गया, ये सारी चीजें सोचने की बात है. हो सकता है कि इसका राष्ट्र के हित से संबंध हो या फिर आने वाले तमिलनाडु के चुनाव से कोई संबंध हो. उसमें बहुत सारी संभावनाएं हो सकती हैं.
लेकिन जिस तरह से इसका महिमामंडन किया गया है और इसको ऐतिहासिक बताया जा रहा है, सामान्य तथ्य जो सामने हैं, उसके तहत ये कोई ऐतिहासिक वस्तु नहीं है. ये म्यूजियम में एक सामान्य सा उपहार रखा हुआ था. मेरे ख्याल से उसको लेकर इस तरह से सारी चीजें करना, उसके जो सारे आयाम हैं, उनको अध्ययन करना चाहिए....तभी हम किसी निष्कर्ष पर निकल पाएंगे. लेकिन सामान्य तौर से इसको इतना आगे बढ़ाने की जरूरत नहीं थी. स्पीकर के आसन के बगल में सेंगोल रखा गया है, ये कितना उचित है, इस पर विशेषज्ञ बात करेंगे. लेकिन किसी म्यूजियम के धरोहर को वहीं रखा जाना चाहिए. ऐसा करना था तो कोई नया बना लेते.
मैं मानता हूं कि इस देश की जो परंपरा है, उसमें विपक्ष और पक्ष में किस प्रकार से ज्यादा बातचीत हो सके, उस पर हमें ध्यान देने की जरूरत है. हमें इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि जनता जो बात पहुंचाना चाहती है, वो आसानी से पहुंच जाए और उसका समाधान हो. हमें ये भी देखना पड़ेगा कि विभिन्न राज्यों के बीच में मनमुटाव नहीं हो. जनतंत्र की एक प्रक्रिया है कि सब लोग साथ बैठें, साथ सोचकर निर्णय लेते हुए काम करें. जो पहले कभी प्रतीक चिन्ह रहे नहीं हों, उन्हें प्रतीक चिन्ह बनाने से पहले सबके साथ विचार कर लेते हैं तो ज्यादा अच्छा रहता है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)