देश को नया संसद भवन मिलने जा रहा है. ये मौका बहुत ख़ास है. आजादी के बाद भारतीय लोकतंत्र के लिए ये एक तरह से सबसे बड़ा मौका है. लेकिन इसके उदघाटन को लेकर जिस तरह से सरकार और विपक्ष के बीच राजनीति हो रही है, वो हमारी संसदीय प्रणाली के लिए सही नहीं है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 28 मई को संसद के नए भवन का उदघाटन करेंगे और कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल इसी बात का विरोध कर रहे हैं कि इस भवन का उदघाटन प्रधानमंत्री के हाथों नहीं बल्कि राष्ट्रपति के द्वारा किया जाना चाहिए. कांग्रेस समेत 19 दलों ने उदघाटन समारोह का बहिष्कार करने की घोषणा की है. इन दलों का कहना है कि मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार देश के पहले आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को नए संसद भवन के उदघाटन करने के संवैधानिक विशेषाधिकार से वंचित कर रही है.
देश को नया संसद भवन मिलना कई लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है. ये एक अलग मुद्दा है कि देश को नए संसद भवन की जरूरत थी या नहीं, लेकिन जब अब नया संसद भवन बनकर तैयार हो गया है, तो अब ये बहस बेमानी हो गई है.
देश के लिए ऐतिहासिक पल
नया संसद भवन इस लिहाज से भी बेहद ख़ास हो जाता है कि अब तक संसदीय प्रणाली के तहत विधायिका का काम जिस इमारत से किया जा रहा था, वो इमारत आजादी के पहले का बनी हुई है. उसे हम पर शासन और जुल्म ढाने वाले अंग्रेजों ने बनवाया था. ये अलग बात है कि पुराने संसद भवन में भी पैसा और खून-पसीना पूरी तरह से भारत का ही लगा था. अब हम उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गए हैं, जिसके पास किसी भी हुकूमत से मिली आजादी के बाद खुद का बनाया हुआ संसद भवन होगा. ये एक तरह से पूरे देश के लिए गर्व का विषय भी है.
उदघाटन पर राजनीति परिपक्वता की निशानी नहीं
जहां तक रही बात राजनीति की, तो जब ये भवन बन ही गया है और ये किसी पार्टी या सरकार का भवन नहीं है, बल्कि देश का है, तो ऐसे में इसके उदघाटन को लेकर राजनीति परिपक्व लोकतंत्र का परिचायक कतई नहीं हो सकता. चाहे सरकार हो या फिर सत्ताधारी दल बीजेपी और दूसरी तरफ कांग्रेस, टीएमसी, समाजवादी पार्टी, जेडीयू, आरजेडी, एनसीपी समेत कई विपक्षी दल..इन सभी को ये बेहतर तरीके से समझना चाहिए कि कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं, जिन पर राजनीति की बजाय एकजुटता होनी चाहिए, ताकि वैश्विक पटल पर ये संदेश जाए कि हम देश और देश से जुड़े गौरव के प्रतीक पर एकजुट होना भी जानते हैं.
ये बात सही है कि प्रधानमंत्री नए संसद भवन का उदघाटन करने जा रहे हैं और इसके लिए उन्हें लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला की ओर से आमंत्रित किया गया है. दरअसल संसद परिसर के देखरेख की जिम्मेदारी लोकसभा सचिवालय के तहत आती है. इसी नजरिए से सैद्धांतिक तौर से लोकसभा स्पीकर ही इस भवन के उदघाटन के लिए किसी को भी आमंत्रित कर सकते हैं.
लोकतंत्र में संसद सिर्फ एक इमारत नहीं
जहां तक बात है राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से नए संसद भवन का उदघाटन नहीं कराया जाना, या फिर उन्हें इस समारोह में नहीं बुलाया जाना तो ये समझना होगा कि भारत और यहां के लोगों को नया संसद भवन मिल रहा है, नई संसद नहीं. लोकतंत्र के तहत संसदीय प्रणाली में संसद सिर्फ एक इमारत का नाम नहीं होता है. ये लोकतंत्र का प्रतीक होने के साथ देश के हर नागरिक की भावनाओं को समेटे हुए एक व्यवस्था का सर्वोच्च प्रतीक भी है.
संसद का अभिन्न हिस्सा है राष्ट्रपति का पद
नए संसद भवन के उदघाटन समारोह से भले ही राष्ट्रपति दूर रहे, लेकिन संसद से देश के राष्ट्रपति को कोई दूर नहीं कर सकता है क्योंकि हमारे संविधान के अनुच्छेद 79 के तहत देश का राष्ट्रपति संसद का अभिन्न हिस्सा है. अनुच्छेद 79 कहता है कि संघ के लिए एक संसद होगी जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी जिनके नाम राज्यसभा और लोकसभा होंगे. इस अनुच्छेद से स्पष्ट है कि संसदीय प्रणाली के तहत केंद्रीय विधायिका के तौर पर जिस संसद की संकल्पना हमारे संविधान में किया गया है, उसमें राष्ट्रपति अपने आप निहित हैं. राष्ट्रपति पद उस संसद का एक महत्वपूर्ण घटक है, उसका सार है.
ये भी संवैधानिक पहलू है कि गणराज्य होने के नाते राष्ट्रपति ही हमारे देश का सैद्धांतिक राष्ट्र प्रमुख होता है. संविधान का अनुच्छेद 53 भी कहता है कि संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा.
प्रधानमंत्री होते हैं कार्यपालिका प्रमुख
उसी तरह से संवैधानिक व्यवस्थाओं के मुताबिक ही प्रधानमंत्री देश का सरकारी प्रमुख होता है. अनुच्छेद 74 में इसकी व्यवस्था है कि राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा और राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में ऐसी सलाह के अनुसार कार्य करेगा. इस अनुच्छेद के जरिए ही प्रधानमंत्री कार्यपालिका प्रमुख हो जाते हैं. व्यावहारिक तौर से हमारे देश में प्रधानमंत्री ही सबसे ज्यादा ताकतवर और अधिकारों से पूर्ण पद है, ये अलग बात है कि राष्ट्रपति को ये अधिकार सैद्धांतिक तौर से मिला हुआ है.
राष्ट्रीय गौरव से जुड़ा है मुद्दा
ये सब संविधान, सिद्धांत और व्यवहार की बातें हैं. लेकिन जब देश को नया संसद भवन मिल रहा हो तो, फिर सरकार के साथ ही तमाम विपक्षी दलों को ये जरूर सोचना चाहिए कि मुद्दा राष्ट्रीय गौरव से जुड़ा है. इस दृष्टिकोण से दोनों को ही समझदारी दिखाने की जरूरत है.
नए संसद भवन का उदघाटन कोई करें, मायने उसका नहीं है. अब ज्यादा मायने ये रखता है कि देश को अपना बनाया हुआ संसद भवन मिल रहा है. लोकतंत्र के प्रतीक के तौर पर ये न तो सरकार का है, न सत्ताधारी पार्टी या फिर विपक्षी दलों का है. ये देश का है, यहां के हर नागरिक का है, ये हम सब की पहचान से जुड़ा है. हम कह सकते हैं कि आजादी के बाद एक नजरिए से देश के लिए ये सबसे बड़ा मौका होगा. इसका सीधा संबंध भारतीय लोकतंत्र, संसदीय प्रणाली और देश की पहचान से है. सच्चाई यहीं है कि 28 मई के बाद भविष्य में ये भवन हमेशा हमेशा के लिए भारत और भारतीयता की पहचान के तौर पर देखा जाएगा. इसलिए ये जरूरी है कि सरकार और विपक्ष दोनों को ही इस पर सकारात्मक रुख अपनाना चाहिए.
तस्वीर और संदेश एकजुटता की होनी चाहिए
अगर सचमुच में नए संसद भवन के उदघाटन समारोह के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को नहीं बुलाया गया है, तो लोकसभा स्पीकर के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी जरूर एक बार इस पर विचार करना चाहिए. उदघाटन कोई कर दे, लेकिन जरा सोचिए कि 28 मई की उस तस्वीर में जब पूरे देश की ताकत एकजुटता के साथ दिखेगी, तो फिर भारत कितना मजबूत नजर आएगा. कल्पना कीजिए कि उस तस्वीर में राष्ट्रपति होंगे, प्रधानमंत्री होंगे, बाकी सारे मंत्री होंगे और उसके साथ ही हर विपक्षी दल का प्रतिनिधित्व होगा तो फिर इस तस्वीर से बेहतर कुछ नहीं हो सकता है.
इस पहलू को देखते हुए सरकार की ओर से भी समझदारी दिखनी चाहिए और देश के लिए गौरवपूर्ण इस पल से पूरी दुनिया को ये संदेश जाना चाहिए कि जब बात राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी हो तो यहां की सरकार विपक्षी दलों की भावनाओं को भी उतना ही महत्व देती है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर इस दिशा में पहल करें तो अभी भी बहुत देर नहीं हुई है.
विपक्षी पार्टियों को भी राजनीति से बचनी होगी
इसके साथ ही कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को भी ये गंभीरता से सोचना चाहिए कि नए संसद भवन का उदघाटन कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है. अगर राष्ट्रपति की जगह प्रधानमंत्री ही उस इमारत का उदघाटन कर रहे हैं तो भी ये कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जिस पर राजनीतिक नजरिए से लाभ-हानि सोचकर रणनीति बनाई जाए. ऐसे भी इस देश में कई मौके आए हैं, जब किसी इमारत के उदघाटन में बहुत तरह की ऊंच-नीच देखने को मिली है और ये भी सोचना होगा कि उदघाटन का अधिकार कोई संवैधानिक अधिकार नहीं होता. सैद्धांतिक तौर से ये किसी संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन भी नहीं है. ये तो बस व्यवहार की बात है.
कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की ओर से जब ये कहा जाता है कि देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति को दरकिनार किया जा रहा है, तो यहीं पर ये सारे दल एक बड़ी गलती कर दे रहे हैं. अगर द्रौपदी मुर्मू की बजाय अभी कोई और राष्ट्रपति होता या होती, जिनका संबंध आदिवासी समुदाय से नहीं होता तो क्या ये उनके लिए मुद्दा नहीं रहता. अगर आपको इसे मुद्दा बनाना ही था तो राष्ट्रपति पद को लेकर बनाते, उसमें आदिवासी और महिला शब्दों का घालमेल तो यहीं दिखाता है कि मकसद सिर्फ राजनीतिक नफा-नुकसान है.
कांग्रेस समेत जिन 19 दलों ने नए संसद भवन के उदघाटन समारोह का बहिष्कार करने का फैसला किया है, उनमें वे सारे दल ही शामिल हैं, जो एक तरह से 2024 के चुनाव में बीजेपी के खिलाफ देशव्यापी स्तर पर विपक्षी गठबंधन बनाने की चाह रखते हैं. इस बहिष्कार से बीजेडी के नवीन पटनायक, वाईआरएस कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी, टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू, शिरोमणि अकाली दल ने अपने आप को दूर रखा है. यानी ये दल समारोह में शामिल होंगे. मायावती की भी ज्यादा संभावना शामिल होने की ही है. वहीं बीआरएस के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव की ओर से भी ऐसे ही संकेत मिल रहे हैं कि वे भी समारोह से दूरी ही बनाएंगे.
संसद सिर्फ़ सरकार से नहीं बनती है
अब जरा सोचिए कि संसद सिर्फ सरकार या सत्ताधारी दल से नहीं बनती है. इसके संगठन और सार्थकता में विपक्षी दलों की भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है. अब ये कैसा लगेगा कि देश को नया संसद भवन मिल रहा है, देश को नए संसद भवन के तौर पर लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रतीक मिल रहा है और उस मौके से ज्यादातर विपक्षी दल गायब हैं या बहिष्कार मुहिम में शामिल है. देश के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय जगत में भी ये सही संदेश नहीं होगा.
विपक्ष को फायदा से ज्यादा नुकसान ही होगा
विपक्षी दलों को एक बात समझनी चाहिए कि नया संसद भवन सिर्फ सरकार का नहीं है. ये देश के हर नागरिक की तरह उनका भी है, देश के तमाम दलों का है. अगर कांग्रेस और उनके साथ बाकी कई दल सिर्फ़ चुनावी नजरिए से संसद भवन जैसे मसले को मुद्दा बना रहे हैं, तो ये सारे दल भूल कर रहे हैं. भारत में लोगों के लिए भावनात्मक मुद्दे ज्यादा अहमियत रखते हैं और ज्यादातर लोग यही मानकर चलेंगे कि देश को नया संसद भवन मिल रहा है, ये राष्ट्रीय अस्मिता का विषय है. ऐसे में कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल एक तरह से अपना ही नुकसान कर रहे हैं और बीजेपी का इससे कोई नुकसान नहीं, बल्कि बहुत ज्यादा फायदा ही होने वाला है.
राजनीति के लिए देश में भरे पड़े हैं मुद्दे
देश में कई मुद्दे हैं, जो जरूरी हैं..महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, घर का अभाव, मेडिकल सुविधाओं का अभाव समेत कई मुद्दे हैं, जिनको लेकर विपक्षी दल सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष कर सकते हैं. नरेंद्र मोदी सरकार को घेर सकते हैं..बीजेपी के खिलाफ लामबंदी कर सकते हैं. लेकिन नए संसद भवन का उदघाटन समारोह किसी भी तरह से राजनीति का मुद्दा नहीं बनना चाहिए..ये बात न तो सरकार के हित में है, न ही विपक्षी दलों के. उससे भी ज्यादा देश की एकजुटता के नजरिए से भी इससे सही संदेश नहीं जाएगा.
सरकार और विपक्ष को दिखानी होगी एकजुटता
सरकार और सभी विपक्षी दलों को ये समझना होगा कि नया संसद भवन लोकतंत्र का प्रतीक है और आने वाले सदियों-सदियों तक ये हमारी पहचान रहेगा. इसलिए दोनों ही पक्षों को बाकी मुद्दों पर राजनीति करनी चाहिए और इसे राष्ट्रीय गौरव का पल बनाने के लिए हर वो कदम उठाना चाहिए जिससे अंतरराष्ट्रीय पटल पर एक मजबूत और एकजुट भारत की छवि बनती हो. इस दिशा में सरकार को भी विपक्षी दलों से बात कर हल निकालना चाहिए, उन्हें उदघाटन समारोह में शामिल होने के लिए मनाना चाहिए तो दूसरी तरफ कांग्रेस समेत विपक्षी दलों को भी अपनी जिद्द छोड़कर इस ऐतिहासिक पल का हिस्सा बनना चाहिए. अब सब कुछ दोनों पक्षों की समझदारी और सही मायने में राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़े मुद्दे पर एकजुटता दिखाने पर टिका है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)