नया प्रेस पंजीकरण कानून है सरकार का प्रकाशनों पर शिकंजा कसने का दांव, 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' तो है बस छलावा
नए साल का आगाज हो चुका है और लोगों को सरकार के नए फैसलों का इंतजार है. भारत सरकार ने हालांकि पिछले साल ही 21 दिसंबर को प्रेस पंजीकरण विधायक को पारित किया. इसके जरिए अखबारों और पत्रिकाओं के प्रकाशन को नियमित करने के दशकों पुराने कानून को बदला गया है. इस पर हालांकि सरकार की आलोचना भी हो रही है कि वह प्रेस पर नियंत्रण करना चाह रही है, लेकिन सरकार का या उसके पक्षधरों का कहना है कि यह तो केवल उस कानून का भारतीयकरण किया गया है.
सरकार पेश कर रही 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' के बतौर
थोड़ा इतिहास की बात करें तो अंग्रेजों के समय 1867 में प्रिंटिंग प्रेस और समाचारपत्रों के संबंध में एक कानून बना था. उसका उद्देश्य था कि उस समय के जितने अखबार या पत्रिकाएं या पुस्तिकाएं छप रही थीं, उनको कानूनी जद में लाया जाए. यह अंग्रेजों के प्रशासन चलाने के लिए उनकी विवशता भी थी. इसके तहत हरेक समाचारपत्र में मुद्रक, प्रकाशक, संपादक का नाम देना, प्रकाशन और मुद्रण स्थल का नाम देना जैसी सहज चीजें थीं. इसके अलावा जिलाधिकारी की अनुमति लेने वगैरह की चीजें थीं, बाद में उसमें कुछ संशोधन वगैरह हुए, जैसे कारावास की अवधि या सजा वगैरह को लेकर, लेकिन मोटे तौर पर यही कानून चलता रहा. वर्तमाम केंद्र सरकार ने अगस्त में राज्यसभा में नया कानून पारित किया और लोकसभा में अभी 21 दिसंबर को इसे पारित किया जिसका नाम प्रेस और पुस्तक पंजीकरण कानून-2023 है.
सरकार इसे 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' के तौर पर पेश कर रही है कि इससे प्रकाशन-मुद्रण के मामले में आसानी होगी, हालांकि इसके प्रभाव को एक बृहत्तर संदर्भ में भी देखना चाहिए. पहले तो सहूलियतें देखें कि जो शीर्षक पंजीकरण के लिए पहले जिलाधिकारी के पास जाना पड़ता है, फिर दिल्ली से डीजीपी की अनुमति लेकर फिर रजिस्ट्रार के पास जाना पड़ता है, तो नए कानून में अब जिलाधिकारी और बाकी लोगों की भूमिका खत्म है, सीधा प्रेस रजिस्ट्रार या पंजीयक को ही सारे अधिकार दे दिए गए हैं. दूसरी जो बात अहम है, वह यह है कि जिन भी लोगों के ऊपर मुकदमे हैं या जिन पर अपराध का आरोप है, वे पंजीकरण नहीं करवा सकते हैं और अगर बिना पंजीकरण के कोई अखबार या पत्रिका निकालता है, तो उस पर कार्रवाई होगी, जेल भी हो सकती है.
छोटे शहरों-कस्बों के छोटे प्रकाशकों के लिए बुरा
इस कानून का एक दूसरा पहलू भी है, जिस पर बात होनी चाहिए. आज की तारीख में अखबार जो भी देश भर में 10-15 हैं, वे अपनी उच्चतम सीमा पर पहुंच चुके हैं. संस्करण अखबारों के सिमट चुके हैं और कोरोना के बाद तो उनकी पृष्ठ संख्या और मोटाई भी. हमें यह मालूम है कि आज की तारीख में अखबार देश के कुछ घरानों के पास ही हैं. उनका एकाधिकार ही है और वे ही टिक रहे हैं. यह मसला चूंकि पूंजी संकेंद्रित है, तो अखबार निकालना केवल एकाध करोड़ का नहीं, कई करोड़ों का मामला है. यह सभी जानते हैं, तो 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' का फायदा किनको होगा, यह सोचने की बात है और इस पर सवाल भी उठ रहे हैं. कोई नया व्यक्ति अगर अखबार या पत्रिका निकालना चाहे, तो बड़ी पूंजी के मामले में तो बात समझ आती है कि उसे सुविधा मिलेगी, लेकिन छोटे उद्यमियों, छोटे अखबार, छोटी पत्रिकाएं वगैरह को सोचना होगा. 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' अगर उनके लिए होता, तो समझ आता, बाकी बड़े पूंजीपति जिलाधिकारी के माध्यम से जाएं या कहीं से, उन पर बहुत फर्क तो पड़ता नहीं है. जो छोटे प्रकाशक हैं, कस्बों और छोटे शहरों के, उन पर तो कई तरह के मुकदमे चलते हैं. बड़े प्रकाशन इससे बचते हैं. इस कानून के बाद जब क्रेडेंशियल देखे जाएंगे, तो उसमें एफआईआर की भी बात होगी, कोई अगर ऐसी बात होगी जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा या आतंकवाद से जोड़ा जा सके, तो वो भी एक अहम नुक्ता होगा.
सरकार चाहती है प्रेस पर नियंत्रण
सरकार इस पर नियंत्रण चाह रही है. सरकार ने डिजिटल के लिए 2021 में आइटी रूल्स रच दिया है. उसमें एक अपीली ऑफिसर नियुक्त करने और सारे प्रकाशन जो डिजिटल हैं, उनको आइबी मिनिस्ट्री में रजिस्टर करने की बात हुई. पिछले दो साल में डिजिटल शिकंजा कसा ही है. पीआईबी के अंदर एक फैक्ट-चेक का महकमा बन गया है और इसकी जद में बड़ी वेबसाइट भी आयी हैं और उन पर भी नियंत्रण हुआ है. सरकार की पहली प्राथमिकता वही थी. चूंकि उनके लिए कोई कानून नहीं था, कोई स्टैंडर्ड नहीं था. अब उसके लिए सरकार ने एक व्यवस्था बना ली है. अब सारा फोकस सरकार का अखबारों पर आ गया है. इसका कारण यह है कि जो छोटे से छोटे शहर, कस्बों में जो पीरियॉडिकल्स, छोटी पत्रिकाएं, अखबार या टेबलॉृयड निकल रहे हैं, उनमें असहमति के स्वर अभी भी हैं.
दरअसल, लगाम इन पर लगानी है. इन पर लगाम दो तरीकों से ही लगेगा. वह तरीका बड़ी पूंजी का है. इस कानून में जुर्माना 10 लाख तक है, कैद छह साल की है. दूसरा मामला मुकदमे का है. उसे पारिभाषित करने का अधिकार सरकार के पास है. अब, अभी जो न्याय संहिता पारित हुई है. उसको अगर इसके साथ मिलाकर देखें तो जिस व्यक्ति के क्रेडेंशियल चेक किए जाएंगे और वह नयी न्याय संहिता के मुताबिक होगा. उसका कुछ भी लिखा या बोला 'अप्रिय' जो देश के प्रति होगा. यह कानून के अंदर है. उसके लिए 'डिसअफेक्शनेट' शब्द का इस्तेमाल किया गया है, तो यह तो बहुत ही एब्स्ट्रैक्ट हो गया, एक विषयनिष्ठ यानी सब्जेक्टिव बात हो गयी. यहीं यह पूरा मामला कस जाता है और एक वाक्य में कहें तो 'ईज ऑप डूइंग बिजनेस' की खोल में यह सरकारी नियंत्रण का प्रयास ही है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]