17 दिसंबर की वह सुबह उजली नहीं थी, वह काली थी जी हां बिल्कुल काली. सफदरजंग अस्पताल के बर्न वार्ड में निर्भया अपनी जिंदगी के लिए लड़ाई लड़ रही थी. सुबह के समय अस्पताल पूरी तरह छावनी में बदल चुका था. निर्भया का दोस्त वसंत बिहार थाने में था और पुलिस के हाथ में कोई भी सबूत नहीं था.
इससे पहले रात को दक्षिणी दिल्ली की सड़कों पर चलती बस के अंदर दरिंदगी का भयानक खेल खेला गया था. निर्भया ने अंतिम समय तक लड़ाई लड़ी थी. उसके शरीर का कोई हिस्सा नहीं बचा था जहां हैवानों के दरिंदगी के निशान न हों. इसके बाद उसे मरा समझ कर कूड़े पर फेंक दिया गया था.
कूड़े के ढेर में निर्भया बेसुध पड़ी थी और उसका दोस्त मदद मांग रहा था. दोनों के कपड़े तक दरिंदों ने उतार लिए थे. इंसानियत तार-तार हो रही थी लेकिन, कोई मदद को आगे नहीं आ रहा था. उस समय नेशनल हाईवे अथॉरिटी के कर्मचारी ने सामने के होटल से चादर लाकर उनपर डाली थी.
इधर बिना किसी लीड के पुलिस ने मामले की जांच शुरू कर दी थी. पुलिस को कोशिश, 17 दिसंबर की शाम को रंग लाई और आरोपियों की पहचान जाहिर हो गई. अगले ही दिन आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया. साथ ही वह बस भी बरामद कर ली गई जिसमें इसे दर्दनाक हादसे को अंजाम दिया गया था.
निर्भया, पैरामेडिकल की पढ़ाई कर रही थी और अपने गरीब मां-बाप का सहारा बनना चाह रही थी. लेकिन, हवस के हैवानों ने न सिर्फ उसके सपने चूर कर दिए बल्कि ऐसा कांड कर दिया कि आज भी उस बारे में सोंच कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
हर ओर फांसी की मांग हो रही है और सही बात यह है कि यदि लोगों का बस चले तो दरिंदों को वो खुद ही सजा दे डालें. जब-जब यह घटना किसी तारीख के रूप में सामने आती है लोगों का खून खौलने लगता है. यह फैसला इस बात का सबूत है कि अब देश में हर निर्भया के साथ कानून खड़ा है.
फांसी की सजा से ही दिल्ली का यह पाप अब धुल सकता है. लेकिन, एक टीस तो हमेशा इस घटना पर रहेगी और वह है छठवें आरोपी के 'नाबालिग' होना. नाबालिग ने तो अपनी सजा पूरी भी कर ली है और अभी उसे सरकारी निगरानी में रखा गया है.
(यह लेखक के निजी विचार हैं. लेखक से ट्वीटर हैंडल @vivek_ABP पर संपर्क किया जा सकता है.)