नीति आयोग की बैठक, 8 सीएम का नहीं आना, संघीय ढांचे को लेकर राजनीतिक रस्साकशी के क्या हैं मायने?
नीति आयोग संचालन परिषद की बैठक में 8 राज्यों के मुख्यमंत्री नहीं आए, यह फेडरल स्ट्रक्चर पर आघात नहीं है. संघीय ढांचे की बहुत जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री ने एक बैठक बुलाई तो सभी मुख्यमंत्री को जाना ही पड़ेगा. इससे भी बड़ी घटना तो 28 मई को होगी, जब नए संसद का उद्घाटन होगा और उसका बहिष्कार 20 दलों के नेता कर रहे हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि गणतंत्र का उल्लंघन या भारतीय संघ की अवहेलना नहीं है. संघीय ढांचे को इतना संकीर्ण नहीं करना चाहिए.
भविष्य में और केंद्र-राज्य के बीच और बढ़ेगा संघर्ष
ये जो फेडरल या संघीय ढांचा है, उसे तो प्रधानमंत्री संघी यानी आरएसएस वाले ढांचे में बदलना चाहते हैं. हमारा जो संघीय ढांचा है, जो परंपराएं हैं, उनको तो प्रधानमंत्री ने आते ही ध्वस्त कर दिया है. नीति आयोग की ही बात करें तो जैसे वह पुराने संसद की जगह नयी संसद बना रहे हैं, वैसे ही उन्होंने योजना आयोग की जगह नीति आयोग भी बनाया. जो मुख्यमंत्री नहीं जा रहे हैं, वे प्रधानमंत्री को चुनौती दे रहे हैं. ये 8 लोग जिन राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, उन राज्यों की जनता भी प्रधानमंत्री को चुनौती दे रही है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के अंतिम साल में इस तरह की रस्साकशी बताती है कि आने वाले साल में, चुनाव के समय तक यह संघर्ष और तीखा होगा और मुख्यमंत्री जो हैं वे केंद्र-राज्य संबंध को नए सिरे से पारिभाषित कर रहे हैं.
पीएम और बीजेपी को सोचना चाहिए
लोकतंत्र धमकी से तो नहीं चलता है. जैसे, रविशंकर प्रसाद कह रहे हैं कि नीति आयोग की बैठक में जो राज्य नहीं आए, उनको घाटा होगा. ये तो आप धमकी दे रहे हैं, जैसे कर्नाटक में आपने धमकी दी थी कि अगर बीजेपी नहीं जीती तो प्रधानमंत्री का आशीर्वाद नहीं मिलेगा.
ऐसे तो लोकतंत्र नहीं चलता है. बीजेपी और पीएम को सोचना पड़ेगा कि अगर यह देश एक घर है, तो आपके घर से कोई भी रूठ कर जाता है, तो मुखिया परेशान हो जाता है. यहां प्रधानमंत्री को परेशानी ही नहीं होती. किसी को आना है, आए. नहीं आना है तो नहीं आए. जो मुख्यमंत्रियों ने किया है, वह नीति आयोग का नहीं, प्रधानमंत्री मोदी का और उनकी कार्यप्रणाली का बहिष्कार है.
आपको याद हो कि तीन साल पहले जब नीति आयोग की बैठक हो रही थी तो तत्कालीन सीईओ अमिताभ कांत ने कहा था कि हमारे देश में अत्यधिक प्रजातंत्र (टू मच डेमोक्रेसी) है, इसलिए हम चीन की बराबरी नहीं कर पा रहे हैं. अगर आप यह बात कह रहे हैं तो इसका मतलब है कि आप विपक्ष के तौर-तरीके नहीं सह पा रहे हैं. बीजेपी और पीएम को ये भी सोचना चाहिए कि उन्होंने योजना आयोग को खत्म कर दिया, पुरानी संसद को खत्म कर दिया तो मुख्यमंत्री भी परंपराओं को नहीं ढो रहे हैं.
आप अगर जिन राज्यों के मुख्यमंत्री नहीं गए हैं, उनको देखें, उनकी जनसंख्या को देखें तो पाएंगे कि नीति-निर्धारण की एक बैठक से एक बड़ी जनसंख्या आज छूट गयी है. उसने उस दायरे से खुद को बाहर कर लिया है.
सबको साथ लेकर चलने पर होना चाहिए ज़ोर
जवाब तो प्रधानमंत्री को देना है. इसमें विपक्षी पार्टियों का कोई लेना-देना नहीं है. पीएम को सोचना है कि वह देश को किस तरफ ले जाना चाह रहे हैं? आपने देखा कि राहुल गांधी के साथ कैसा व्यवहार किया गया, एक इतनी बड़ी पार्टी के नेता के साथ क्या हुआ, उनकी बातों को संसद से एक्सपंज किया गया, उनको डिसक्वालिफाई किया गया, उनका घर छीन लिया गया. ये सारी बातें जो हो रही हैं, ऐसा नहीं है कि गलती से हो रही हैं, ये सारी बातें प्रधानमंत्री की जानकारी में हो रही है और लगता है कि वह ऐसा चाहते भी हैं.
लोकतांत्रिक परंपराओं को एक पार्टी की हुकूमत में बदल नहीं सकते हैं. जो विपक्षी दल ये कर रहे हैं, जो मुख्यमंत्री ये कर रहे हैं, समझिए कि वे बड़ा रिस्क ले रहे हैं, अगर वह नीति आयोग की बैठक में नहीं आ रहे, संसद के उद्घाटन में नहीं आ रहे हैं, तो अगर जनता उनके साथ नहीं है, तो उनको उखाड़ फेंकेगी. अगर मुख्यमंत्री ये कर रहे हैं, तो इसका मतलब यह है कि जनता भी उनके साथ है.
यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ी घटना
कई मुख्यमंत्री ने तो न आने का कारण ही नहीं दिया. यह भारतीय लोकतंत्र के लिए तो बड़ी घटना है. 8 मुख्यमंत्रियों ने यह साफ कर दिया है कि आप प्रधानमंत्री हैं तो होंगे, हमारे लिए बहुत मायने नहीं रखते. तो, यह जो मामला है, वह बहुत ही गंभीर है और सोचने की बात है कि आगे 2024 तक यह मामला कितना बढ़ेगा, यह देखने की बात होगी.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)