(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
'सियासी दांव-पेंच में नीतीश को कोई नहीं दे पा रहा टक्कर, 17 साल से बने हुए हैं बिहार की राजनीति के सिरमौर'
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ऐसे चेहरे हैं, जो 17 साल से वहां की सत्ता पर अपना परचम लहरा रहे हैं. संविधान के लागू होने के बाद से शुरू हुई चुनावी राजनीति के तहत बिहार में सबसे ज्यादा वक्त तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड नीतीश बहुत पहले ही अपने नाम दर्ज कर चुके हैं.
बिहार में नीतीश के इर्द-गिर्द राजनीति
2005 से बिहार की राजनीति जेडीयू नेता नीतीश के इर्द-गिर्द ही घूम रही है. इस दौरान सूबे के सियासी समीकरणों में कई फेरबदल हुए, लेकिन एक चीज जो स्थायी रहा, वो है नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री बने रहना. इस अवधि में मई 2014 से फरवरी 2015 के बीच महज़ 9 महीने के लिए जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री रहे थे, वो भी नीतीश कुमार की मर्जी से ऐसा संभव हो पाया था. नीतीश बिहार में 16 साल से ज्यादा वक्त तक मुख्यमंत्री रहे हैं और ये भी विडंबना ही है कि इस दौरान वे विधानसभा सदस्य नहीं, बल्कि विधान परिषद सदस्य के तौर पर मुख्यमंत्री रहे हैं.
सियासी दांव-पेंच में माहिर हैं नीतीश
जेडीयू नेता उपेन्द्र कुशवाहा पिछले कुछ दिनों से बगावती तेवर में दिख रहे हैं. वे खुलेआम नीतीश की सत्ता को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं. इसके बावजूद नीतीश के माथे पर कोई शिकन नज़र नहीं आ रही. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है नीतिश का सियासी दांव-पेंच, जिसे वक्त के साथ बदलने में वे पिछले 17 साल से माहिर रहे हैं.
जेडीयू-बीजेपी या जेडीयू-आरजेडी का नहीं है तोड़!
विधानसभा चुनाव के नजरिए से बिहार में दो तरह के सियासी समीकरण अपने आप में इतने मजबूत हैं कि उस समीकरण की काट खोजना बेहद मुश्किल काम है. अक्टूबर-नवंबर 2005 से हुए अब तक के 4 विधानसभा चुनाव के नतीजे इस दावे को और भी पुष्ट करते हैं. पहला समीकरण है जेडीयू-बीजेपी का गठबंधन और दूसरा समीकरण है जेडीयू-आरजेडी का गठबंधन. पिछले चार चुनाव में ऐसा ही होते रहा है कि इन दोनों में से जो भी समीकरण बना है, सत्ता की चाबी उसी गठबंधन को मिली है. इसमें सबसे दिलचस्प बात है कि पिछले 17 साल में नीतीश इन दोनों समीकरणों को अपने पक्ष में साधने में कामयाब रहे हैं. फिलहाल नीतीश को आरजेडी का साथ मिला हुआ है और वे बखूबी इस बात को समझते हैं कि जबतक जेडीयू-आरजेडी का गठबंधन बरकरार है, तब तक इस गठबंधन को विधानसभा चुनाव में हराना किसी भी पार्टी या गठबंधन के लिए टेढ़ी खीर है. तेजस्वी यादव के मजबूत कंधे का सहारा मिले होने की वजह से नीतीश फिलहाल निश्चिंत मुद्रा में नजर आ रहे हैं.
बीजेपी से हाथ मिलाकर लालू को दी मात
1993-94 तक लालू यादव के साथ कदमताल करते हुए बिहार की राजनीति में नीतीश आगे बढ़ रहे थे, लेकिन 1994 में उनकी राहें जुदा हो गई. 1995 के विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी अपने दम पर कुछ ख़ास नहीं कर पाई. उसके बाद बिहार की सत्ता से लालू यादव की पार्टी का राज खत्म करने के लिए नीतीश ने बीजेपी से हाथ मिला लिया. उन्हें समझ आ चुका था कि कमजोर होती कांग्रेस का फायदा तभी उठा सकते हैं, जब बीजेपी को अपने साथ लाया जाए. 2000 के विधानसभा चुनाव नतीजों में दिखा कि आने वाले वक्त में नीतीश-बीजेपी का गठजोड़ ही लालू यादव के समीकरणों की काट है और फरवरी 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश-बीजेपी की जोड़ी ने आरजेडी के विजय रथ को रोककर 15 साल के लालू-राबड़ी राज का खात्मा कर दिया. इस चुनाव में जेडीयू को 14.55 % और बीजेपी को करीब 11 फीसदी वोट मिले. वहीं आरजेडी को 25 फीसदी वोट हासिल हुए. बहुमत तो किसी पाले को नहीं मिल पाई, इस वजह से करीब 9 महीने बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू रहा. लेकिन इस चुनाव से साफ हो गया कि जेडीयू-बीजेपी गठबंधन के आगे आरजेडी-कांग्रेस का टिकना अब संभव नहीं है. ये नीतीश का ही सियासी दांव-पेंच था जिससे प्रदेश की सत्ता की चाबी बहुत ही जल्द नीतीश के पास आने वाली थी.
नीतीश वोट का गणित बेहतर समझते हैं
अक्टूबर-नवंबर 2005 में बिहार में फिर से विधानसभा चुनाव हुए. इस बार नीतीश-बीजेपी ने मिलकर दिखा दिया कि इस समीकरण के जरिए वे लंबे वक्त तक बिहार की राजनीति के सिरमौर बने रह सकते हैं. जेडीयू 88 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी और बीजेपी 55 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी. वहीं आरजेडी सिमटकर 54 सीटों पर जा पहुंची. कांग्रेस महज़ 9 सीट ही जीत पाई. नीतीश को पता था कि सूबे के सवर्णों का अब कांग्रेस से पूरी तरह से मोहभंग हो चुका है और वे बीजेपी के वोटर बन चुके हैं. वे इस दांव-पेंच को समझते हुए बीजेपी के साथ मिलकर स्पष्ट बहुमत हासिल करने में सफल रहे. जेडीयू को 20.46% और बीजेपी को 15.65% वोट हासिल हुए. वहीं आरजेडी का वोट शेयर भी गिरकर 23.45% पर जा पहुंचा. आरजेडी के सहयोगियों खासकर कांग्रेस के जनाधार में लगातार गिरावट ने नीतीश-बीजेपी के लिए संजीवनी बूटी का काम किया. यहीं वो चुनाव था जिसके बाद से नीतीश कुमार पूरी निश्चिन्तता के साथ बिहार की सत्ता पर काबिज हो गए और ये बदस्तूर अभी तक जारी है.
2010 में भी नीतीश ने दिखाया दम
2010 विधानसभा चुनाव में भी नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ गठबंधन जारी रखा. इस बार तो नीतीश-बीजेपी के गठजोड़ ने ऐसा कमाल दिखाया कि आरजेडी को राम विलास पासवान के साथ का भी कोई फायदा नहीं मिला. जेडीयू और बीजेपी ने मिलकर बिहार की 243 में से 206 सीटों पर कब्जा जमा लिया. आरजेडी सिर्फ 22 सीटें जीत सकी. वहीं उस वक्त आरजेडी की सहयोगी एलजेपी को 3 सीटें मिली. वोट शेयर की बात करें, तो जेडीयू को 22.58%, बीजेपी को 16.49% और आरजेडी को 18.84% वोट हासिल हुए. जेडीयू-बीजेपी का साझा वोट बैंक इतनी बड़ी ताकत बन गई कि ऐसा लगने लगा कि भविष्य में इस समीकरण की काट खोजना मुश्किल होगा.
2015 में नीतीश का नया सियासी दांव
लेकिन 2015 में नीतीश ने फिर से नया सियासी दांव खेला और बिहार के सामने एक नया मजबूत समीकरण रख दिया. उससे पहले 2013 में नीतीश ने बीजेपी के साथ 17 साल से चली आ रही दोस्ती को तोड़ दिया था. उस वक्त नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने को मुद्दा बनाकर नीतीश कुमार ने एनडीए से किनारा कर लिया था. 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को एहसास हो गया था कि बिहार की राजनीति में अकेले दम पर खड़े रहना नामुमकिन है. 2014 के आम चुनाव में नीतीश न तो बीजेपी धड़े का हिस्सा थे और न ही आरजेडी धड़े का. इसी का नतीजा था कि करीब 16 फीसदी वोट मिलने के बावजूद नीतीश की पार्टी सिर्फ दो ही लोकसभा सीट पर चुनाव जीत सकी.
2015 में बनाया नया समीकरण
इससे सबक लेते हुए 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश ने आरजेडी और कांग्रेस से मिलकर महागठबंधन बना लिया और बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए को चुनौती देने का फैसला किया. 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बन चुकी थी. हर जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम की धूम थी. तमाम चुनावी सर्वे में भी बताया जा रहा था कि 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बड़ी जीत मिलेगी. लेकिन नीतीश के दांव के आगे ये सारे अनुमान धरे के धरे रह गए. आरजेडी 80 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी और उसकी सहयोगी जेडीयू को 71 सीट और कांग्रेस को 27 सीटों पर जीत मिली. वहीं बीजेपी सिर्फ़ 53 सीटों पर सिमट गई. आरजेडी को 18.4% और जेडीयू को 16.8% और कांग्रेस को 6.7% वोट मिले जबकि बीजेपी के खाते में सबसे ज्यादा 24.4% वोट गए. लेकिन महागठबंधन की साझा ताकत के आगे बीजेपी की एक नहीं चली. इस चुनाव से ही पहली बार ये बात सामने निकल कर आई कि जेडीयू-बीजेपी की तरह ही जेडीयू-आरजेडी गठबंधन भी बिहार में कारगर और अभेद्य गठजोड़ है. नीतीश की ही राजनीतिक सूझ-बूझ थी कि महागठबंधन में कम सीट लाने के बावजूद वहीं 2015 में भी बिहार के मुख्यमंत्री बने.
2017 के दांव का 2019 में दिखा असर
जुलाई 2017 में फिर से नीतीश ने बिहार की राजनीति में अपना पैंतरा बदला. आरजेडी नेता और डिप्टी मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप को मुद्दा बनाकर उनसे इस्तीफे की मांग की. तेजस्वी के इस्तीफा देने से इंकार करने को बहाना बनाते हुए नीतीश कुमार ने 26 जुलाई 2017 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. इसके अगले दिन सुबह-सुबह फिर से बीजेपी के साथ गठजोड़ कर नई सरकार बनाते हुए नीतीश मुख्यमंत्री बन गए. नीतीश का ये सियासी दांव 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए चला गया था. इसका असर भी 2019 के आम चुनाव में देखने को मिला और बीजेपी-जेडीयू के साथ से एनडीए गठबंधन ने राज्य की 40 में से 39 लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया. नीतीश के इस दांव के जरिए जेडीयू ने 21.81% वोट के बावजूद 16 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर ली, जो पिछली बार के मुकाबले जेडीयू के लिए 14 सीटें ज्यादा थीं. बीजेपी को 23.58% वोट के साथ 17 सीटों पर और सहयोगी एलजेपी को करीब 8 फीसदी वोट के साथ 6 सीटों पर जीत मिली. वहीं आरजेडी को अपने 15.36% और कांग्रेस के 7.7% वोट भी एक सीट नहीं दिला सके. महागठबंधन की तरफ से कांग्रेस सिर्फ एक लोकसभा सीट किशनगंज पर जीत सकी. यहां ये दिखा कि बीजेपी-जेडीयू के साथ का काट आरजेडी-कांग्रेस के पास कतई नहीं है.
2020 में भी बीजेपी के साथ रहे नीतीश
2020 का विधानसभा चुनाव भी नीतीश ने बीजेपी के साथ मिलकर ही लड़ा. इस बार तो उन्होंने वो कर दिखाया जिसके बारे में राजनीति में सोचना सबके बस की बात नहीं होती. बीजेपी-जेडीयू के साथ से एनडीए गठबंधन 125 सीटों पर जीतकर बहुमत हासिल करने में कामयाब रही, लेकिन नीतीश की पार्टी सिर्फ 43 सीट ही जीत सकी और बीजेपी 74 सीट लाने में कामयाब रही. आरजेडी 75 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. सीटों के लिहाज़ से जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. इसके बावजूद बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की सरकार में नीतीश ही मुख्यमंत्री बने. इसके जरिए नीतीश ने साबित कर दिया कि सिर्फ चुनावी गणित को साधने में ही वे माहिर नहीं हैं, बल्कि पॉलिटिकल केमेस्ट्री का अपने लिहाज से इस्तेमाल करना भी बखूबी जानते हैं.
2022 में नीतीश ने चला नया दांव
अगस्त 2022 आते-आते नीतीश कुमार के दिमाग में कुछ नया करने का विचार आया. 9 अगस्त 2022 को नीतीश ने एक बार फिर से बीजेपी से पल्ला झाड़ लिया और आरजेडी से हाथ मिला लिया. सबसे मजेदार बात थी कि 10 अगस्त को बिहार में जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी तो, मुख्यमंत्री नीतीश ही बने. वोट शेयर के आधार पर बात करें तो जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस का जोड़ बिहार में बेहद मजबूत गठबंधन बन जाता है. 2020 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के हिसाब से इन तीनों के वोट शेयर मिला दें तो वो करीब 48 फीसदी हो जाता है. वहीं 2019 के लोक सभा चुनाव के हिसाब से इन तीनों का साझा वोट शेयर करीब 45 फीसदी हो जाता है. नीतीश इस जनाधार को अब अपने नए मिशन में इस्तेमाल करना चाहते हैं.
बिहार के जरिए केंद्र पर निगाहें
2022 में बीजेपी से अलग होकर आरजेडी के साथ जाने का नीतीश ने जो दांव चला, उसके पीछे की मंशा केंद्र की राजनीति पर नज़र है. 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश देख चुके थे कि जेडीयू, बीजेपी, एलजेपी गठबंधन की बदौलत राज्य की कमोबेश सभी लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की जा सकती है. उन्हें इस बात का एहसास है कि यहीं करिश्मा जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन भी कर सकती है. इस सियासी दांव को नीतीश 2024 के लोकसभा चुनाव में आजमाना चाहते हैं. दरअसल 71 साल के नीतीश कुमार की नज़र अब प्रधानमंत्री पद पर टिकी है. उन्हें भलीभांति पता है कि बीजेपी के साथ गठबंधन रखकर इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है. इस बारे में अगर सिर्फ़ सोचना भी है तो ये बीजेपी के विरोधी खेमे में जाकर ही मुमकिन हो सकता है. केंद्र की राजनीति में कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है और बीजेपी को केंद्र की राजनीति में अगर कोई टक्कर दे सकता है तो इसके लिए साझा विपक्ष की जरूरत होगी. ऐसे में अगर बिहार से नीतीश-तेजस्वी गठबंधन जितना ज्यादा सीट लाएगी, नीतीश के लिए केंद्र में साझा विपक्ष की संभावना बनने पर उतना ही फायदेमंद हो सकता है. हालांकि ये अलग मुद्दा है कि बीजेपी के खिलाफ साझा विपक्ष की अवधारणा साकार रूप लेगी या नहीं.
नीतीश को लगने लगा है कि बिहार में बीजेपी की तुलना में अब आरजेडी के साथ गठबंधन ज्यादा फायदेमंद है. 2025 के चुनाव से पहले 2024 में लोकसभा चुनाव होना है. ऐसे में नीतीश ये देखना चाहते हैं कि लोकसभा के नजरिए से जेडीयू-आरजेडी गठबंधन की हैसियत कितनी है क्योंकि विधानसभा के नजरिए से इस गठबंधन की हैसियत 2015 के चुनाव में सबने देखा था. लोकसभा में इस गठबंधन की परीक्षा अभी बाकी है. 2015 विधानसभा चुनाव से आरजेडी की ताकत भी बिहार में लगातार बढ़ रही है और जेडीयू नेता नीतीश कुमार अब इस ताकत के जरिए आने वाले कुछ सालों तक बिहार की राजनीति के सिरमौर बनकर रहना चाहते हैं. जातीय समीकरण के लिहाज से भी जेडीयू-आरजेडी गठबंधन काफी मजबूत हो जाती है और आने वाले दिनों में नीतीश इसे ही सबसे बड़ी ताकत मान रहे हैं. जब तक तेजस्वी यादव की ओर से नीतीश के लिए कोई खतरा पैदा नहीं होता है, तब तक नीतीश का हर दांव बिहार की सत्ता के लिहाज से सही नज़र आ रहा है. ऐसे भी भविष्य में नीतीश के लिए बीजेपी के पास जाने का रास्ता खुला है. अतीत में चाहे नीतीश कुछ भी बोलते रहे हों, अपनी सियासी फायदे-नुकसान के लिहाज से पाला बदलने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगता, ये पूरी दुनिया पिछले 10 साल से देखते आ रही है.
नीतीश कुमार की आलोचना चाहे जिस रूप में लोग करें, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि पिछले 17 साल से उनके सियासी दांव-पेंच नीतीश के लिए हमेशा कारगर रहे हैं.
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