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Opinion: नीतीश के मुताबिक़ ही होगा बिहार में सीट बँटवारा, तेजस्वी यादव की है मजबूरी, नहीं तो....

बिहार में राजनीतिक हलचल तेज़ है. जेडीयू अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का अगला रुख़ क्या होगा, इसको लेकर पल-पल कयास और अटकलों का दौर जारी है. इन अटकलों से आरजेडी नेता और प्रदेश के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की मुश्किलें बढ़ गयी हैं.

दरअसल बिहार की सियासत में अभी गरमाहट की सबसे बड़ी वज्ह आगामी लोक सभा चुनाव में जेडीयू-आरजेडी के बीट सीट बँटवारे के मसले पर खींचतान है. बिहार में कुल 40 लोक सभा सीट है. कहा जा रहा है कि विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के बैनर तले नीतीश प्रदेश में 17 सीट अपनी पार्टी जेडीयू के लिए चाहते हैं. वहीं आरजेडी के लिए प्रदेश के मौजूद राजनीतिक हालाता को देखते हुए इस पर राजी होना आसान नहीं है.

नीतीश कुमार को लेकर तेजस्वी की परेशानी

इन सबके बावजूद तेजस्वी यादव की परेशानी का कारण नीतीश कुमार का रुख़ है. सीट बँटवारे पर जारी बातचीत के बीच पिछले कुछ दिनों से जेडीयू के नेताओं की ओर से जिस तरह के बयान आने शुरू हो गए हैं, उससे स्पष्ट है कि सीट बँटवारे की रस्साकशी नीतीश-तेजस्वी के बीच सब कुछ ठीक नहीं है या पहले की तरह नहीं है.

हाल ही में लालू प्रसाद यादव का बयान आया था कि सीट बँटवारे पर इतनी जल्दी फ़ैसला नहीं हो जाता है. उनके इस बयान के बाद ही अंदाज़ा लगाया जाने लगा कि जेडीयू को नीतीश के मनमुताबिक़ सीट देने पर तेजस्वी यादव उलझन में हैं. इस बीच बीजेपी के वरिष्ठ नेता अमित शाह के नीतीश कुमार को लेकर हालिया बयान से भी तेजस्वी यादव के लिए परिस्थिति और कठिन हो गयी है.

बीजेपी की भी है नीतीश कुमार पर नज़र

पिछले कुछ दनों तक बीजेपी का कहना था कि अब नीतीश के लिए एनडीए का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो गया है. इस बीच हाल ही में अमित शाह ने कहा था कि राजनीति में जो और तो से काम नहीं होता है. नीतीश जैसे पुराने साथियों के फिर से एनडीए में आने के सवाल पर उन्होंने स्पष्ट तौर से कहा था अगर किसी का प्रस्ताव आएगा, तब विचार किया जाएगा. बिहार में तेज़ होती सियासी हलचल को देखते हुए अमित शाह का बयान ख़ास मायने रखता है. अमित शाह का बयान ऐसे वक़्त पर आया, जब सीट बँटवारे को लेकर जेडीयू-आरजेडी के बीच तनातनी एक तरह से खुलकर सामने आने लगी.

जेडीयू का जनाधार कम लेकिन महत्व बरक़रार

यह बिहार की राजनीति की वास्तविकता है कि पिछले कुछ सालों से नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू का जनाधार लगातार कम हुआ है. इसके बावजूद नीतीश कुमार जिस तरह की राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं, उसके मद्द-ए-नज़र तेजस्वी यादव के लिए अपनी बात पर अड़े रहना बेहद मुश्किल है. नीतीश कुमार की राजनीति का मुख्य आधार 'पाला या गुट बदल देना' रहा है. यह हम सब भी जानते हैं और इससे तेजस्वी यादव भी ब-ख़ूबी परिचित होंगे. अतीत में कई बार ऐसा करके ही नीतीश कुमार पिछले 18 साल से बिहार की राजनीति के सिरमौर बने हुए हैं और प्रदेश की सत्ता पर लगातार जेडीयू को बिठाए हुए हैं. मनमुताबिक़ चीज़ें नहीं होने पर नीतीश रातों-रात पाला बदल देते हैं, अतीत में इस तरह के उदाहरण भरे पड़े हैं.

रातों-रात पाला बदलने में माहिर हैं नीतीश

चाहे 2013 हो, जब नीतीश कुमार ने बीजेपी से पल्ला झाड़ लिया था या फिर 2015 का विधान सभा चुनाव हो , जिसमें नीतीश कुमार ने लालू प्रयाद यादव का हाथ थामने में तनिक भी देर नहीं की थी. उसी तरह से जुलाई 2017 में आरजेडी से नाता तोड़कर बीजेपी के साथ फिर से सरकार बनाने में नीतीश कुमार को वक़्त नहीं लगा था. नीतीश कुमार इतना ही पर नहीं रुके. अगस्त 2022 में एक बार फिर से उन्होंने बीजेपी से पल्ला झाड़ा और रातों-रात तेजस्वी यादव से हाथ मिलाने में तनिक भी देर नहीं की. इस तरह से नीतीश कुमार 24 नवंबर 2005 या'नी 18 साल से भी अधिक समय से जेडीयू को बिहार की सत्ता से हटने नहीं दे रहे हैं. जबकि विधान सभा चुनावों में उनकी पार्टी के प्रदर्शन का ग्राफ और प्रदेश में जनाधार लगातार नीचे की ओर जा रहा है.

नीतीश कब क्या करेंगे, कोई नहीं जानता

अतीत के उदाहरण से साफ है कि नीतीश कुमार ने रातों-रात पाला बदलने को अपना राजनीतिक हथियार बना रखा है और जिसका असर भी धारदार तरीक़े से हर बार होते आया है. नीतीश कुमार कब पाला बदल लें, इसके बारे में राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर प्रदेश की जनता को भी पूर्व से कोई भान नहीं होता है.

हर बार बीजेपी में जाने पर नीतीश कुमार आरजेडी की जमकर आलोचना करते हैं और भविष्य में कभी भी लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव से राजनीतिक गठबंधन नहीं करने का संकल्प भी दोहराते हैं. कुछ ऐसा ही संकल्प वे आरजेडी के साथ जाने पर बीजेपी को लेकर भी करते हैं. इसके बावजूद हर दो-तीन साल पर राजनीतिक महत्वाकांक्षा और सत्ता पर विराजमान रहने की चाहत के आगे नीतीश कुमार का संकल्प नेपथ्य में जाते रहा है. दरअसल नीतीश कुमार का संकल्प राजनीतिक अधिक होता है, वास्तविक कम, अतीत में उनके रुख़ से यही कहा जा सकता है.

तेजस्वी यादव के पास कोई और विकल्प नहीं

प्रदेश की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में  सीट बँटवारे पर नीतीश कुमार की बात मानने के सिवाए तेजस्वी यादव के पास कोई और विकल्प नहीं है. अगर तेजस्वी यादव ऐसा नहीं करते हैं, तो नीतीश कुमार कब पलटी मार लेंगे, इसका कोई भरोसा नहीं है. तेजस्वी यादव के सामने फ़िलहाल दो चुनौती है. एक तो आरजेडी को लोक सभा चुनाव के नज़रिये से बिहार की सबसे बड़ी पार्टी बनाना है. इसी से जुड़ी दूसरी चुनौती है बिहार में बीजेपी के साथ ही एनडीए को आगामी लोक सभा चुनाव में पूरे देश में सबसे ज़ियादा नुक़सान पहुँचाना. इन दोनों चुनौती से पार पाने के लिए फ़िलहाल नीतीश कुमार आरजेडी के लिए मजबूरी हैं.

आरजेडी की राजनीति बिहार में उफान पर

बिहार की राजनीति में आरजेडी का 2005 तक वर्चस्व रहा था. लालू प्रसाद यादव की राजनीति 1990 से लेकर 2005 तक बिहार में खू़ब चमकी थी. उसके बाद जेडीयू-बीजेपी के गठजोड़ से आरजेडी की प्रासंगिकता बिहार की राजनीति में कम होने लगी. हालाँकि तेजस्वी यादव ने पिछले कुछ साल में परिस्थितियाँ बदलने में कामयाबी हासिल की है, जिसकी वज्ह से फ़िलहाल आरजेडी की राजनीति बिहार में उफान पर है. ख़ुद तेजस्वी यादव प्रदेश के एक बड़े तबक़े में बहुत ही तेजी से लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरे हैं.

कुछ साल में तेजस्वी की लोकप्रियता बढ़ी है

आरजेडी अगस्त 2022 से जेडीयू के साथ प्रदेश की सरकार में हैं. भले ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हों, इसके बावजूद पिछले कुछ महीनों में बिहार सरकार की ओर से नौकरी से लेकर बाक़ी मोर्चों पर जो कुछ भी बड़ा काम या एलान हुआ है, उसका अधितकर श्रेय बतौर उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव लेने में सफल हुए हैं. कम से कम प्रदेश के लोगों में इस तरह का संदेश प्रसारित करने में आरजेडी कामयाब होती दिखी है.

विकास के मोर्चे पर भले ही बिहार अभी भी देश के बाक़ी राज्यों की तुलना में बेहद दयनीय स्थिति में है, लेकिन तेजस्वी यादव पिछले तीन-चार साल में आरजेडी की छवि को बदलने में जुटे रहे हैं और काफ़ी हद तक उन्हें इसमें कामयाबी भी मिलती दिखी है. यह वास्तविकता है कि 1990 से 2005 तक 15 साल लगातार लालू प्रसाद यादव परिवार के बिहार की सत्ता पर क़ाबिज़ होने की अवधि में आरजेडी की छवि प्रदेश के लोगों में बिगड़ने लगी थी. जंगल राज के आरोपों से लेकर चारा घोटाले में लालू प्रसाद की संलिप्तता से आरजेडी को काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा था.

आरजेडी की छवि को बदलने में जुटे तेजस्वी

हालाँकि तेजस्वी यादव ने धीरे-धीरे पार्टी को लालू प्रसाद यादव की छत्रछाया से  बाहर निकालकर ले गए. अतीत में आरजेडी को लेकर जो छवि बन गयी थी, पार्टी के सर्वेसर्वा के तौर उसमें भी सुधार लाने के लिए पिछले तीन-चार साल में तेजस्वी यादव ने कड़ी मेहनत की. इसी का नतीजा था कि 2020 के विधान सभा चुनाव में भी जेडीयू-बीजेपी के एक साथ रहने के बावजूद आरजेडी 75 सीट लाकर सबसे बड़ी पार्टी बनने में कामयाब हुई. आरजेडी का वोट शेयर भी सबसे अधिक 23.11% रहा था. जहाँ बीजेपी और जेडीयू दोनों के ही वोट शेयर में गिरावट आई थी, वहीं इस चुनाव में आरजेडी के वोट शेयर में तक़रीबन पाँच फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ था.

तेजस्वी के प्रयास का 2020 में दिखा था असर

विधान सभा चुनाव, 2020 में आरजेडी का यह प्रदर्शन एक और पहलू की वज्ह से महत्वपूर्ण था. इस चुनाव से पहले   2019 के लोक सभा चुनाव में 15.36% वोट हासिल करने के बावजूद आरजेडी खाता तक नहीं खोल पाई थी. इस चुनाव में वोट शेयर के मामले में आरजेडी..बीजेपी और जेडीयू के बाद तीसरे पायदान पर थी.

विधान सभा चुनाव की बात करें, तो, 2020 में आरजेडी सबसे अधिक सीट और सबसे अधिक वोट शेयर पाने वाली पार्टी थी. इसमें बीजेपी-जेडीयू के एक पाले में होने के बावजूद आरजेडी का वोट शेयर 23.11% था. इसके विपरीत 2015 के विधान सभा चुनाव में जेडीयू के साथ गठबंधन में रहने के बावजूद आरजेडी का वोट शेयर 18.4% ही रहा था. विधान सभा चुनाव, 2010 आरजेडी का वोट शेयर 18.84% था. इस समय भी जेडीयू-बीजेपी मिलकर चुनाव लड़ी थी.

उसी तरह से 2009 के लोक सभा चुनाव में आरजेडी भले ही 4 सीट ही जीत पाई थी, लेकिन उसका वोट शेयर 19 फ़ीसदी से अधिक रहा था. आरजेडी को 2014 में भी 4 लोक सभा सीट पर जीत मिली थी और उसका वोट शेयर 20 फ़ीसदी के ऊपर था, जबकि 2019 में किसी सीट पर जीत भी नहीं मिली और वोट शेयर भी गिरकर 15.36% पर पहुँच गया था.

तेजस्वी यादव ने 2019 के लोक सभा चुनाव में बुरी तरह से मिली हार के बाद आरजेडी को नया कलेवर देने में जुट गए थे. इसके तहत ही 2020 के विधान सभा चुनाव में पार्टी के पोस्टर, बैनर और होर्डिंग के साथ प्रचार अभियान में लालू प्रसाद यादव के नाम और तस्वीर को नेपथ्य में गया. तेजस्वी यादव पार्टी कार्यकर्ताओं को लगातार यह संदेश देते रहे हैं कि प्रदेश के लोगों के बीच आरजेडी की छवि सुधारने पर ज़ोर हो. बाक़ी और फैक्टर के साथ तेजस्वी यादव की मेहनत और रणनीति का ही असर था कि जेडीयू-बीजेपी की जुगल-बंदी के बावजूद आरजेडी इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी.

प्रदेश में माहौल तेजस्वी के पक्ष में अधिक है

इसके बाद से तेजस्वी यादव ने हर वो रणनीति अपनायी है, जिससे प्रदेश में आरजेडी को लेकर लोगों का भरोसा और बढ़े. वे अपने पिता लालू प्रसाद यादव के तर्ज़ पर ही बीजेपी पर मुखरता से और हमलावर होने के साथ ही प्रदेश के युवाओं के लिए लगातार कुछ करने के जज़्बे  को बेहतर तरीक़े से मीडिया में प्रसारित करने में कामयाब हुए. अगस्त 2022 से सरकार का हिस्सा बनने के बाद उन्होंने युवाओं के लिए रोजगार को लेकर किए गए अपने वादों को पूरा करने की दिशा में धीरे-धीरे क़दम उठाने के लिए प्रयास किए.

इस बीच पिछले साल बिहार में जातिगत गणना का भी काम पूरा हुआ. ऐसे तो यह नीतीश कुमार की मंशा थी, लेकिन तेजस्वी यादव के सरकार का हिस्सा बनने के बाद ही पिछले साल यह काम पूरा हो सका. आरजेडी ने इसे भी मसला बनाकर अपनी स्थिति मज़बूत की है. ऐसे भी जातीय गणना का सबसे अधिक लाभ चुनाव में मिलने की संभावना अगर किसी दल को है, तो, वो आरजेडी ही है.

बिहार में आरजेडी के लिए परिस्थिति अनुकूल

कुल मिलाकर आगामी आम चुनाव में बिहार में आरजेडी के लिए परिस्थितियाँ बेहद अनुकूल हैं. ऐसे में नीतीश कुमार अगर पाला बदल लेते हैं, तो तेजस्वी यादव के लिए लोक सभा चुनाव में आरजेडी को स्थापित करना पिछली बार की तरह ही मुश्किल हो सकता है. अगर अकेले दम पर राजनीतिक हैसियत की बात करें, तो फ़िलहाल आरजेडी...बीजेपी और जेडीयू दोनों पर बीस की स्थिति में है. लेकिन जैसे ही बीजेपी के साथ जेडीयू जुड़ जाती है, तो फिर आरजेडी का पलड़ा काफ़ी हल्का हो जाएगा. प्रदेश की राजनीतिक स्थिति को देखते हुए, इसकी भरपूर गुंजाइश बन सकती है.

नुक़सान का ख़तरा नहीं मोल ले सकते तेजस्वी

ऐसे भी बिहार की राजनीति में विकास का मुद्दा या हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर ध्रुवीकरण उतना कारगर साबित नहीं होता है. यहाँ की राजनीति जातियों के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है. चाहे विधान सभा हो या फिर लोक सभा...पिछले कई चुनाव से पार्टियों की रणनीति भी जातिगत समीकरणों को साधने पर ही केंद्रित रही है. राजनीति पर, वोटिंग पैटर्न पर जाति के हावी होने की वज्ह से ही बिहार में दो तरह का गठबंधन बन जाने पर विरोधी दल के लिए चुनावी लड़ाई जीतना नामुमकिन हो जाता है. या तो बीजेपी-जेडीयू का गठबंधन हो जाए..या जेडीयू-आरजेडी मिलकर चुनाव लड़े..इन दोनों में से कोई भी स्थिति बनने पर सामने वाले का जीतना आसान नहीं है.

2019 जैसी स्थिति होने पर आरजेडी को हानि

अगर तेजस्वी यादव ने सीट बँटवारे में नीतीश कुमार की बात नहीं मानी और नीतीश पाला बदलकर बीजेपी के साथ जुड़ जाते हैं तो बिहार में फिर से 2019 के लोक सभा चुनाव जैसा गठबंधन हो जाएगा. इस गठबंधन से पार पाना शायद तेजस्वी यादव के लिए मुश्किल हो जाए और पिछले प्रदर्शन को दोहराने या आस-पास पहुंचने में एनडीए को कामयाबी भी मिल सकती है. पिछली बार एनडीए ने बिहार में 40 में से 39 सीट पर क़ब्ज़ा कर लिया था, जिसमें बीजेपी को 17, जेडीयू को 16 और राम विलास पासवान की एलजेपी को 6 सीट पर जीत मिली थी.

नीतीश को किसी दल से परहेज़ नहीं रहा है

नीतीश इस समीकरण का भी हमेशा ही फ़ाइदा उठाते आए हैं. बीजेपी और आरजेडी कभी एक साथ आ नहीं सकती है और नीतीश बीजेपी के साथ भी जा सकते हैं और आरजेडी के साथ भी. उन्हें न तो बीजेपी से परहेज़ रहा है और न ही आरजेडी से, यह अब किसी से छिपी हुई बात नहीं है. नीतीश कुमार को यह भी पता है कि अगर तेजस्वी मनमुताबिक़ सीट या'नी 17 पर राज़ी नहीं होते हैं, तो उन्हें एनडीए में जाने से इतनी सीट लड़ने के लिए मिल सकती है.  ऐसे भी 2014 में अकेले दम पर लड़ने के के कारण जेडीयू महज़ दो लोक सभा सीट जीत पाई थी, लेकिन उसके बावजूद 2019  के लोक सभा चुनाव में एनडीए के तहत बीजेपी ने जेडीयू को लड़ने के लिए 17 सीट दे दी थी. इसमें से 16 सीट पर नीतीश कुमार की पार्टी जीतने में सफल भी रही थी.

लोकप्रियता घटने के बावजूद प्रासंगिकता है

बिहार के लोगों में अब न तो नीतीश कुमार की लोकप्रियता पहले जैसी रही है और न ही उनकी पार्ची जेडीयू का जनाधार वैसा है. 2020 के विधान सभा चुनाव में तो जेडीयू महज़ 43 सीट जीतकर तीसरे नंबर की पार्टी बन गयी. जेडीयू 18 साल से बिहार की सत्ता पर क़ाबिज़ है. हालाँकि इस दौरान बिहार में विकास की धारा बही हो, ऐसा भी नहीं है. आज भी बिहार शिक्षा, ग़रीबी और रोजगार जैसे मसलों पर देश का सबसे पिछड़ा राज्य बना हुआ है.  इसके बावजूद सत्ता विरोधी लहर या कहें एंटी इनकंबेंसी का भी नीतीश कुमार की सत्ता पर कभी कोई असर नहीं पड़ा है.

तेजस्वी यादव के पास नहीं है कोई चारा

सियासी और जातीय समीकरणों के लिहाज़ से पाला बदलकर हर परिस्थिति को अपने मनमुताबिक़ बनाने में नीतीश कुमार बिहार में सफल होते आए हैं. इस बार के चुनाव में अयोध्या में राम मंदिर भी एक बड़ा और प्रमुख मुद्दा रहने वाला है. बिहार में जाति के हावी होने के बावजूद बीजेपी की पूरी कोशिश रहेगी कि राम मंदिर के मुद्दे को बाक़ी राज्यों की तरह में यहाँ भी खूब प्रचारित किया जाए, ताकि जातिगत गोलबंदी को तोड़ने में मदद मिल सके. अगर ऐसा हुआ, तो, इससे भी आरजेडी को नुक़सान उठाना पड़ सकता है.

ऐसे में तेजस्वी नहीं चाहेंगे कि नीतीश आरजेडी को छोड़कर बीजेपी के साथ जाएं. हालाँकि राजनीति में कुछ स्थायी या फिक्स नहीं होता है. इसलिए नीतीश कुमार के साथ ही सबकी नज़र तेजस्वी यादव के रुख़ पर ही टिकी है. अमित शाह ने अपने बयान ने नीतीश कुमार को लेकर सियासी दाँव चल ही दिया है. बीजेपी भी चाहती है कि बिहार में एनडीए को नुक़सान की जो सबसे अधिक संभावना है, उसको कम करने के लिए आरजेडी से जेडीयू को अलग होना ज़रूरी है.

बिहार में बीजेपी के पक्ष में दो विकल्प है. या तो नीतीश बीजेपी के साथ आ जाएं..या फिर आरजेडी से अलग होकर अकेले दम पर चुनाव लड़ें. ये दोनों ही विकल्प होने पर बीजेपी को बिहार में नुक़सान की संभावना एक तरह से ख़त्म हो जाएगी. तेजस्वी यादव के लिए यह भी एक तरह से राजनीतिक परीक्षा की तरह ही है कि कैसे वे नीतीश कुमार को आरजेडी के साथ बनाए रखें.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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