आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार को सियासी हलकों में "सुशासन बाबू" कहा जाता है और अब तक तो उनकी सरकार को कमोबेश सुशासन देने वाली सरकार ही समझा जाता रहा है. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि नया गठबंधन करते ही उसी सरकार ने हाथ में तिरंगा झंडा लिए निहत्थे नौजवानों पर लाठियां बरसाकर अंग्रेज हुकूमत की याद दिला डाली?


ज्यादा हैरानी ये है कि पुलिस के किसी अदने-से सिपाही ने ये हरक़त नहीं की है बल्कि कानून को लागू करने-करवाने वाले एक एडीएम केके सिंह ने इस करतूत को अंजाम दिया है. देश के लोगों ने तमाम न्यूज़ चैनलों पर इस तस्वीर को देखा कि गलती किसकी है लेकिन सरकार की ढिठाई देखिये कि उसने कह दिया कि जांच पूरी होने के बाद ही दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी. बड़ा सवाल ये है कि नीतीश सरकार को विभिन्न न्यूज़ चैनलों के वीडियो से बड़ा सबूत और क्या चाहिये और वह अपने एक एडीएम को बचाने के लिए अपनी फ़जीहत आख़िर क्यों करा रही है?


दरअसल, बिहार की राजधानी पटना में सोमवार को शिक्षक अभ्यर्थियों ने सातवें चरण की बहाली की मांग को लेकर प्रदर्शन किया था, जहां पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर जमकर लाठियां भांजी. पुलिस के इस क्रूर बर्ताव से कई अभ्यर्थियों को चोट लगी, तो उनमें से कइयों के सिर तक फट गए. तस्वीरों में उनके लहूलुहान सिर देखे गये. बीते 21 दिनों से गर्दनीबाग धरनास्थल पर धरना दे रहे 2019 के ये क्वालीफाई शिक्षक अभ्यर्थी डाक बंगला चौराहा पहुंचे थे, जहां पुलिस-प्रशासन ने सभी अभ्यर्थियों को रोक लिया था और वहीं खाकी वर्दी ने अपनी पूरी ताकत देश को दिखा दी कि वह सिर्फ और सिर्फ अपने हुक्मरानों के फ़रमान पर अमल करती है. इन शिक्षक अभ्यर्थियों की मांग थी कि सरकार उन्हें बहाल करने की प्रक्रिया बगैर किसी देरी के तुरंत शुरू करे.


वैसे तो हमारे लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ उठाने का हक तो हर नागरिक को है लेकिन जमीनी हक़ीक़त ये है कि सरकार चाहे जो भी हो, वह अपने ख़िलाफ़ उठने वाली हर एक सामूहिक आवाज़ को एक बड़ा खतरा मानती है और उसे दबाने-कुचलने के लिए अपनी नौकरशाही का बेजा इस्तेमाल करने से भी नहीं कतराती है. यही सब पटना में भी दोहराया गया.


हालांकि तस्वीरों में हाथ में तिरंगा लिए हुए एक युवक की अपनी लाठी से बेरहमी से पिटाई करने वाले उस एडीएम की इस हरकत को लेकर उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने बेहद बचकानी सफाई दी है. उन्होंने कहा है कि पटना में लाठीचार्ज प्रदर्शनकारी छात्रों को नियंत्रित करने के लिए किया गया था. इसमें एडीएम को भी छात्रों पर लाठी भांजते देखा गया, लिहाजा, इस घटना को लेकर इंक्वायरी कमेटी बिठाई गई है. अगर एडीएम दोषी पाए जाते हैं, तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी.


जिस करतूत को पूरे देश ने अपनी आंखों से देखकर ये अहसास कर लिया हो कि उसमें गलत कौन कर रहा है, उसका पता लगाने के लिए सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाला सूबे का डिप्टी सीएम ये कहे कि "अगर एडीएम दोषी पाये जाते हैं, तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी". अब इसे हम लोकतंत्र का मजाक उड़ाना नहीं तो भला और क्या कहेंगे?


इस घटना से एक बात और भी साफ होती है कि एनडीए से बाहर निकलकर नए गठबंधन वाली इस सरकार में या तो आपसी संवादहीनता है या फिर नए मंत्रियों पर सीएम नीतीश कुमार का उतना नियंत्रण नहीं है कि वे उन्हें समझा सकें कि कब, कहां और क्या बोलना है. दरअसल, गलती प्रदर्शनकारियों की नहीं है. अगर ये कहा जाए कि सरकार के एक मंत्री के दिये बयान ने ही उन्हें इसके लिए उकसाया, तो गलत नहीं होगा.


छात्रों और शिक्षक भर्ती के अभ्यर्थियों के इस प्रदर्शन से एक दिन पहले ही राज्य के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने बड़ा दावा किया था. उन्होंने कहा था कि शिक्षा विभाग में साढ़े तीन लाख भर्तियां की जाएंगी. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सीएम नीतीश कुमार की घोषणा को याद दिलाते हुए उन्होंने ये भी कहा था कि मुख्यमंत्री ने जिन 20 लाख नौकरियों की बात कही है, उनमें से साढ़े तीन लाख नौकरियां अकेले शिक्षा विभाग में दी जाएंगी. शिक्षा मंत्री ने यह भी कहा कि सीएम नीतीश कुमार जो संकल्प लेते हैं, उसे जरूर पूरा करते हैं.


लेकिन शिक्षक अभ्यर्थी सरकार के मुंहजबानी ऐलान की बजाय ऑफिशियल नोटिफिकेशन जारी करने की मांग को लेकर ही प्रदर्शन कर रहे थे क्योंकि वे साल 2019 से ही नौकरी मिलने का इंतज़ार कर रहे हैं. प्रदर्शन कर रहे अभ्यर्थियों का दावा है कि बिहार के प्राथमिक विद्यालयों में करीब डेढ़ लाख शिक्षकों के पद खाली हैं. इन तीन सालों में (साल 2019 के बाद से) और भी कई पद खाली हुये हैं. अभ्यर्थियों का दावा है कि साल 2020 के बाद से करीब 5500 स्कूलों को अपग्रेड किया गया है. लेकिन केवल 3 हजार शिक्षकों की ही बहाली हुई है.वे इन सीटों को जल्द से जल्द भरने की मांग करते हुए नई भर्ती, यानी सातवें चरण की भर्ती लाने की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि जल्द ही नोटिफिकेशन जारी किया जाये और भर्ती प्रक्रिया को ऑनलाइन और सेंट्रलाइज भी किया जाये.


उनकी इस मांग में ऐसा कुछ भी गलत नहीं दिखता कि वे किसी विपक्षी दल की शह पर सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए सड़क पर उतर आये हों. तो फिर बड़ा सवाल ये उठता है कि "सुशासन बाबू" वाली सरकार में 'कुशासन' की ऐसी अमानवीय मिसाल पेश करने का ऐसा फ़रमान आखिर किसका था?


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