Opinion: नीतीश कुमार का 75% आरक्षण सीमा बढ़ाने का दांव है मास्टरस्ट्रोक, यह बनेगा चुनाव का देशव्यापी मुद्दा
![Opinion: नीतीश कुमार का 75% आरक्षण सीमा बढ़ाने का दांव है मास्टरस्ट्रोक, यह बनेगा चुनाव का देशव्यापी मुद्दा Nitish Kumar has shown the trump card by suggesting to raise the quota of reservation Opinion: नीतीश कुमार का 75% आरक्षण सीमा बढ़ाने का दांव है मास्टरस्ट्रोक, यह बनेगा चुनाव का देशव्यापी मुद्दा](https://feeds.abplive.com/onecms/images/uploaded-images/2023/11/08/1f0347ebce3fc2bc8bab3b974e8cd5e81699431884748702_original.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=1200&height=675)
नीतीश कुमार पिछले कुछ समय से भारतीय राजनीति में बिहार के जरिए एक के बाद एक मास्टरस्ट्रोक लगाए जा रहे हैं. जातिगत जनगणना की जब बात शुरू हुई थी, तो इसको काफी चुनौती दी गयी थी. बावजूद इसके, तकनीकी तौर पर इसको सर्वेक्षण कहते हुए इसके आंकड़े भी जारी कर दिए गए. उसके बाद बिहार और पूरे देश में एक बहस ये शुरू हुई कि फलानी जाति की संख्या घट गयी, तो फलाने की बढ़ गयी. इस पर मंगलवार 7 नवंबर को नीतीश कुमार ने तार्किक जवाब दिया है कि जब अभी के पहले जातिगत गणना हुई ही नहीं (1931 के अलावा) तो कोई कैसे कह सकता है कि वह घट गया या बढ़ गया? जातिगत सर्वेक्षण के आंकड़े जारी कर नीतीश ने राष्ट्रीय राजनीति में भूचाल तो ला ही दिया.
नीतीश कुमार का मास्ट्रस्ट्रोक
विधानसभा में नीतीश ने 75 फीसदी आरक्षण की बात कह कर तुरुप का दांव चला है. भाजपा अचानक से यूनिफॉर्म सिविल कोड पर असमंजस में आ गयी. राहुल गांधी को अचानक लगा जैसे उनको अलादीन का जिन्न और जिन्न का पिटारा मिल गया है. वो पूरे देश में उस पिटारे को लेकर घूम रहे हैं. इसके बाद आरक्षण की सीमा को बढ़ाने का मास्टरस्ट्रोक है, जो निश्चित तौर पर पूरे देश में बड़ा मुद्दा बनेगा. इससे पहले भी संभावना तो थी ही कि ये लोग समाजवादी है, लोहिया के शिष्य हैं और लोहिया ने तो बहुत पहले 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' का नारा दिया था, तो यह होना ही था. ऐन चुनाव के वक्त जब लोकसभा चुनाव तीन-चार महीने में होना है, तो एक तरफ जातिगत सर्वेक्षण औऱ दूसरी तरफ आरक्षण में बढ़ोतरी, ये कहकर इन्होंने एक नया राग तो छेड़ ही दिया है. अब इसके राजनीतिक-सामाजिक निहितार्थ, पॉलिटिकल माइलेज वगैरह की व्याख्या होती रहेगी, लेकिन नीतीश कुमार ने बहुत चालाकी से कहें या तार्कित तौर से अपने पत्ते खोले हैं. वह जनता के बीच एक संदेश देने में तो सफल हो गए हैं कि वह जो मांग कर रहे हैं, वह तार्किक है.
सुप्रीम कोर्ट की सीलिंग का भी है रास्ता
नीतिश कुमार की मांग जुमला बनकर नहीं रह जाएगी. हमें नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु में अभी आरक्षण की सीमा 69 फीसदी है और सुप्रीम कोर्ट की सीलिंग जो 50 फीसदी आरक्षण की है, उसके बाद भी यह किया गया है, यानी इसका रास्ता बनाया गया, निकाला गया. मोदी सरकार ने जो 10 फीसदी ईडब्ल्यूएस आरक्षण दिया, उसको सुप्रीम कोर्ट ने वैलिडेट भी किया था, और इसी आधार पर वैलिडेट किया कि वह आरक्षण की जो मूल भावना या धारणा है, उससे अलग एक व्यवस्था की गयी. उसका आधार केवल आर्थिक बनाया गया. पहले से जो आरक्षण चल रहा है, उसमें आर्थिक आधार के साथ शैक्षिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी तरह के पिछड़ापन हैं, जिनको आधार बनाकर पिछले 60-70 वर्षों से आरक्षण दिया जा रहा है. जिन कानूनी पेंचों पर हम बात कर रहे हैं, उसका भी एक नियम हमें तमिलनाडु में दिखता है, वहां बाकायदा 69 फीसदी आरक्षण है.
वहां 1993 में सर्व-सहमति से डीएमके-एआईएडीएमके ने यह प्रस्ताव विधानसभा से पारित कर राष्ट्रपति महोदय के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा. इतना ही नहीं, उसको संविधान के शेड्यूल 9 में शामिल करवाया. यह वो व्यवस्था है, जिसमें शामिल होने के बाद किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट की जो 50 फीसदी की लक्ष्मण रेखा है, वह अपनी जगह है, लेकिन अगर राज्य और केंद्र सरकारें चाहें और राष्ट्रपति अगर उस पर हस्ताक्षर करें तो बिहार में भी 75 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की जा सकती है. फिर, वहां सुप्रीम कोर्ट की वह व्यवस्था आड़े नहीं आएगी. आपको पता होना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में तो 76 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव पारित कर राज्यपाल के पास भेजा गया है, भले ही उसको अनुमोदन अभी नहीं मिला है. अब वह तो समीकरणों पर निर्भर करता है. जिस दिन राज्य और केंद्र सरकार के बीच सही समीकरण बन गए तो बहुत आसानी से यह पारित हो सकता है. हमारे पास तमिलनाडु का अच्छा उदाहरण है.
यह बनेगा देशव्यापी मुद्दा
नीतीश कुमार ने यह दांव बहुत समय पर और बहुत सूझबूझ से चला है. यह निश्चित तौर पर राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनेगा और आगामी लोकसभा चुनाव में यही मसला भी रहेगा. यह मांग बल्कि एक कदम आगे बढ़कर निजी क्षेत्र में भी जाएगा. हरियाणा सरकार ने स्थानीय समुदाय को निजी क्षेत्र में 75 फीसदी आरक्षण का कानून भी बनाया है, हालांकि वह भी अभी पारित नहीं हो सका है. राहुल गांधी पिछले एक साल से यही काम कर रहे हैं. नीतीश कुमार मुद्दा उछालते हैं और राहुल गांधी उसे पूरे देश में उठाते हैं. कास्ट सेंसस बिहार से उठा और राहुल गांधी उसे मध्यप्रदेश, राजस्थान, छग से लेकर हरेक जगह उठा रहे हैं.
अब ये बात दीगर है कि कर्नाटक और छत्तीसगढ़ ने जातिगत सर्वेक्षण करवा भी लिया है, लेकिन उसके नतीजे जाहिर नहीं कर रहे हैं. आरक्षण की मांग तो उठनी ही है. इसका फंडामेंटल कारण वही है कि लोग जनसंख्या और उस हिसाब से हिस्सेदारी की मांग करेंगे. इसीलिए, दक्षिण बनाम उत्तर भारत की राजनीति जब हम देखते हैं, तो उत्तर भारत बहुत पीछे नजर आता है. इसीलिए 30 साल पहले तमिलनाडु में 69 फीसदी आरक्षण हो सका, अभी तक उत्तर प्रदेश और बिहार में नहीं हुआ है.
वैसे भी, इतिहास खुद को दोहराता ही है, यह तो कहा ही जाता है. जब जातिगत सर्वेक्षण की बात हुई, तो कहा गया कि यह मंडल पार्ट-2 होगा. हालांकि, 1990 और 2023 में बहुत अंतर है. कोई भी राजनीतिक विश्लेषक खुल कर यह दावा करे कि इतिहास दुहराया जाएगा, तो यह थोड़ी ज्यादती होगी. इसे ठहरकर, संभलकर देखना होगा. भाजपा थोड़ा सा बैकफुट पर आय़ी है, लेकिन वह अपनी रणनीति में क्या अंतर लाते हैं, यह देखने की बात होगी. अभी तुरंत कोई फैसला देना ठीक नहीं होगा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]
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