नीतीश दिल्ली जाएं या बंगाल, खुद बन गए हैं 'लायबिलिटी', विपक्षी एकता मतलब कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा'
बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार के 25 अप्रैल को पश्चिम बंगाल जाने और वहां की मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी से मिलने की चर्चा जोरों पर है. इससे पहले पिछले दिनों नीतीश दिल्ली की यात्रा पर भी गए थे और राहुल गांधी समेत तमाम विपक्षी नेताओं से मुलाकात की थी. बीजेपी विरोधी एक महागठबंधन बनाने की अपनी मुहिम पर नीतीश निकले हुए हैं. उनका दावा है कि अगर तमाम विपक्षी दल एक होकर लड़ें तो बीजेपी को 100 सीटों के अंदर ही समेटा जा सकता है. उधर, बीजेपी नीतीश कुमार की मुहिम को मुंगेरीलाल के सपने करार दे चुकी है. इसी पर हमने बिहार बीजेपी सोशल मीडिया-आईटी के प्रदेश संयोजक मनन कृष्ण से बातचीत की. आइए जानते हैं कि उनकी इस पर क्या राय है:
विपक्षी दलों का गठबंधन कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा
नीतीश कुमार के बारे में वही कहावत सच है- 'कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा'. ये तमाम जो कवायद है विपक्षी दलों की, वह भानुमती का कुनबा ही बन रहा है.विपक्षी दलों में कोई एक सेनापति तो है नहीं. जितने दल हैं, उतने प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हैं. नीतीश कुमार बुरी तरह से फंस चुके हैं. एनडीए का साथ छोड़ने के बाद उनको कहीं से कोई भाव नहीं मिल रहा है. अब उनकी समझ में ही कुछ नहीं आ रहा है, तो वह खुद से चक्कर काट रहे हैं. हालांकि, इससे उनको कोई फायदा मिलने वाला नहीं है. बिहार में एक कहावत और है, 'बइठल बनिया की करे, अइ कोठी के धान ओइ कोठी करै' यानी खाली बैठा इंसान करेगा ही क्या? तो कभी राहुल गांधी से मिल आते हैं, कभी ममता बनर्जी से मिलने चले जा रहे हैं. बिहार की सत्ता उनसे तो संभल नहीं रही है. यहां वे रबर स्टांप मुख्यमंत्री के तौर पर प्रचारित-प्रसारित हो चुके हैं.
आप उनकी बॉडी लैंग्वेज देखिए. वो तस्वीर आपने देखी होगी दिल्ली वाली, जिसमें वे राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे जैसे नेताओं के साथ नजर आ रहे हैं. उस तस्वीर में वह पूरी तरह निस्तेज और बुझे हुए नजर आ रहे हैं. झुके हुए नजर आ रहे हैं. उनकी पूरी राजनीति अधोगामी हो गई है. ममता बनर्जी से मुलाकात का भी कोई फायदा नहीं होनेवाला है. आखिर ममता बनर्जी खुद भी पीएम पद की कैंडिडेट हैं. तो, दो संभावित प्रधानमंत्री मिलेंगे तो उसका क्या नतीजा निकलेगा, आप बस सोच लीजिए.
नीतीश की महत्वाकांक्षा नहीं होगी पूरी
विपक्षी एकता की सारी बातें हवा-हवाई हैं. नीतीश कुमार जब दिल्ली से लौटे थे तो आरजेडी ने बाकायदा एक पोस्टर लगाया था, जिसमें नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री बनने की बात थी. उनकी जहां कहीं भी सभा हो रही है, उसमें उनके कार्यकर्ता इसी तरह का नारा लगा रहे हैं और नीतीश मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं. राजनीति में बिना आग के धुआं तो होता नहीं है. नीतीश संकेत तो दे ही चुके हैं अपने कार्यकर्ताओं को. अब ये बिल्कुल अलग बात है कि उन्हें कोई भाव नहीं दे रहा है, तो झेंप मिटाने के लिए नीतीश कह रहे हैं कि वह पीएम पद के कैंडिडेट नहीं हैं. अगर ऐसा कुछ नहीं है तो आरजेडी ने वह पोस्टर सार्वजनिक तौर पर कैसे लगा दिया? जेडीयू के कार्यकर्ता कैसे नारा लगाते रहते हैं- देश का पीएम कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो? वैसे, नीतीश कुमार के लिए यह कोई नई बात नहीं है. वह कह कुछ रहे हैं और कर कुछ और ही रहे हैं.
नीतीश कुमार ने जब 2014 में शक्ति-परीक्षण किया था, एनडीए का साथ छोड़ने के बाद तो 2 सीटों पर सिमट कर रह गए थे. तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है. लोगों में नीतीश कुमार के खिलाफ जबरदस्त गुस्सा है. बिहार को जिस तरह उन्होंने बर्बाद किया है, तहस-नहस किया है, उसे लेकर लोग काफी नाराज हैं. इस बार तो उनको सीट देना ही हार की इबारत लिख देना है. जैसे, कुछ समय पहले कांग्रेस को सीट देना मतलब हार पक्की करना होता था, उसी तरह अभी नीतीश कुमार को सीट देना मतलब हार की इबारत लिख देना है. असली सरफुटव्वल तो तब होगी, जब टिकट बंटवारा होगा. उस समय इस कथित महागठबंधन की हालत देखिएगा. नीतीश की पार्टी को 15 सीटें मिले या 25 पर लड़ें, हार उनके मुकद्दर में है और जनता इस पर अपनी मुहर चुनाव में लगा देगी.
नीतीश अब 'असेट' नहीं, 'लायबिलिटी' हैं
एक बात तो तय है कि महागठबंधन के नाम पर जो भी दल जुड़े हैं, उनमें कोई समानता नहीं है, वैचारिक आकर्षण नहीं है. मौकापरस्ती और मोदी विरोध ही तो उनको एक किए हुए है. यह कुनबा जैसे ही देखेगा कि इनकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो पा रही है, ताश के पत्तों की तरह ढह जाएगा. जहां तक बीजेपी की बात है, तो हमारा गठबंधन नीतीश कुमार के साथ नहीं, जॉर्ज फर्नांडीस की समता पार्टी के साथ था. बीजेपी की खासियत है कि वह अपने सहयोगियों को साथ लेकर चलती है, उन्हें छोड़ती नहीं. तो, हमने भी नीतीश कुमार के साथ पारी जारी रखी उस वक्त. जब सत्ता में एनडीए गठबंधन था, तो यह बिना किसी भ्रम के कहा जा सकता है कि 2005 से 2010 के दौरान बहुत शानदार काम भी हुआ, जंगलराज से बिहार को मुक्ति मिली और नीतीश कुमार 'सुशासन बाबू' बने. यही कारण था कि 2010 में हमें ऐतिहासिक जनादेश मिला. ठीक यही वजह थी कि नीतीश कुमार को भी खुद के बारे में भ्रम हुआ कि यह वोट उन्हें मिला है, जबकि वोट तो गठबंधन को मिले थे.
प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ने रही-सही कसर पूरी कर दी और आज बिहार को देखिए. एक बार फिर से बदहाल-बदहवास स्टेट है, जहां प्रशासन की बागडोर किसके हाथ में है, पता नहीं चल रहा है. नीतीश कुमार के साथ यही हुआ कि इन पर पद का मद चढ़ गया. ये डिरेल हुए और पीएम पद के सपने दिनदहाड़े देखने लगे. वहीं से सारी गड़बड़ शुरू हुई और आज पतन का ये मुकाम देखने को मिल रहा है.
बीजेपी के साथ अब नीतीश की गुंजाइश नहीं
हमारे तो राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर तमाम बड़े नेताओं ने कह दिया है कि नीतीश कुमार के लिए दरवाजे बंद हो चुके हैं. एक बार हम धोखा खा चुके हैं, वह काफी है. नीतीश कुमार अब 'कुशासन बाबू' बन चुके हैं, इसमें दो-राय नहीं. ऐसा कोई दिन नहीं बीतता, जब यहां की पुलिस को माफिया मारते न हों. किसी भी दिन का अखबार उठा लीजिए, वही तमाम किस्से आपको देखने को मिलेंगे. बिहार में तो बड़े भाई और छोटे भाई के बीच में जनता पस रही है. प्रशासन पूरी तरह डांवाडोल हो चुका है.
जहां तक नीतीश के तमाम विरोधी दलों को गोलबंद करने की बात है, इस गोलबंदी के तहत बीजेपी को 100 सीटों पर रोकने की योजना है, तो वह ख्याली पुलाव है. आप इतिहास देखिएगा तो पाएंगे कि विरोधी दलों की एकजुटता कभी न हो सकी. चाहे वह जनता पार्टी हो या संयुक्त मोर्चा. जब कांग्रेस जैसी भ्रष्ट पार्टी को ये विरोधी दल नहीं रोक पाए, तो बीजेपी की तो बात ही अलग है. हमारे ऊपर कोई दाग नहीं है, हमारे पीएम के तौर पर एक ऐसा नाम है, जिसके लिए देश में दीवानगी है, जबकि विरोधियों का गठबंधन केवल मौकापरस्ती पर बना है. अब की जनता भी ज्यादा जागरूक हैं. उनको पता है कि सारे विरोधी दल एक भी हो जाएं, तो मोदी-फैक्टर को चुनौती नहीं दे पाएंगे. जनता हमारे साथ है औऱ ये फ्यूज बल्बों की झालर रोशनी नहीं दे पाएंगे.
(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)