बुधवार को हुए नरेंद्र मोदी कैबिनेट के विस्तार के बाद सियासी गलियारों में आम चर्चा है कि एनडीए के पुराने सहयोगी व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की क्या 'मोदी दरबार' में अब उतनी पूछ नहीं रह गई है? और क्या बीजेपी ने उन्हें इतना मजबूर बना दिया है कि वे दिल्ली की राजनीति में उठापटक करने या अपनी बात मनवाने के उतने काबिल भी नहीं रहे. दिल्ली के अलावा नीतीश के लिए तो बिहार में भी अब पहले जैसी बहार नहीं दिखती क्योंकि एक तरफ जहां पार्टी के भीतर असहमति के स्वर सुनाई देने लगे हैं, तो वहीं सरकार के मंत्री ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मुंह भी खोलने लगे हैं.
दरअसल, जेडीयू अपने सांसदों की संख्या के लिहाज से हर बार की तरह इस बार भी केंद्र में अपने चार मंत्री बनवाना चाहता था, लेकिन उसके खाते में सिर्फ एक ही मंत्रीपद आया है. हालांकि 2019 में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के गठन के वक़्त भी जेडीयू ने चार ही मंत्रीपद मांगे थे, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के इनकार के बाद नीतीश रुठ गए थे और उन्होंने तय किया था कि उनकी पार्टी सरकार में शामिल हुए बगैर ही समर्थन करती रहेगी.
दो साल बाद जब पहला विस्तार हुआ, तो नीतीश को उम्मीद थी कि मोदी थोड़ा तरस खाएंगे और कम से कम उनके दो मंत्री तो बना ही देंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और जेडीयू के राज्यसभा सदस्य रामचंद्र प्रताप यानी आरसीपी सिंह को ही कैबिनेट मंत्री बनाया गया.
नीतीश कुमार के पास सिवा इसके दूसरा कोई चारा भी नहीं था. अगर न मानते तो बिहार का सिंहासन डगमगाने का डर बना रहता क्योंकि वहां सत्ता का गणित ही कुछ ऐसा है कि दिल्ली दरबार को नाराज करके ज्यादा दिनों तक सत्ता-सुख भोगने वाले हालात नहीं है. बिहार विधानसभा में बीजेपी के पास 74 विधायक हैं और जदयू के पास 43 यानी बीजेपी के पास 31 विधायक ज्यादा हैं. इसके बावजूद बीजेपी ने अगर नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया हुआ है तो मतलब साफ है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में बीजेपी जो चाहेगी वहीं होगा. यहीं वजह है कि जदयू को केवल एक मंत्री पद दिया गया.
बिहार में अब नीतीश के लिए सरकार के साथ पार्टी में भी सबको संतुष्ट करके रखना एक बड़ी चुनौती होगी. वजह यह है कि अब वहां कोइरी-कुर्मी जाति का दबदबा हो गया है. खुद मुख्यमंत्री कुर्मी हैं तो उनके सबसे करीबी केंद्रीय मंत्री बने आरसीपी सिंह भी उनके स्वजातीय हैं. तो बिहार में पार्टी की कमान संभाले प्रदेश अध्यक्ष कोइरी जाति के उमेश कुशवाहा हैं. लिहाजा अब बाकी जाति के नेता यह पूछेंगे कि नीतीश कुमार की राजनीति में उनकी भी कोई जगह बची है या नहीं. इसलिये उन नेताओं को पार्टी से जोड़े रखना वक़्त की सबसे बड़ी जरुरत है. क्योंकि उनके सामने तेजस्वी यादव और चिराग पासवान जैसे युवा नेताओं से जुड़ने के विकल्प भी मौजूद हैं.
वैसे नीतीश कुमार के लिए एक और सिरदर्द शुरू हो गया है. उनकी कैबिनेट से एक मंत्री ने सरकार में नौकरशाही के हावी होने के कारण अपना इस्तीफा दे दिया है. यहीं नहीं 'हम' पार्टी जिनके चार विधायक हैं, लगातार नीतीश सरकार पर शराब बंदी को लेकर हमले बोलते रहते हैं, क्योंकि इस कानून की वजह से सबसे अधिक लोग जो जेल में बंद हैं उनमें से अधिकांश अनुसुचित जाति व जनजाति से ही आते हैं.
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