बिहार में लगातार लूट और हत्याओं का बाजार गर्म है. कटिहार में जेडीयू नेता की दिनदहाड़े हत्या हुई, तो पटना के रूपसपुर में बाइक सवारों ने टैक्सी सवार एक व्यक्ति का पीछा कर उसके सिर में पांच गोलियां मारीं. मुंगेर से लेकर दरभंगा और मोतिहारी से लेकर मोहनिया तक हत्या, लूट और सरकारी अधिकारियों पर हमला अब एक बेहद आम बात हो गई है. बिहार के वह नेता जो कभी 'सुशासन बाबू' बाबू के नाम से जाने जाते थे, आज असहाय बना देख रहा है और प्रशासन उनके हाथ से फिसलता चला जा रहा है. 


बिहार में शासन के नाम पर 'शून्य' है


नीतीश कुमार जो कभी 'सुशासन बाबू' के नाम से ख्यात हुए थे, उनका अभी का दौर सबसे विद्रूप चेहरा है शासन का. अभी चीजें उनके हाथ से फिसली ही नहीं हैं, वे हैं ही नहीं. मतलब यह कि सवाल यहां 'गुड गवर्नेंस' या 'बैड गवर्नेंस' का नही है, यहां तो 'कंप्लीट एब्सेंस ऑफ गवर्नेस' है. इस बात को आगे बढ़ाने से पहले कुछ छोटी-मोटी बातों को साझा करना चाहता हूं. 10 अगस्त 2022 से 19 अप्रैल 2023 तक बिहार में आपराधिक मामलों की संख्या 4,848 है. इसमें हत्या, हत्या का प्रयास, लूट, डकैती, रेप, छिनैती इत्यादि के मामले हैं. ये आंकड़े गृह राज्यमंत्री के साझा किए हुए हैं, इसलिए इन पर अविश्वास करने की बहुत जरूरत नहीं है.


पटना की बात छोड़िए, आप पिछले कुछ दिनों के अखबार उठाकर देख लीजिए, टीवी न्यूज देख लीजिए. मुंगेर में रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर की हत्या, दरभंगा में प्रॉपर्टी डीलर की हत्या, मोहनिया एसडीएम पर खनन माफिया के हमले जैसी तमाम खबरें आपको मिल जाएंगी. ये ज्यादा दिन की भी नहीं हैं, 24 अप्रैल से लेकर 27 अप्रैल तक आपको ऐसी पचासों खबरें मिल जाएंगी. 



एक और घटना याद करने लायक है. 2005 में नीतीश कुमार जब मुख्यमंत्री बननेवाले थे और बने थे, तो अक्सर दिल्ली जाते थे और जगह-जगह बोलते थे कि लोगों का कहना है कि लालू प्रसाद के समय में कुशासन नहीं है, बल्कि शासन का संपूर्ण अभाव है. आज 18 साल बाद नीतीश कुमार के उसी बयान को उन्हीं को सुनाने की जरूरत है. बिहार एक बार फिर से 1990 के ही दशक में चला गया है. हां, यह केवल आपराधिक आंकड़ों की बात नहीं है. आप गवर्नेंस के किसी भी पहलू की बात कीजिए, एडमिनिस्ट्रेशन हो, सिविल सोसायटी हो या कुछ भी हो. क्राइम तो बस एक पैमाना है. बिहार में किसी भी तरह के प्रशासन के नाम पर एक बड़ा शून्य ही आपको मिलेगा. 


बिहार में सरकार को कुछ भी नहीं पता है


एब्सेंस ऑफ गवर्नेंस का सबसे बड़ा उदाहरण तो उन 26 कैदियों की सूची में है, जिनको बिहार सरकार ने जेल मैनुअल में बदलाव कर गुरुवार 27 अप्रैल को रिहा किया है. इनमें एक मजे या शर्म की बात है कि एक कैदी तो ऐसे भी हैं, जिनकी रिहाई हो चुकी है और इलाज के दौरान जिनकी नवंबर 2022 में ही मौत भी हो चुकी है. पतिराम राय नामक इस कैदी की सूचना बक्सर प्रशासन ने बाकायदा दी भी थी. यह अगर 'प्रशासन का अभाव' नहीं तो और क्या है? बिहार सरकार की बेशर्मी का नमूना 27 अप्रैल को देखने को मिला है, जब बिहार सरकार के मुख्य सचिव (चीफ सेक्रेटरी) अमीर सुबहानी ने कहा कि प्रशासन ने बाकायदा सारी प्रक्रिया के बाद इन कैदियों की रिहाई का फैसला किया है. इस प्रक्रिया में कानून विभाग इन कैदियों की रिहाइश वाली जगहों या शहरों में जाकर लोगों से पूछते हैं कि अमुक आदमी के छूटे से विधि-व्यवस्था की परेशानी तो नहीं खड़ी होगी? उनकी रिहाई पर कोई आपत्ति तो नहीं है? अब आप खुद सोचिए कि अगर यह प्रक्रिया अपनाई गई तो क्या बक्सर के कैदी पतिराम राय के शहर में, उसके पड़ोसियों ने, घरवालों ने, किसी ने भी सरकार को यह जानकारी नहीं दी. 


नीतीश सरकार की एक और उलटबांसी उसी प्रेस कांफ्रेंस में देखने को मिली. जब पत्रकारों ने सवाल किया कि गुड कंडक्ट भी एक पैमाना था, कैदियों की रिहाई का..तो 2019 में तो आनंद मोहन के पास से बाकायदा 4 मोबाइल मिले थे और इस पर रिपोर्ट भी आई थी, मीडिया में. क्या यह गुड कंडक्ट का उदाहरण है? इस पर चीफ सेक्रेटरी बगलें झांकते नजर आए और कहा कि उन्हें ऐसी किसी बात की खबर नहीं है. क्या इन दो उदाहरणों के बाद कुछ कहने को बचता है कि बिहार में शासन नाम की चिड़िया उड़ चुकी है. 


आनंद मोहन का कंधा, आरजेडी की बंदूक, नीतीश का शिकार 


जो कैदी रिहा हुए हैं, उनमें 26 नाम हैं. आनंद मोहन के अलावा के 25 नामों पर भी चर्चा होनी चाहिए. इनमें से 7 नाम तो ऐसे हैं, जिनको अभी भी स्थानीय थाने में हाजिरी देनी होगी. दूसरे, इसका एक और फैक्टर है. उसे भी देखिए. इनमें 13 नाम ऐसे हैं जो लालू प्रसाद के एम-वाय समीकरण पर फिट बैठते हैं. इन 13 अपराधियों को छुड़ाकर लालू अपने पुराने वोट बैंक को फिर से खुश करने की कोशिश कर रहे हैं. बिहार में जानी हुई बात है कि जाति-विशेष के अपराधी कहीं न कहीं रॉबिनहुड भी माने जाते हैं. मुसलमानों के लिए शहाबुद्दीन, भूमिहारों के लिए अनंत सिंह तो राजपूतों के लिए आनंद मोहन वही हैं और इसी तरह की चर्चा चल रही है. तो, एक तरह से यह मानिए कि लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार को चारा बना लिया है. आनंद मोहन के बहाने उन्होंने बाकी अपराधियों को भी निकलवा लिया और जितनी भी आलोचना हो रही है, वह नीतीश की हो रही है. 


सोचकर देखिए कि बिहार कहां पहुंचा है? नीतीश कुमार के मन में क्या है, ये तो वही जानते होंगे लेकिन अपनी पॉलिटिक्स की खातिर वह फिर से बिहार को 1990 वाले जंगलराज में पहुंचा देना चाहते हैं. हालांकि, कई लोगों को इस तुलना पर भी दिक्कत होती है, उन्हें लालू राज में कोई खराबी नहीं दिखती, लेकिन सवाल वही है कि सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर लॉ एंड ऑर्डर की बर्बादी कब तक चलेगी? 


आज नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री रहते हुए 18वां साल है. बिहार में शराब और जमीन के लिए कानून-व्यवस्था का खुलेआम खून किया जा रहा है. इसके पीछे नीतीश कुमार की गहरी मजबूरी नजर आती है. राजनीतिक तौर पर अगर उनकी पार्टी और संगठन को देखें तो वह सबसे कमजोर नजर आते हैं. राजद और भाजपा के मुकाबले उनकी पार्टी कहीं नहीं हैं. एकमात्र राहत की बात यही है कि वह लगातार मुख्यमंत्री रहे हैं. उनकी राजनीति में अब कुछ बचा नहीं है. 2025 तक वह भले ही बिहार को नहीं छोड़ें, लेकिन उसके बाद उनकी राजनीति में कुछ है नहीं. अपने अंतिम समय में कुछ ऐतिहासिक करने के बजाय उन्होंने ऐसा लगता है कि दबाव के आगे सरेंडर कर दिया है, हथियार डाल दिए हैं. 


[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]