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'सुशासन बाबू' के राज में भी आखिर बिहार से क्यों पलायन करते हैं मजदूर?

तमिलनाडु में प्रवासी कामगारों पर हुए कथित हमले की खबर ने एक बार फिर ये सवाल खड़ा कर दिया है कि लाखों बिहारी मजदूर रोजगार की तलाश में तमिलनाडु, पंजाब या अन्य राज्यों में पलायन करने के लिए अभी भी मजबूर आखिर क्यों हैं? जबकि नीतीश कुमार सरकार बिहार में सुशासन होने का जोरशोर से ढिंढोरा पिटती है.जाहिर है कि मजदूरों के पलायन की एक बड़ी वजह वहां नौकरियों का संकट है, लेकिन ये समस्या उससे भी ज्यादा गंभीर व व्यापक है. इसलिए सवाल उठता है कि  'सुशासन बाबू' कहलाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीते 17-18 सालों में बेरोजगारी दूर करने के लिए आखिर किया क्या है?

साल 2005 में जब नीतीश कुमार ने सत्ता संभाली थी, तब बेरोजगारी के मामले में बिहार पहले नंबर पर था. उन्होंने वादा किया था कि वे जल्द ही ये तस्वीर बदल देंगे और लोगों से अपील की थी कि वे काम की तलाश में राज्य से पलायन न करें, लेकिन 17 साल बाद भी इसमें कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिला है. राज्य में पलायन की स्थिति कितनी गंभीर है, इसका नजारा पूरे देश ने कोरोना काल के दौरान देखा था,जब दिल्ली और मुंबई से करीब 15 लाख बिहारी मजदूर अपने घर लौटने के लिए बदहवासी की हालत में सड़कों पर निकल पड़े थे.

.नीतीश के सीएम बनने के वक़्त बिहार में गरीबी दर 54.5 फीसदी थी और वह देश का सबसे गरीब राज्य था. नीतीश ने गरीबी खत्म करने का भी वादा किया था लेकिन ज्यादा कुछ नहीं बदला और आज भी वह एक गरीब राज्य ही है. मामूली-सा फर्क ये आया है कि अब वहां गरीबी दर 51.9 प्रतिशत गई है.नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक बिहार जी आधी आबादी बहुआयामी तरीके से गरीब है. Centre for Monitoring Indian Economy (CMIE) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, इस साल फरवरी तक बिहार में बेरोजगारी की दर बढ़कर 12.3 फीसदी का पहुंची है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ये दर 7.5 प्रतिशत है. हालांकि इस मामले में हरियाणा,राजस्थान और झारखंड के प्रदर्शन बिहार से भी ज्यादा खराब है.

वैसे बिहार की इस हालत के लिए आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के जंगल राज को ही सबसे अधिक कसूरवार ठहराया जाता है, लेकिन अतीत पर नजर डालें,तो 1990 में लालू  के सत्ता में आने से पहले भी बिहार में जनसंख्या वृद्धि की दर सबसे अधिक होने के साथ ही वह न सिर्फ अविकसित था, बल्कि  खराब शासन का भी शिकार था.अनपढ़ या बहुत कम पढ़े-लिखे युवकों को रोजगार की तलाश में राज्य से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा. अन्य राज्यों और महानगरों में जाकर वे रिक्शा,ऑटो रिक्शा चलाने लगे, कोई हॉकर बन गया, तो कोई निर्माण क्षेत्र में काम करने लगा. कर्नाटक,तमिलनाडु के कारखानों में उन्हें काम मिलने लगा,तो वहीं पंजाब और हरियाणा में जाकर वे खेत मजदूर बन गये. लालू के सत्ता में आने के बाद बड़ा बदलाव ये आया कि अन्य पिछड़ा वर्ग obc खासकर यादवों को राजनीतिक संरक्षण मिल गया और उन्होंने उन संस्थानों का दोहन शुरु कर दिया, जिस पर उच्च जातियों का कब्जा था. लालू ने अपनी कुर्सी का तो ख्याल रखा लेकिन उस दौरान अपराध व भ्रष्टाचार में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई,तो नई नौकरियां कम होती चली गईं. 

साल 2005 में जब नीतीश ने राज्य की बागडोर संभाली,तो लोगों की उम्मीद बंधी थी.उनकी साफ-सुथरी छवि के आधार पर ही मीडिया ने उन्हें 'सुशासन बाबू' की पदवी दे डाली थी लेकिन ज्यादा कुछ नहीं बदला और बेरोजगारी आज भी एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा है.ये हाल तब है,जबकि इन 18 सालों में नीतीश ने बीजेपी और आरजेडी के साथ सत्ता में भागेदारी की है. मजदूरों के पलायन का आलम ये है कि आज पंजाब में कृषि और उद्योग लाखों बिहारी मजदूरों के भरोसे ही चल रहे हैं.खेतों में फसल कटाई का काम हो या मवेशियों के शेड की सफाई करनी हो,वे कम पैसों में भी ये सब करने को तैयार रहते हैं.पलायन की एक बड़ी वजह सामाजिक टैबू भी है क्योंकि जो काम वे अन्य राज्यों में जाकर खुशी से करते हैं,वही काम वे अपने राज्य में करने से इसलिये भी कतराते हैं कि तब उन्हें सामाजिक मान-सम्मान नहीं मिलेगा और लोग क्या कहेंगे.इसलिये  छोटे से छोटा काम मिलने पर वे मुंबई या दिल्ली की झुग्गियो में रहना पसंद कर लेते हैं.इसलिये भी कि घर लौटने पर अपने समाज में उनकी एक अलग हैसियत व रुतबा होता है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

 

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