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नीतीश का साथ भाजपा के लिए अग्निपरीक्षा, लोकसभा में साथ आने पर भी समीकरण बिगड़ने का अंदेशा

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर से पाला बदल लिया है. जब लोकसभा चुनाव में कुछ ही महीने बचे हैं तो नीतीश एक बार फिर से एनडीए के खेमे में चले गए हैं. जब आज यानी रविवार 28 जनवरी की शाम आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, तो हो सकता है कि नीतीश के साथ उनकी नयी कैबिनेट ने शपथ ले लिया हो. फिलहाल, उन्होंने राज्यपाल को शपथ दे दिया है और शाम में 8 मंत्रियों के साथ फिर शपथ लेने वाले हैं. एक बार फिर वह भाजपा के साथ मिलकर गठबंधन की सरकार का नेतृत्व करेंगे और उनकी इस सरकार में 2 उप-मुख्यमंत्री भाजपा से भी होंगे. हालांकि, इसके तुरंत बाद ही राजद की तरफ से सख्त प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गयी है और नीतीश के इस तरह बार-बार पाला बदलने पर भी सवाल उठने लगे हैं. 

बिहार की आगे की राजनीति समझिए

अभी तो सबसे बड़ा सवाल ये है कि आगे क्या होगा और नीतीश ने आखिर यह फैसला क्यों लिया? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि भाजपा ने आखिर फिर से नीतीश को अपने साथ आने क्यों दिया, क्योंकि कहावत तो यही है कि दूध का जला छाछ भी फूंककर पीता है, यहां तो भाजपा नीतीश से एक बार नहीं दो-दो बार जली हुई थी. जेडी-यू और नीतीश का गणित तो समझ में आता है. नीतीश को पता है कि वह अपने जीवन का आखिरी 'पॉलिटिकल लैप' ले रहे हैं, इसके बाद उनके लिए कुछ नहीं है. अपनी पीएम बनने की महत्त्वाकांक्षा की वजह से ही उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ा था, वरना भाजपा ने गठबंधन धर्म निभाने और उनका सम्मान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. कुछ आलोचक और विश्लेषक तो यह भी मानते हैं कि भाजपा की बिहार ईकाई के स्थानीय नेताओं ने भाजपा को जेडी-यू की स्थानीय ईकाई बनाकर रख दिया था और इसमें सबसे बड़ा नाम सुशील कुमार मोदी का लिया जाता था. उनको दिल्ली भेजने के पीछे भी यही वजह बताई जाती है. बहरहाल, जब डेढ़ साल की देखभाल के बाद भी नीतीश कुमार ने देख लिया कि विपक्षी दलों के गठबंधन में उनको पर्याप्त सम्मान नहीं मिल रहा है और उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए तो छोड़िए, संयोजक पद तक के लिए घोषित करने में चार बैठकें लग जाती हैं और एक तरह से कांग्रेस ने पूरे 'मोमेंटम' को हाईजैक कर लिया है, तो वह अलग खड़े हो गए. 

महत्वाकांक्षा और सम्मान नहीं मिला, तो हटे नीतीश

नीतीश के लिए यह दुविधा वाली हालत थी. उनकी महत्वाकांक्षा तो गयी ही, उनको पर्याप्त सम्मान भी कांग्रेस नहीं दे रही थी और एक तरह से पूरे विपक्षी गठबंधन पर कांग्रेस का ही कब्जा था. इधर बिहार में, कानून-व्यवस्था की हालत तो खराब थी ही, नीतीश कभी भी आरजेडी के साथ जुड़कर सहज नहीं रह पाते थे. लॉ एंड ऑर्डर रसातल में जा रहा था और साथ ही नीतीश की इमेज भी. शिक्षकों को नौकरी जो भी दी गयी हो, उसका श्रेय भी उनको तेजस्वी के साथ बांटना ही था. इसके अलावा, नीतीश ने कई मौकों पर यह घोषणा सार्वजनिक तौर पर कर दी थी कि अगला चुनाव (यानी 2025 का विधानसभा चुनाव) तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. अगर वह आरजेडी के साथ रहते तो उनको न तो खुदा ही मिलता, न सनम का विसाल होता. यानी, न तो वह पीएम पद के प्रत्याशी बनते और फिर उनको सीएम पद भी छोड़ना पड़ता. राजनीति के धुरंधर नीतीश कुमार ने चाणक्य नीति का अनुसरण किया और पूरे नुकसान को त्याग कर आधा नुकसान होने दिया, आधा बचा लिया. यानी, उन्होंने पीएम पद का मोह त्यागा और सीएम पद को अगले पांच साल के लिए सुरक्षित रखने हेतु भाजपा का साथ पकड़ा. 

अब, तेरा क्या होगा भाजपा?

इस पूरे प्रसंग में  सबसे अधिक फजीहत भाजपा की होने जा रही है. तेजस्वी के पास तो दो बहुत अच्छे रास्ते हैं. पहला, तो वह खुद को शहीदी जत्थे में शामिल करेंगे और खुद को शहीद बताएंगे. वह कहेंगे कि चाचा ने उनके साथ धोखा किया और उनकी पीठ में छुरी घोंपा है. दूसरे, नौकरी का ढोल पीट कर वह युवकों-युवतियों के बीच खुद को एक बेहतरीन विकल्प घोषित करना चाहेंगे. रही बात नीतीश को गरियाने की, तो उनकी बहन रोहिणी आचार्य ने ट्वीट-वॉर से इसकी शुरुआत कर ही दी है. उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा है- कूड़ा गया कूड़ेदान में, कूड़ेदान वालों को कूड़ा मुबारक. वहीं, तेजप्रताप यादव ने तो गिरगिट से तुलना करते हुए नीतीश कुमार को उससे भी खतरनाक करार दिया है. अब संकट भाजपा के लिए, उसके कार्यकर्ताओं के लिए है. पहला संकट तो चुनाव का है, जब जनता के पास उनको चेहरा दिखाना है और जनता उनसे सवाल करेगी कि नीतीश के ऊपर चौथी बार भरोसा करने का उनके पास कारण क्या है? दूसरा, राजनीतिक कारण यह है कि नीतीश अपने जिन 16 सिटिंग एमपी को बचाने के लिए महागठबंधन छोड़ कर आए हैं, उन सीटों में समझौता कैसे करेंगे और अगर उन्होंने उन पर समझौता नहीं किया तो भाजपा के पास तो मिला-जुलाकर स्थिति वही पुरानी रह जाएगी. इसके अलावा, चिराग पासवान और मांझी जैसे नेता भी भाजपा के पास है, जो  नीतीश कुमार को बहुत पसंद नहीं करते. भले ही उन्होंने अभी कुछ नहीं कहा है, लेकिन वे चुनाव के वक्त भी खामोश रहेंगे, ऐसा नहीं समझना चाहिए. 

इस पूरे प्रसंग में अगर कोई सबसे अधिक फायदे में है, तो वह नीतीश कुमार हैं. उनकी पांचों ऊंगलियां घी में और सिर कड़ाही में है. सोशल मीडिया पर बन रहे मीम और वीडियो के बीच एक बात तो साफ है- बिहार में सरकार किसी दल की हो, सीएम नीतीश कुमार ही रहेंगे. पिछले लगभग 20 वर्षों से यह सच है और आगे भी अगले पांच साल इसके सही रहने की ही आशंका है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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