एक्सप्लोरर

नीतीश पाला बदल मुख्यमंत्री बने रहने में होंगे सफल, लेकिन भविष्य में जेडीयू होगी और कमज़ोर, तेजस्वी के लिए है मौक़ा

भारत में राजनीति जनसेवा या लोक कल्याण के लिए नहीं की जाती है. सैद्धांतिक तौर से भले ही हर राजनीतिक दल और नेता जनसेवा का दावा करते हों, लेकिन व्यावहारिक सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है. राजनीति का असली मकसद येन-केन प्रकारेण सत्ता पर बने रहना है. अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरा करने के लिए अपने ही पुराने संकल्पों से पलटने में नेताओं को अधिक देर नहीं लगती है.

इस राजनीतिक पहलू का जीता-जागता सबूत जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार हैं. सत्ता पर बने रहने और मुख्यमंत्री का पद अपने पास रखने के लिए जितनी बार नीतीश कुमार ने पाला बदला है, भारतीय राजनीति के इतिहास में उस तरह का उदाहरण अब तक किसी और नेता ने पेश नहीं किया है.

फिर पाला बदलने को तैयार नीतीश कुमार

एक बार फिर से बिहार में राजनीतिक समीकरण बदलने जा रहा है और हमेशा की तरह ही इस बार भी इसके केंद्र बिंदु में नीतीश कुमार ही हैं. हर बार पलटकर नहीं देखने का संकल्प लेने वाले नीतीश कुमार बीजेपी के साथ गठजोड़ करने का क़रीब-क़रीब मन बना चुके हैं, यह भी अब लगभग तय हो चुका है. बस औपचारिक एलान बाक़ी है. आरजेडी से नाता तोड़कर जेडीयू अब बीजेपी से संबंध जोड़ने जा रही है. इसकी कहानी लिखी जा चुकी है.

इसका स्पष्ट मतलब है कि नीतीश कुमार अगर ऐसा करते हैं तो जेडीयू एनडीए का हिस्सा बन जाती है. इससे विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से भी जेडीयू का अलगाव सुनिश्चित हो जाता है. ममता बनर्जी के बाद नीतीश कुमार के भी इस तरह से आम चुनाव, 2024 से पहले ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से अलग होना यह बताता है कि जैसे-जैसे चुनाव की तारीख़ नज़दीक आएगी, विपक्षी गठबंधन की प्रासंगिकता धूमिल होती जाएगी.

जेडीयू की प्रासंगिकता से भी जुड़ा है मसला

राजनीति में हर क़दम स्वार्थ से प्रेरित होता है. यह स्वार्थ जनता से जुड़ा नहीं होता है. इसका सीधा संबंध राजनीतिक महत्वाकांक्षा से होता है. अतीत में नीतीश कुमार ने जब-जब पाला बदला है, उनका मकसद सिर्फ़ और सिर्फ़ बिहार के मुख्यमंत्री पद पर बने रहना ही रहा है. हालाँकि इस बार नीतीश कुमार के बदले रवैये के पीछे मुख्यमंत्री पद के साथ ही आगामी लोक सभा चुनाव में अपनी पार्टी जेडीयू की प्रासंगिकता को बनाए रखना है.

इस पूरे प्रकरण में तीन बातें प्रमुख हैं. नीतीश कुमार आगामी लोक सभा चुनाव के लिए आरजेडी से उतनी ही सीट चाहते थे, जितनी सीट पर 2019 में जेडीयू लड़ थी. पिछले लोक सभा चुनाव में एनडीए के साथ रहने के दौरान जेडीयू बिहार की 40 में से 17 सीट पर चुनाव लड़ी थी. आरजेडी नेता तेजस्वी यादव इसके लिए तैयार नहीं हो रहे थे. इसके पीछे का कारण किसी भी तरह से तेजस्वी यादव की मज़बूरी नहीं है. इसके पीछे का गणित.. बिहार की सियासत में जेडीयू के लगातार घटते जनाधार और आरजेडी का निरंतर बढ़ता दायरा ..से जुड़ा है. इस पर विस्तार से चर्चा आगे करेंगे.

नीतीश के आने से बीजेपी को सबसे अधिक लाभ

दूसरा पहलू बीजेपी से जुड़ा है. ऐसे तो चंद दिनों पहले तक अमित शाह समेत बीजेपी के तमाम नेता दिन-रात कहते रहते थे कि नीतीश के लिए अब बीजेपी और एनडीए का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो गया है.  लेकिन जैसे ही आम चुनाव, 2024 क़रीब आया, बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का सुर बदलने लगा. पूरे देश में एकमात्र बिहार ही ऐसा राज्य है, जहाँ आगामी लोक सभा चुनाव में बीजेपी और एनडीए को सबसे अधिक नुक़सान की संभावना बन गयी थी. ऐसा नीतीश और तेजस्वी के साथ चुनाव लड़ने से हो सकता था.

पिछले कई महीनों से लगातार कोशिशों के बावजूद बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के लिए बिहार में नीतीश-तेजस्वी की जुगल-बंदी से होने वाले नुक़सान की काट खोजना मुश्किल हो गया था. इसका बस एक ही काट था कि नीतीश का आरजेडी से मोह भंग हो जाए और अब बिहार में कुछ ऐसा ही होने जा रहा है.

तेजस्वी यादव के लिए भी है सुनहरा मौक़ा

बिहार की सियासी बयार में जो अचानक बवंडर आया है, उसका तीसरा पहलू तेजस्वी यादव से जुड़ा है. अगर आरजेडी से अलग होकर नीतीश फिर से बीजेपी के साथ जा रहे हैं, तो यह एक तरह से तेजस्वी यादव के लिए मौक़ा है. बिहार विधान सभा चुनाव, 2020 की तरह ही तेजस्वी यादव के पास यह दिखाने का मौक़ा है कि लोक सभा चुनाव में भी वे आरजेडी को बिना नीतीश कुमार के सहयोग के स्थापित करने का दमख़म रखते हैं.

हो सकता है कि नीतीश के साथ रहने पर जिस तरह का प्रदर्शन आरजेडी करती, वैसा नहीं हो. इसके बावजूद भी अगर तेजस्वी यादव.. नीतीश कुमार और बीजेपी के गठबंधन को 2019 जैसा प्रदर्शन दोहराने से रोकने में सफल होते हैं, तो यह आरजेडी के भविष्य के लिहाज़ से मील का पत्थर या फिर अहम पड़ाव साबित हो सकता है. ऐसे भी उम्र के लिहाज़ से अभी तेजस्वी यादव की राजनीति काफ़ी लंबी है.

बिहार में 2024 का पेच सुलझाने पर ज़ोर

फ़ाइदा-नुक़सान की बात करें, तो नीतीश के इस पलटी से फ़िलहाल सबसे अधिक लाभ बीजेपी को ही होने वाला है. भविष्य के लिहाज़ से भी बीजेपी के यह एक सुनहरा मौक़ा है. भले ही बिहार की सत्ता पर नीतीश के साथ ही उनकी पार्टी जेडीयू 18 साल से अधिक समय से बिना ब्रेक के क़ाबिज़ है, लेकिन वास्तविकता है कि प्रदेश की सियासत में अब जेडीयू का रक़्बा वैसा नहीं रह गया है.

बीजेपी की रणनीति में फँसती जेडीयू

लंबे वक़्त तक बीजेपी बिहार में नीतीश के साथ अतीत में भी रही है. अब फिर से बीजेपी का गठजोड़ नीतीश की पार्टी से होने जा रहा है. इसके बावजूद 2020 के विधान सभा चुनाव के समय से ही बीजेपी की रणनीति जेडीयू को कमज़ोर करने से जुड़ी रही है. उसी का नतीजा था कि राम विलास पासवान के निधन के बाद उनके बेटे चिराग पासवान का मुख्य ज़ोर अपनी पार्टी को चुनाव जीताने पर नहीं था, बल्कि नीतीश कुमार के उम्मीदवारों को हराने पर था. जब 2020 विधान सभा चुनाव के नतीजे आए, तो हम सबने देखा भी कि जेडीयू महज़ 43 सीट पर सिमट गयी.

नीतीश की पार्टी...आरजेडी और बीजेपी के बाद तीसरे नंबर की पार्टी बनने को मजबूर हो गयी. विधान सभा चुनाव, 2020 में जेडीयू की सीट कम होने का एकमात्र कारण चिराग पासवान का रुख़ नहीं था, लेकिन एक महत्वपूर्ण कारण यह ज़रूर था. चिराग पासवान ने लोजपा उम्मीदवार को अधिकांशत: वहीं उतारा, जहाँ से जेडीयू चुनाव लड़ रही थी. बीजेपी जिन-जिन सीटों से चुनाव लड़ रही थी, उनमें से अधिकांश में चिराग पासवान की पार्टी चुनाव नहीं लड़ी. उसी रणनीति का हिस्सा था कि लोजपा 135 विधान सभा सीट पर चुनाव लड़ती है और 5.66% वोट हासिल करने के बावजूद मात्र एक सीट जीत पाती है, लेकिन इस फ़ैसले से नीतीश कुमार की पार्टी को काफ़ी नुक़सान होता है.

चिराग पासवान का यह फ़ैसला कहीं-न-कहीं बीजेपी की उस रणनीति का भी हिस्सा था, जिसके तहत बिहार की राजनीति में बीजेपी को छोटे भाई से सबसे बड़े भाई के रोल में आना था. उस चुनाव में बीजेपी को काफ़ी हद तक इसमें कामयाबी भी मिली थी. हालाँकि नतीजों को बाद सत्ता की चाबी जेडीयू के पास ही रही, जिसके कारण नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना बीजेपी की मजबूरी बन गयी.

जेडीयू के कमज़ोर होने से किसको लाभ?

अब जब जेडीयू और नीतीश कुमार की राजनीति अवसान पर है, तो बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व कतई नहीं चाहेगा कि प्रदेश की सियासत में तेज़ी से अपना कद बढ़ा रहे तेजस्वी यादव को भविष्य में नीतीश कुमार की राजनीतिक विरासत का फ़ाइदा मिले. बीजेपी की चाह भी है कि बिहार में उनका मुख्यमंत्री हो, प्रदेश की सत्ता में वो अकेले दम पर क़ाबिज़ हो. ऐसा तभी मुमकिन हो सकता है, जब बिहार में बीजेपी का सीधा मुक़ाबला आरजेडी से हो और नीतीश उस हालत में न हों कि उनके बिना सरकार बन ही नहीं सकती है. ऐसा तभी होगा, जब जेडीयू की राजनीतिक ज़मीन और छोटी हो जाए और उस ज़मीन पर आरजेडी का क़ब्ज़ा भी न हो.

बिहार की सियासत और बीजेपी का मंसूबा

बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व इस पहलू को भी ध्यान में रखकर आगे बढ़ रहा है. नीतीश के साथ आने से बीजेपी को अभी तो लोक सभा चुनाव में सीधे फ़ाइदा होगा ही, भविष्य में विधान सभा चुनाव में भी उस स्थिति में आने में मदद मिलेगी, जिससे बीजेपी अपना मुख्यमंत्री बिना किसी शर्त के बनवा सके.

नीतीश अगर बीजेपी के साथ बने रहते हैं और आगामी विधान सभा चुनाव में बीजेपी से जुगल-बंदी जारी रखते हैं, तो इससे आरजेडी को भी लोक सभा के साथ ही भविष्य में विधान सभा चुनाव में रोकने में मदद मिलेगी. नीतीश कुमार की लोकप्रियता तेज़ी से घट रही है. उनकी पार्टी का जनाधार भी अब वैसा नहीं रह गया है कि आगामी विधान सभा चुनाव में नीतीश अपनी बात मनवाने की स्थिति में पहुँच पाएं, इसकी संभावना भरपूर है.

आरजेडी और बीजेपी के बीच ही मुक़ाबला

इतना तय है कि अगर बिहार में अगला विधान सभा चुनाव अपने तय समय पर 2025 के अक्टूबर-नवंबर में होता है, तो उसमें बीजेपी और आरजेडी के बीच ही मुख्य मुक़ाबला होगा. जिस तरह से प्रदेश के लोगों में नीतीश और जेडीयू को लेकर लगातार भरोसा कम हो रहा है, उसको देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है. नीतीश को बीजेपी के साथ आने से तात्कालिक तौर से लोक सभा चुनाव में कुछ फ़ाइदा हो जाए, लेकिन भविष्य में उनकी पार्टी को नुक़सान ही होगा.

तेजस्वी का बढ़ता कद और बीजेपी का डर

बिहार में तेजस्वी यादव की लोकप्रियता बढ़ रही है और नीतीश के हाथ से धीरे-धीरे वोट बैंक खिसक रहा है. शायद यही कारण है कि तेजस्वी यादव जेडीयू को लोक सभा चुनाव में 17 सीट देने को राज़ी नहीं हो रहे थे. तेजस्वी को इस बात की आशंका रही है कि अगर जेडीयू को अधिक सीट दे देते हैं, तो इससे बीजेपी को नुक़सान की संभावना कम होगी. बिहार में फ़िलहाल जेडीयू उम्मीदवार के मुक़ाबले आरजेडी उम्मीदवार के जीतने की संभावना अधिक है. जेडीयू के कमज़ोर होने और नीतीश को लेकर लोगों में नाराज़गी की वज्ह से विनिंग पॉसिबिलिटी आरजेडी उम्मीदवार के पक्ष में अधिक है. इसलिए तेजस्वी चाहते थे कि नीतीश कम सीट पर ही मान जाएं.

इसके साथ ही नीतीश को यह भी एहसास होने लगा था कि बहुत जल्द ही आरजेडी तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने का दबाव तेज़ करने वाली है. शायद आगामी लोक सभा चुनाव में बिहार में अगर आरजेडी सबसे अधिक सीट ले आती, तो नीतीश पर तेजस्वी यादव के लिए मुख्यमंत्री पद छोड़ने का दबाव और बढ़ जाता. आरजेडी और जेडीयू का साथ बने रहने पर इसकी संभावना भी थी कि आगामी लोक सभा चुनाव में तेजस्वी की पार्टी ही बिहार में सबसे अधिक सीट जीतने में सफल हो जाती. फिर नीतीश कुमार के ऊपर जो दबाव बनता, उसमें उनके लिए और भी मुश्किलें पैदा हो सकती थी. इन कारणों से नीतीश कुमार को लग रहा है कि फिर से बीजेपी का दामन थामने में ही उनकी सत्ता बनी रह सकती है.

जेडीयू को लेकर प्रदेश के लोगों में है नाराज़गी

जेडीयू 18 साल से अधिक समय से बिहार की सत्ता पर है. बीच के कुछ महीनों या'नी 20 मई 2014 से 22 फरवरी 2015 के बीच तक़रीबन नौ महीने की अवधि को छोड़ दिया जाए, तो नीतीश कुमार नवंबर 2005 से बिहार के मुख्यमंत्री हैं. बीच की अवधि में भी सरकार जेडीयू की ही थी और नीतीश कुमार ने ही जीतन राम माँझी को मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला किया था. इतने लंबे वक्त से जेडीयू की सरकार है और नीतीश कुमार भी मुख्यमंत्री हैं. इसके बावजूद अभी भी प्रगति की राह पर बिहार की गिनती देश के सबसे पिछड़े राज्यों में ही होती है.

भले ही बिहार की राजनीति में जाति का कारण इतना प्रभावी रहा है कि विकास का मुद्दा हर चुनाव में गौण हो जाता है, इसके बावजूद नीतीश कुमार को लेकर प्रदेश के लोगों में भारी नाराज़गी है. वोट देते समय भले ही यहाँ के लोग जातिगत समीकरणों के जाल में उलझ जाते हैं, लेकिन बिहार की बदहाली के लिए नीतीश कुमार को भी ज़िम्मेदार ठहराने में पीछे नहीं हटते हैं. बिहार के अलग-अलग इलाकों में घूमने पर नीतीश को लेकर आम लोगों की नाराजगी को बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है.

फ़िलहाल आरजेडी अकेले दम पर सबसे मज़बूत

जिस तरह से पिछले चार साल में बिहार में तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी आरजेडी का कायाकल्प किया है, उसको देखते हुए नीतीश कुमार के वोट बैंक से एक बड़ा तबक़ा अब आरजेडी की ओर आकर्षित होने लगी है. बिहार में जेडीयू का जनाधार धीरे-धीरे सिकुड़ रहा है और इसका एक बड़ा कारण तेजस्वी यादव की अगुवाई में आरजेडी का तेजी से उभार है. तेजस्वी यादव की राजनीति बिहार में विकास की रफ्तार को कितनी बढ़ाएगी, वो अलग चर्चा का मुद्दा हो सकता है, लेकिन जातिगत समीकरणों के लिहाज़ से फ़िलहाल राजनीतिक सच्चाई यही है कि अकेले दम पर आरजेडी... बीजेपी और जेडीयू दोनों पर भारी है.

बिहार में जेडीयू की पकड़ अब पहले जैसी नहीं

नीतीश कुमार की राजनीतिक ज़मीन अब वैसी नहीं है कि केंद्रीय राजनीति में उनको विपक्ष के सबसे बड़े नेता के तौर पर स्वीकार कर लिया जाए. बिहार में जेडीयू की स्थिति फ़िलहाल ऐसी है कि अकेले दम पर अगर नीतीश की पार्टी लोक सभा चुनाव लड़ती है, तो एक-दो सीट जीतना भी दूभर हो जाएगा. ऐसा नहीं है कि जेडीयू की स्थिति अब ऐसी हुई है.

दरअसल शुरूआत से ही नीतीश कुमार की पार्टी के पास ऐसा कोई बड़ा जनाधार नहीं था कि अकेले दम पर बिहार की सत्ता पर इतने सालों तक  बनी रहे. नीतीश हमेशा ही सहारा लेकर ही बिहार की राजनीति के सिरमौर बने रहे हैं. जब नीतीश कुमार ने 2014 के लोक सभा चुनाव में अकले दम पर उतरने का फ़ैसला किया था, तो हम सबने देखा था कि जेडीयू का क्या हश्र हुआ था. उस चुनाव में जेडीयू मुश्किल से दो सीट जीत पाई थी और उसके वोट शेयर में 8 फ़ीसदी से अधिक की गिरावट हुई थी.

नीतीश हमेशा उठाते आए है फ़ाइदा

नीतीश हमेशा ही इस बात का फ़ाइदा उठाते रहे हैं कि बिहार में बीजेपी और आरजेडी कभी एक पाले में नहीं आ सकती. साथ ही 2005 से अब तक बीजेपी या आरजेडी अकेले दम पर सरकार बनाने लायक सीट जीतने में भी सफल नहीं हुई है. इसलिए चाहे परिस्थिति कुछ भी हो, नतीजा कुछ भी हो..बिना नीतीश के सरकार बनाना न तो बीजेपी के लिए संभव रहा है और न ही आरजेडी के लिए. नीतीश इस स्थिति का फ़ाइदा उठाकर लगातार मुख्यमंत्री बने रहे हैं. इस बीच उनकी पार्टी जनाधार और लोगों का भरोसा के मामले में लगातार कमज़ोर होती गयी है. बिहार में राजनीतिक ज़मीनी हक़ीक़त यही है.

पाला बदलने की रणनीति नयी नहीं है

हमेशा से ही पाला बदलना नीतीश कुमार की राजनीति का सबसे धारदार हथियार और उपकरण रहा है. इस कारण से कम जनाधार के बावजूद वे बिहार की राजनीति के सिरमौर 2005 से बने हुए हैं. पार्टी कमज़ोर हो रही है, बिखर रही है, इसके बावजूद उनकी राजनीति महत्वाकांक्षा अभी भी कमोबेश वैसी ही है और इसके लिए वो हर दो साल पर पाला बदलने से भी गुरेज़ नहीं करते हैं और ताज़ा मामला भी इसकी पुष्टि करता है. 2013 में भी नीतीश ने बीजेपी का साथ छोड़ा था. नीतीश ने 2015 में लालू प्रसाद यादव का दामन थामा था. फिर 2017 में बीजेपी के पास चले जाते हैं. अगस्त, 2022 में फिर से आरजेडी के पास आ जाते हैं. अब उन्हें फिर से बीजेपी की याद सताने लगती है.

बिहार में बीजेपी की नैया कैसे होगी पार?

इन परिस्थितियों के बीच एक सच्चाई यह भी है कि नीतीश के साथ के बिना बीजेपी की नैया बिहार में आगामी लोक सभा चुनाव में डगमगा सकती है. बिहार ऐसा राज्य है, जहाँ 2014 और 2019 दोनों ही बार एनडीए को अपार समर्थन मिला था. 2019 में तो 40 में से 39 सीट एनडीए के खाते में चली गयी थी. हालाँकि इस बार नीतीश के आरजेडी के साथ होने के कारण एनडीए के लिए वैसा ही प्रदर्शन दोहराना लगभग असंभव था. यहाँ तक कि बीजेपी को पिछली बार बिहार में 17 सीटों पर जीत मिली थी. नीतीश के तेजस्वी के साथ होने पर बीजेपी के लिए इस आँकड़े को हासिल करना भी बेहद चुनौतीपूर्ण था.

तेजस्वी यादव के प्रभाव को कम करने पर नज़र

यही कारण है कि बार-बार नीतीश के लिए दरवाजा बंद होने का बयान देने के बावजूद बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अब नीतीश के लिए न सिर्फ़ दरवाजा खोलकर बैठा है, बल्कि नीतीश कुमार की हर शर्त भी मानने को तैयार दिख रहा है. अप्रैल-मई में निर्धारित लोक सभा चुनाव से जुड़े समीकरणों को थोड़ी देर के लिए साइड करके समझें, तो नीतीश के लिए एक बार फिर से बीजेपी का उतावलापन दरअसल प्रदेश में तेजस्वी यादव के प्रभाव को कम करने से संबंधित है. बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को इसका भी डर सता रहा है कि नीतीश अगर तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए किसी तरह से राज़ी हो जाते, तो फिर बीजेपी के लिए बिहार की सत्ता भविष्य में और भी दूर हो जाती.

कुल मिलाकर नीतीश पाला बदलने को तैयार हैं और बीजेपी ने अब बंद दरवाजा को खोल दिया है, बिहार की सियासत की अभी तक की यही कहानी है. हालाँकि जब तक आधिकारिक एलान नहीं हो जाता है, तमाम दलों और तमाम नेताओं के बीच बंद दरवाजे में कौन-सी नयी खिचड़ी पक जाएगी, इसका अनुमान लगाना बेहद मुश्किल है.

वर्षों से राजनीतिक नाटक में उलझे प्रदेश के लोग

बिहार के लोगों की शायद अब यह नियति बनती जा रही है. तमाम राजनीतिक दल वर्षों से जातिगत समीकरणों को साधने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं. वोट किसी गठबंधन में पाते हैं, सरकार किसी के साथ बनाते हैं. प्रदेश के लोगों के प्रति राजनीतिक जवाबदेही नाम की चीज़ किसी दल के पास नहीं दिखती है.

बस जोड़-तोड़ से सत्ता हासिल कर लेना, येन-केन प्रकारेण सत्ता पर बने रहना और प्रदेश के लोगों को सामाजिक न्याय के नाम पीढ़ी दर पीढ़ी बरगलाते रहना, चुनाव में कभी भी विकास के मुद्दे को हावी नहीं होने देना और सत्ता हासिल कर लेने के बाद जातियों के गणित में लोगों को हमेशा उलझा कर रखना...यही बिहार में तमाम राजनीतिक दलों का सबसे बड़ा सच है. वर्षों से यही होता रहा है और भविष्य में भी इसमें कोई बड़ा बदलाव होगा, इसकी भी गुंजाइश दूर-दूर तक नहीं दिखती है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]     

और देखें

ओपिनियन

Advertisement
Advertisement
25°C
New Delhi
Rain: 100mm
Humidity: 97%
Wind: WNW 47km/h
Advertisement

टॉप हेडलाइंस

'पाकिस्तान आतंकवाद की फैक्ट्री, PM शहबाज का भाषण सिर्फ एक मजाक', UNGA में भारत ने सुना दी खरी-खरी
'पाकिस्तान आतंकवाद की फैक्ट्री, PM शहबाज का भाषण सिर्फ एक मजाक', UNGA में भारत ने सुना दी खरी-खरी
मुंबई में आतंकी हमले का अलर्ट, इन जीचों पर लगाई गई रोक
मुंबई में आतंकी हमले का अलर्ट, इन जीचों पर लगाई गई रोक
विनोद खन्ना ने बनाया था हिरोइन, सलमान खान संग दी  हिट फिल्म, लेकिन करियर रहा फ्लॉप, अब 12 सालों से जी रही गुमनाम जिंदगी
सलमान खान संग दी हिट फिल्म, लेकिन करियर रहा फ्लॉप, अब 12 सालों से जी रही गुमनाम जिंदगी
बड़े बजट की पहली फिल्म बंद हुई तो इस एक्टर को लगा था तगड़ा झटका, मुंडवा लिया था सिर
पहली फिल्म बंद हुई तो इस एक्टर को लगा था तगड़ा झटका, मुंडवा लिया था सिर
ABP Premium

वीडियोज

क्यों लेगी Central Government दूसरी छमाही में  ₹6.61 लाख करोड़ का उधार?Tax Rule Changes:Income Tax, STT, TDS Rates, आधार कार्ड को लेकर 1 अक्टूबर 2024 से बदल जाएंगे ये नियमबिना Bank Account के भी निकालें पैसे! NCMC कार्ड की पूरी जानकारी |UP Politics : यूपी टू बिहार...बैंड बाजा नाम विवाद | 24 Ghante 24 Reporter

पर्सनल कार्नर

टॉप आर्टिकल्स
टॉप रील्स
'पाकिस्तान आतंकवाद की फैक्ट्री, PM शहबाज का भाषण सिर्फ एक मजाक', UNGA में भारत ने सुना दी खरी-खरी
'पाकिस्तान आतंकवाद की फैक्ट्री, PM शहबाज का भाषण सिर्फ एक मजाक', UNGA में भारत ने सुना दी खरी-खरी
मुंबई में आतंकी हमले का अलर्ट, इन जीचों पर लगाई गई रोक
मुंबई में आतंकी हमले का अलर्ट, इन जीचों पर लगाई गई रोक
विनोद खन्ना ने बनाया था हिरोइन, सलमान खान संग दी  हिट फिल्म, लेकिन करियर रहा फ्लॉप, अब 12 सालों से जी रही गुमनाम जिंदगी
सलमान खान संग दी हिट फिल्म, लेकिन करियर रहा फ्लॉप, अब 12 सालों से जी रही गुमनाम जिंदगी
बड़े बजट की पहली फिल्म बंद हुई तो इस एक्टर को लगा था तगड़ा झटका, मुंडवा लिया था सिर
पहली फिल्म बंद हुई तो इस एक्टर को लगा था तगड़ा झटका, मुंडवा लिया था सिर
IPL 2025: रिटेंशन अनाउंसमेंट पर बड़ा अपडेट, बेंगलुरु में मीटिंग के बाद आज हो सकती है घोषणा
IPL रिटेंशन अनाउंसमेंट पर अपडेट, बेंगलुरु में मीटिंग के बाद होगी घोषणा
नाम अपडेट होने के कितने दिन बाद घर पर डिलीवर होता है पैन कार्ड?
नाम अपडेट होने के कितने दिन बाद घर पर डिलीवर होता है पैन कार्ड?
Bhagat Singh Jayanti 2024: खून से सनी मिट्टी को घर पर क्यों रखते थे भगत सिंह? जो बन गई अंग्रेजों का काल
खून से सनी मिट्टी को घर पर क्यों रखते थे भगत सिंह? जो बन गई अंग्रेजों का काल
नॉर्थ-ईस्ट में शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का विरोध! प्रदर्शन करने वाले बोले- बीफ हमारे खाने का हिस्सा
नॉर्थ-ईस्ट में शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का विरोध! प्रदर्शन करने वाले बोले- बीफ हमारे खाने का हिस्सा
Embed widget