गठबंधन के मौसम में क्षेत्रीय दलों के समक्ष झुकने के लिए विवश राष्ट्रीय दल
18 वीं लोकसभा चुनाव के नतीजों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि बहुदलीय पद्धति भारतीय लोकतंत्र की विशिष्ट पहचान है. इंडिया गठबंधन के नेताओं ने जिस कथित तानाशाही प्रवृत्ति की चर्चा करके भ्रम पैदा करने की कोशिश की थी, उससे बुनियादी स्तर पर बदलाव की हवा नहीं चल सकी. स्वतंत्र भारत में अभी तक पंडित जवाहर लाल नेहरू की ही चर्चा ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में होती है जिन्हें लगातार तीन चुनावों में जीत मिली थी. अब इस सूची में नरेंद्र मोदी भी शामिल हो गए हैं लेकिन गठबंधन की शर्तों के साथ. "हिंद के दुलारे" पंडित नेहरू नवीन उपलब्धियों के प्रतीक थे. उनके कार्यकाल के दौरान लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव रखी गई थी, लेकिन उनकी राहें भी कभी आसान नहीं रहीं.
नेहरू की भी राह नहीं थी आसान
विभाजन के परिणामस्वरूप भड़के हुए दंगों के कारण सांप्रदायिक तनाव सामाजिक जीवन को नकारात्मक ढंग से प्रभावित कर रहा था. पाकिस्तान से आए हुए शरणार्थियों के समर्थन में दक्षिणपंथी संगठनों की सक्रियता से नेहरू की "धर्मनिरपेक्ष नीतियों" की सीमाएं उजागर होने लगीं थीं. उनके आलोचकों की संख्या कम नहीं थी. वामपंथी व समाजवादी विचारक, नेहरू की आर्थिक विकास को लेकर की गयी पहल को अपर्याप्त मानते थे तो हिंदू हितों के पैरोकारों की नजरों में वे मुस्लिमों के संरक्षक थे.
इन आलोचनाओं से परे नेहरू संसदीय लोकतंत्र की जड़ों को सींचने में व्यस्त थे. इसलिए उनके 17 साल के कार्यकाल में बहुत बड़े सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए. लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा के कारण ही प्रथम आम चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो सका, क्योंकि उस समय "गरीबों और अशिक्षितों" के देश भारत में सार्वजनिक वयस्क मताधिकार को सही नहीं माना जा रहा था. हालांकि, नेहरू के प्रधानमंत्रित्वकाल में हुए तीन आम चुनावों ने इन आशंकाओं को निर्मूल साबित कर दिया.
नेहरू की लोकप्रियता अपार
नेहरू की लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि उनके विरोधियों की राजनीतिक जमीन हमेशा कमजोर ही रही. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी एवं कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया जैसे राजनीतिक दल अखिल भारतीय स्तर पर कभी नेहरू के समक्ष चुनौती नहीं प्रस्तुत कर सके. चौथे आम चुनावों के दौरान डॉ राममनोहर लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद वोटरों को लुभाने लगा.
कांग्रेस से मोहभंग के अफ़सानें सुनने वाले लोगों की संख्या बढ़ी तो इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पार्टी का कायांतरण हो गया. अब कांग्रेस सिर्फ इंदिरा एवं उनके के वफ़ादारों की पार्टी बन कर रह गयी थी. बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवीपर्स के उन्मूलन के पश्चात् उनकी गरीब हितैषी छवि सुदृढ़ हो गयी. वैसे, विविधताओं से परिपूर्ण देश की समस्याएं भी जटिल थीं और वे अपने समाधान ढूंढे जाने के लिए किसी महापुरुष की बाट जोह रही थीं. बिहार में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जिस संपूर्ण क्रांति का शंखनाद किया था उसका असर समस्त देशवासियों पर हुआ.
इंदिरा ने इस "आंतरिक अशांति" को नियंत्रित करने के लिए आपातकाल की घोषणा कर दी जिसके फलस्वरूप उनकी कार्यशैली ने तानाशाही की संज्ञा अर्जित की. विरोधी नेता जेल में डाल दिए गए और लोकतंत्र के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे. कन्नड़ लेखक शिवराम कारंथ और हिंदी साहित्य को मैला आंचल एवं परती परिकथा जैसी कृतियां देने वाले लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने-अपने पद्म पुरस्कारों के वापसी की घोषणा कर दी. लोकतांत्रिक भारत की यात्रा इसी मोड़ पर ही नहीं रुकी. आने वाले वर्षों में चुनाव भी हुए और सत्ता परिवर्तन का मार्ग भी प्रशस्त हुआ.
इस चुनाव में गठबंधन की वापसी
18 वीं लोकसभा चुनाव के परिणामों से संविद सरकारों के गठन की राजनीति को बल मिला है. 2014 में जब भाजपा को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था तो माना गया कि अब खंडित जनादेश की अवधारणा से देश को मुक्ति मिल गयी है. गठबंधन में शामिल घटक दलों की खींचतान के कारण राष्ट्रहित में कठोर फैसले लेना संभव नहीं हो पाता है. एच डी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के शासन काल में नीतियों के निर्माण की प्रक्रिया हमेशा बाधित ही रही. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सिर्फ एक वोट से लोकसभा में विश्वासमत हासिल नहीं कर सकी और संसदीय प्रणाली व बहुदलीय पद्धति की खामियां खुल कर सामने आ गयीं.
हालांकि, उसी वर्ष संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में उनके गठबंधन को कामयाबी मिल गयी. उन दिनों समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज एनडीए के कंवेनर हुआ करते थे. सहयोगी दलों को एकजुट रखने के लिए वे काफी सक्रिय रहते थे. तब देश का राजनीतिक मिजाज भिन्न था. अटलजी जय-पराजय को सहज भाव से स्वीकार करते थे. उनके विरोधियों ने उन्हें कभी तानाशाह नहीं कहा. कारगिल युद्ध के दौरान उनके भाषण से उत्तेजना नहीं फैलती थी बल्कि शांति का आश्वासन मिलता था.
2004 के लोकसभा चुनाव में उनकी हार हुई और कांग्रेस नेता मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार का गठन हुआ जिसे लगातार दस वर्षों तक शासन करने का अवसर मिला. इसके बावजूद पूर्ण बहुमत वाली सरकार के गठन की उम्मीदें खत्म नहीं हुईं.
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और भाजपा
गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता भाजपा के लिए असीमित संभावनाओं के द्वार खोल रही थी. सांगठनिक कौशल के प्रतीक लालकृष्ण आडवाणी अपनी ही पार्टी में अप्रासंगिक हो चुके थे. धर्मनिरपेक्षता का स्वांग रचने वाले नेता एवं राजनीतिक दल "आक्रामक हिंदुत्व" की बढ़ती स्वीकार्यता से परेशान रहने लगे, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ऐतिहासिक निर्णयों से राजनीतिक विमर्श को एक नई दिशा देने में सफल रहे. राजनीति का वह दौर भी समाप्त हो गया जिसमें "हिंदुत्ववादी भाजपा" को राजनीतिक रूप से अछूत माना जाता था.
वर्ष 2024 के शेष महीनों में मोदी को अपनी पार्टी में नई जान फूंकनी होगी, साथ ही अपने सहयोगी दलों जद(यू), टीडीपी, जनता दल (सेक्युलर), लोजपा( रामविलास), एनसीपी (अजित पवार), शिव सेना (एकनाथ शिंदे), राष्ट्रीय लोक दल एवं अपना दल (एस) की अलग-अलग आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए समझौते भी करने पड़ेंगे. अग्निवीर जैसी योजनाओं की समीक्षा से इंकार नहीं किया जा सकता. समान नागरिक संहिता पर अब बहस भी मुमकिन नहीं.
यूपी में सपा की जीत के मायने
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की जीत भाजपा की रणनीतिक विफलता का परिणाम है. फैजाबाद के भाजपा उम्मीदवार का बड़बोलापन पार्टी के लिए घातक सिद्ध हुआ. अखिलेश यादव उन सामाजिक समूहों को संगठित करने में कामयाब हुए जो खुद को "सत्ता के स्वाद" से वंचित मानते हैं. उत्साही भाजपा कार्यकर्ता केंद्रीय नेतृत्व के करिश्मे पर भरोसा जता कर स्थानीय लोगों की जरूरतों पर ध्यान देना मुनासिब नहीं समझे. पिछड़ा, दलित एवं अल्पसंख्यक गठजोड़ भारत का सामाजिक सत्य है. जो इस सत्य की उपेक्षा करेंगे उनकी चुनावी हार तय है. भाजपा को अपनी टिकट वितरण प्रणाली को भी दुरुस्त करना चाहिए.
लद्दाख़ के ओजस्वी सांसद जामयांग शेरिंग नामग्याल को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखना सही कदम नहीं माना जा सकता. विपक्ष ताकतवर एवं रचनात्मक हो तो लोकतांत्रिक संस्थाओं का चरित्र प्रातिनिधिक दिखता है. 1984 में चार सौ से अधिक सीटें जीतने वाली कांग्रेस अगर 2024 में 99 सीटें पाकर खुश हो रही है तो इस मानसिकता का स्वागत नहीं होना चाहिए.
इंडिया गठबंधन के घटक दलों के कुल सीटों की संख्या भाजपा के सीटों से कम है. भाजपा आज भी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का मानना है कि यह जनादेश प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ है. खड़गे की बातों को खारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन हकीकत यही है कि मोदीजी के नेतृत्व में एनडीए ने लगातार तीसरी बार लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हासिल किया है.
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