Blog: क्या कांग्रेस पार्टी अपना 'सेक्युलर' चेहरा बदलने पर मजबूर हो रही है?
चार महीने पहले हुए असम विधानसभा चुनाव में शिकस्त खाने के बाद कांग्रेस ने अपने सहयोगी दलों से नाता तोड़ने की शुरुआत कर दी है. इसी कड़ी में असम के बड़े मुस्लिम चेहरे बदरुद्दीन अज़मल की पार्टी AIUDF और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के साथ गठबंधन तोड़ने का फैसला लिया गया है, जिसे कुछ नेता राजनीतिक तौर पर उठाया गया गलत कदम बता रहे हैं.
कांग्रेस की प्रदेश यूनिट ने इसके पीछे बड़ी अजीब दलील देते हुए कहा है कि चूंकि अज़मल व उनकी पार्टी के अन्य नेता बीजेपी व मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे. इसलिए ये फैसला लिया गया. सवाल उठता है कि अपने सहयोगियों पर ऐसे आरोप लगाकर कांग्रेस इस सच्चाई से मुंह आखिर क्यों मोड़ रही है कि उसकी अपनी रणनीति ही इतनी कमजोर थी कि प्रियंका गांधी की तमाम कोशिशों के बावजूद वो सत्ता पर काबिज नहीं हो सकी? ऐसे वक्त जबकि विपक्षी महागठबंधन को जनहित से जुड़े मुद्दों पर असम की बीजेपी सरकार को घेरना चाहिए था, तब इस फैसले को राजनीतिक तौर पर इसलिए गलत बताया जा रहा है कि इससे विपक्ष की ताकत तो कमजोर होगी ही, साथ ही राज्य सरकार को मनमाने निर्णय लेने की और ज्यादा छूट मिल जाएगी.
गठबंधन के बावजूद कांग्रेस की हार
विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने उक्त दोनों पार्टियों समेत कुल दस दलों का महागठबंधन या महाजोत बनाया था. इस उम्मीद के साथ कि सत्ता पाना आसान हो जाएगा. कांग्रेस को यकीन था कि बदरुद्दीन को साथ लेने से सेंट्रल असम के साथ ही प्रदेश के ऊपरी इलाकों में उसका वोट बैंक बढेगा और सीटों में भी इजाफा होगा. लेकिन उसका ये आंकलन गलत साबित हुआ और उसे इन दोनों क्षेत्रों में नुकसान ही उठाना पड़ा. इतना बड़ा गठबंधन करने के बावजूद कांग्रेस को इस बार महज 29 सीटें मिलीं, जो 2016 में हुए चुनाव के मुकाबले सिर्फ तीन सीटें ही ज्यादा हैं. वैसे देखा जाए, तो कांग्रेस को पिछली बार भी निचले असम से सीटें आई थीं और इस बार भी उसी क्षेत्र ने उसकी लाज बचाई है.
इसी तरह अजमल की AIUDF को भी तीन सीटों का फायदा हुआ और वो 13 से बढ़कर अब 16 सीटों पर पहुंच गई है. लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान में रही बीपीएफ जो पिछली 12 सीटों के मुकाबले इस बार घटकर महज चार सीटों पर आ गई है. हालांकि, चुनाव नतीजों पर मंथन के लिए पिछली मई में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भी पार्टी की हार का सारा ठीकरा अज़मल के सिर ही फोड़ा गया था. तब भी कई नेताओं ने बदरुद्दीन अजमल के साथ गठबंधन करने को लेकर सवाल उठाए थे. लेकिन ये उम्मीद किसी को नहीं थी कि उन्हें इतनी जल्दी महाजोत से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
अजमल है कांग्रेस की हार कारण!
वैसे कांग्रेस का एक खेमा मानता है कि सीएए के खिलाफ असम के लोगों की नाराजगी और चाय बागान मजदूरों की दिहाड़ी समस्या को भी अगर पार्टी अपने पक्ष में भुना नहीं सकी, तो उसकी बड़ी वजह अज़मल की पार्टी से हाथ मिलाना ही था. दरअसल, बीजेपी ने इस बार के चुनाव में सिर्फ बदरुद्दीन अजमल के बहाने ही कांग्रेस पर सारे हमले किए थे, जिसका माकूल जवाब वहां धुंआधार प्रचार करने पहुंची प्रियंका गांधी समेत पार्टी की प्रदेश इकाई का कोई भी बड़ा नेता नहीं दे सका. नतीजा ये हुआ कि बहुसंख्यक समुदाय के दिमाग में कांग्रेस के प्रति शक बढ़ता गया और वो बीजेपी के साथ खड़ा नजर आया. अन्यथा मतदान से पहले तक मजबूत कयास यही था कि कांग्रेस के नेतृत्व वाला महागठबंधन इस बार बीजेपी की दोबारा सत्ता में वापसी को रोकने में कामयाब रहेगा.
असम के इस फैसले से यही संदेश जाएगा कि कांग्रेस अब अपना पुराना चेहरा बदल रही है. लिहाज़ा, इस घटना के बहाने कांग्रेस को अब गहराई से ये मंथन करने की जरुरत है कि वो अपनी सेक्युलर इमेज को ही बरकरार रखना चाहती है या फिर नरम हिंदुत्व के चेहरे को अपनाते हुए उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की लड़ाई लड़ना चाहती है. साथ ही गांधी परिवार के तीनों सदस्यों को ये भी सोचना होगा कि आखिर उनका नेतृत्व इतना कमजोर क्यों होता जा रहा है कि कांग्रेस शासित तीनों राज्यों-पंजाब, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में गुटबाजी इतने चरम पर पहुंच गई है, जो उनसे संभलते भी नहीं संभल रही है. कहते हैं कि मर्ज जाने बगैर कोई दवा असर नहीं करती और फिलहाल सबसे पुरानी पार्टी की हालत भी कुछ वैसी ही होती जा रही है.
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