नूंह हिंसा और हरियाणा की राजनीति, बीजेपी से जाटों की नाराज़गी हो सकती है कुछ कम, एक्सपर्ट से समझें
नूंह हिंसा के बाद हरियाणा के कई इलाकों में सांप्रदायिक तनाव का माहौल है. इस बीच हरियाणा की राजनीति पर भी इसके असर को लेकर सियासी चर्चा जोरों पर है. ख़ासकर बीजेपी से जाटों की नाराजगी से जुड़े मसले को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही है. सवाल ये भी उठ रहा है कि जातीय राजनीति के बजाय धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण होने पर क्या बीजेपी से जाटों की नाराजगी कम हो सकती है.
समाज में जब इस रूप में रेडिकलाइजेशन होगा तो निश्चित तौर से इसका असर राजनीति पर दिखेगा. हरियाणा में जब विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को जलाभिषेक करने से रोका जा रहा है, अगर इस रूप में नैरेटिव तय किया जाएगा तो निश्चित रूप से हरियाणा के अंदर जाट समुदाय हिंदू सेंटीमेंट के साथ खड़ा होगा और पहले भी खड़ा रहा है.
इसके साथ हमें ये भी समझना चाहिए कि जाट हरियाणा की राजनीति का सबसे प्रभुत्वशाली जाति है. ये समुदाय हमेशा से राजनीतिक तौर से प्रभुत्व में रहा है. लेकिन जाटों और मेवातियों, ख़ासकर मुस्लिम समुदाय, के बीच इस तरह की समस्या कभी नहीं रही है. मेवात का जो रीजन है, वो राजस्थान के अलवर और हरियाणा के नूंह को मिलाकर बनता है. राज्यों का जब पुनर्गठन हो गया तो मेवातियों का एक हिस्सा राजस्थान के अलवर भरतपुर में चला गया और एक बड़ा हिस्सा हरियाणा में है.
अक्टूबर 2014 में हरियाणा में बीजेपी सरकार आने के बाद गौ रक्षा और ये सब मुद्दे खड़े हुए, जो राजस्थान और हरियाणा दोनों से कनेक्टेड हैं. हरियाणा में गौ हत्या के खिलाफ बहुत ही सख्त कानून भी बना हुआ है. इसमें फांसी तक की भी सज़ा है.
बीजेपी सरकार आने के बाद कहीं न कहीं हरियाणा में गौ रक्षकों का हौंसला भी बढ़ा है. मेवात मुस्लिम बहुल रीजन है. नूंह जिले में लगभग 80 फीसदी आबादी मुस्लिम समुदाय की है. यहां पर तबलीग़ी जमात की भी काफी मौजूदगी है. हरियाणा की 22 जिलों में से सिर्फ यही एक जिला है, जहां पर मुस्लिम समाज का डोमिनेशन है.
गौ रक्षा का इश्यू यहां हमेशा रहा है. यहां पर हिंदू-मुस्लिम के बीच में संघर्ष के लिए गौ रक्षा का मुद्दा कहीं न कहीं केंद्र बिंदु में रहा है. 2014 के बाद ये स्थिति बढ़ी है क्योंकि बीजेपी का शासन आने के बाद गौ रक्षकों को लगा कि अह हमारी सरकार है, तो हमें इस पर ज्यादा काम करना चाहिए. बीजेपी सरकार ने यहां पर गौ सेवा आयोग का गठन किया हुआ है. गौ हत्या पर यहां सख्त कानून है.
मोनू मानेसर (मूल नाम मोहित यादव) वाला जो मामला खड़ा हुआ है, वो राजस्थान और हरियाणा दोनों से जुड़ा हुआ है. आपने सुना ही होगा कि कुछ महीने पहले राजस्थान के दो लोगों को गौ तस्कर का आरोप लगाकर जिंदा जला दिया गया था. वो मामला चल रहा है.
नूंह हिंसा के बाद जब रेडिकलाइजेशन कम्युनल लाइन पर होगा, तो निश्चित तौर से हरियाणा का जाट समुदाय कहीं न कहीं अपने हिंदू सेंटीमेट को चुनेगा. हरियाणा में 2014 से पहले ज्यादातर मुख्यमंत्री जाट समुदाय से रहे हैं. उससे पहले ऐसी कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं रही है. अब जो मैं समझता हूं, उसके मूल में समस्या ये है कि गौ रक्षा का दबा-छिपा विषय और गौ तस्करी का विषय इस इलाके में हमेशा से रहा है. 2014 के बाद से हिंदूवादी संगठनों का रिटैलिएशन बढ़ गया है. मेरे हिसाब से ये जो संघर्ष या तनाव हो रहा है, उसके मूल में वजह ये है.
हरियाणा की राजनीति में विभाजन हिंदू जातियों के बीच में थी. जाट और गैर-जाट का नैरेटिव हरियाणा की राजनीति का केंद्र बिंदु रहा है. जलाभिषेक यात्रा को लेकर हुई हिंसा के बाद यहां जातीय ध्रुवीकरण की लाइन कमजोर पड़ेगी और फिर वो लाइन बदल भी सकती है.
उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने जो कहा है, उसमें एक महत्वपूर्ण बात है. अभी भी कोई ऐसी लिखित दस्तावेज सामने नहीं आया है, जिसमें ये साफ दिखे कि विश्व हिंदू परिषद की जलाभिषेक यात्रा के लिए लिखित परमिशन ली गई थी. ऐसा कोई ऑर्डर अभी तक पब्लिक डोमेन में नहीं है.
इस जलाभिषेक यात्रा को विश्व हिंदू परिषद ही आयोजित करा रहा था और आनुषंगिक संगठन के नाते बजरंग दल के लोग भी इसमें जुड़े हुए थे. इस यात्रा के लिए हरियाणा के सभी 22 जिलों से विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता इकट्ठे हुए थे. उस यात्रा में सिर्फ नूंह मेवात के ही लोग थे, ऐसा नहीं है. हरियाणा के विभिन्न जिलों से लोग आए थे.
बजरंग दल के कार्यकर्ता, जिन्होंने सोशल मीडिया पर बयान दिया कि मैं उसमें आ रहा हूं, वे सभी गौ रक्षा आंदोलन से जुड़े हुए हैं. गौ रक्षा को लेकर इस एरिया में कहीं न कहीं हिंदू-मुस्लिम के बीच टेंशन रहता है.
गौ रक्षा वाले, चाहे बिट्टू बजरंगी हो, या मोनू मानेसर हो..ये भी कह रहे थे और उधर से भी जो लोग हैं, यानी मुस्लिम पक्ष वाले भी लगातार कह रहे थे कि ये लोग यात्रा में आए तो क्लैश होगा, हम जवाब देंगे. टेंशन की जड़ में कहीं न कहीं राजस्थान के जो दो लड़के जुनैद और नासिर जलाए गए थे...उस वक्त से ये सब चीजें चल ही रही थी.
नूंह जिले में 3 विधानसभा सीट है और तीनों पर कांग्रेस से मुस्लिम विधायक हैं. परंपरागत तौर से ये इलाका कांग्रेस को वोट करता है. वहां कांग्रेस कोई विषय नहीं है, लेकिन दो विधायकों का नाम आ रहा है, जो फुटेज आ रहे हैं कि उन्होंने भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण तरीके से बयान दिए थे कि अगर गौ रक्षा आंदोलन वाले यहां आए और यात्रा में शामिल हुए तो हम उसका जवाब देंगे.
अगर इस पूरी घटना को देखें तो अगर रेडिकलाइजेशन कम्युनल लाइन पर होगा तो जाट समुदाय बीजेपी के साथ ही खड़ा दिखेगा. यही चिंता जेजेपी के नाता और उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला को है. उनको ये लग रहा है कि अगर बीजेपी ने इस लाइन पर रेडिकलाइज कर लिया तो उनका वोट बैंक खिसक सकता है.
किसानों को जो आंदोलन हुआ था, अगर हम सामाजिक तौर से देखेंगे तो उसमें जाट और पगड़ी बांधने वाले सरदार (लैंड होल्डिंग ज्यादा है) लोगों की भूमिका बहुत बड़ी थी. पहलवानों का जो प्रदर्शन हुआ है, तो हरियाणा में जो कुश्ती लड़ते हैं या बॉक्सिंग करते हैं, उनमें 90 फीसदी से ज्यादा जाट समुदाय से होते हैं. विनेश फोगाट, साक्षी मलिक, बजरंग पूनिया ये सभी जाट समुदाय से आते हैं.
हरियाणा के अंदर भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पक्ष में जाटों का ध्रुवीकरण तेजी से चल रहा है. ये हर सर्वे में भी रिफ्लेक्ट हो रहा है. आम तौर से जाट बीजेपी से उस तरह से खुश नहीं है, जिस तरह से पहले जब उनके समाज से मुख्यमंत्री हुआ करते थे. ये एक विषय काफी महत्वपूर्ण है.
अगर नूंह हिंसा का मुद्दा बड़ा चलता है तो अगर हरियाणवी समाज में रेडिकलाइजेशन इस बात को लेकर होता है कि देखिए मेवात में मुस्लिम समाज में हमें शिव यात्रा तक निकालने नहीं दी... तो हिंदू सेंटीमेट के साथ जाट समुदाय का एक बड़ा वर्ग जाएगा. ऐसा हुआ को ये बीजेपी के लिए फायदेमंद होगा.
हरियाणा के अंदर आर्य समाजियों का बहुत प्रभाव है. इसमें सबसे ज्यादा जाट समुदाय के ही लोग हैं. हरियाणा में कांवड़ यात्रा में भी जाट और पिछड़े वर्ग के लोग ही ज्यादा होते हैं. कम्युनल लाइन से जातीय ध्रुवीकरण कमजोर होगा. यही वजह है भूपेंद्र सिंह हुड्डा, दीपेंद्र हुड्डा या फिर दुष्यंत चौटाला ...ये सभी जाट समुदाय से हैं.. उन सभी की चिंता यही है.
जहां तक सवाल है कि जेजेपी, बीजेपी के साथ रहेगी या नहीं.. मेरा आकलन है कि फिलहाल जेजेपी एनडीए में है. दिल्ली में हुई एनडीए की बैठक में भी जेजेपी को बुलाया गया था. लोकसभा चुनाव तक बीजेपी-जेजेपी गठबंधन में बदलाव के कोई संकेत नहीं हैं. 2024 में लोकसभा का चुनाव दोनों मिलकर ही लड़ेंगे.
जेजेपी इनके साथ ही है, लेकिन नूंह जैसे कुछ मुद्दों पर ये पूरी तरह से साथ नहीं भी हैं. दुष्यंत चौटाला ने ही यात्रा से जुड़े परमिशन को लेकर सवाल उठाए हैं. उन्होंने ये भी सवाल उठाया है कि विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के लोग असलहे लेकर यात्रा में क्यों गए थे. दुष्यंत चौटाला कहीं न कहीं अपनी पॉलिटिकल लाइन क्लीयर रखना चाह रहे हैं. वे मुसलमानों और विश्व हिंदू परिषद के मामले में निष्पक्ष दिखना चाह रहे हैं.
10 साल आप शासन करते हैं तो एंटी इनकंबेंसी का नैरेटिव रहता ही है. दूसरी बात..भारतीय जनता पार्टी ने जिस नैरेटिव पर यहां सरकार बनाई वो महत्वपूर्ण है. 1996 के बाद 2014 में पहली बार नॉन-जाट कोई मुख्यमंत्री हरियाणा में बना. कहीं न कहीं अंदर ये बात रहती है कि मुख्यमंत्री जाट समुदाय से हो, उसी तरह से बाकियों को लगता है कि गैर जाट समुदाय से हो. इस नैरेटिव पर बीजेपी को 2014 और 2019 दोनों विधानसभा चुनाव में वोट मिला था.
2014 के बाद जो घटनाएं हुई हैं, चाहे जाट आरक्षण आंदोलन हो, किसान आंदोलन या फिर पहलवानों का प्रदर्शन हो..साथ ही कई और भी मुद्दे हैं, जिनको लेकर लोगों में नाराजगी है. बीजेपी की पकड़ ढीली तो हुई है, तभी तो 2014 में पूर्ण बहुमत मिलता है और 2019 में बहुमत से ये 6 सीट दूर रह जाती है. 2014 के बाद इतने साल हुए हैं तो स्थिति कहीं न कहीं कमजोर हुई है. यहां के लोगों को लगता है कि जिस उम्मीद के साथ, जिस नैरेटिव को लेकर 2014 और 2019 में वोट किया था, उस कसौटी पर बीजेपी पूरी तरह से सफल नहीं रही है. ऐसी स्थिति में बीजेपी को ये डर तो है ही कि 2024 में तीसरी बार सत्ता मिल पाएगी या नहीं.
आम तौर पर आप देखेंगे कि हरियाणा में हर पांच साल पर या तो सरकार बदलती है या जिस पार्टी की सरकार होती है, उसकी सीटों की संख्या कम होती है, उसको पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है. बीजेपी के डर की एक बड़ी वजह है. 2021 में हरियाणा में नगरपालिका, नगर परिषद, जिला परिषद, पंचायतों के चुनाव हुए थे. उन चुनावों में बीजेपी को बहुत झटका लगा था. इससे बीजेपी को संकेत मिला कि उनकी स्थिति कहीं न कहीं धीरे-धीरे कमजोर हुई है.
हरियाणा में चूंकि कांग्रेस ही दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है. यहां पर कांग्रेस पर हुड्डा परिवार का ही लगभग नियंत्रण है. पिछले दिनों में हुड्डा परिवार को लेकर हरियाणा में समर्थन बढ़ा है. इसलिए बीजेपी को चिंता है और इसके संकेत उनको 2021 के स्थानीय निकाय चुनावों में ही मिल गए थे.
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