ओडिशा के बालासोर जिले में शुक्रवार यानी 2 जून की शाम दर्दनाक रेल हादसा हुआ. हावड़ा जा रही बेंगलुरु-हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस के कई डिब्बे बाहानगा बाजार में पटरी से उतर गए और दूसरी पटरी पर जा गिरे. पटरी से उतरे ये डिब्बे  शालीमार-चेन्नई कोरोमंडल एक्सप्रेस से टकरा गए और इसके डिब्बे भी पलट गए. कोरोमंडल एक्सप्रेस के डिब्बे पटरी से उतरने के बाद एक मालगाड़ी से टकरा गए, जिससे मालगाड़ी भी दुर्घटना की चपेट में आ गई. हादसे में ढाई सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो गई है, 900 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं. इस हादसे के बाद एक बार फिर से रेलवे की सुरक्षा पर बहस शुरू हो गयी है.


यह दुर्घटना अभूतपूर्व और अजीब


भारत में कई कारणों से पहले रेल-दुर्घटनाएं हुई हैं, लेकिन तीन-तीन ट्रेनों का जिस तरह एक्सिडेंट हुआ है, वह सचमुच चौंकानेवाला और बेहद दुखद है. कितनों की मौत हुई, कितने घायल हुए, आंकड़ा अभी और बढ़ता ही जाएगा. ये रेलवे के लिए भी एक सबक है कि खासकर पैसेंजर ट्रेन के मामले में अब तक की कमियों को दुरुस्त किया जाए. अगर कोई मालगाड़ी दुर्घटनाग्रस्त होती है, तो धन की हानि होती है, जनहानि से हम बचे रहते हैं, लेकिन ऐसी दुर्घटना में तो धन और जन दोनों की हानि होती है. यह दरअसल रेलवे के लिए आत्मनिरीक्षण का भी समय है. लंबी-चौड़ी बातें की गई. वंदे भारत का ढिंढोरा पीटा गया, लेकिन जो मूलभूत काम है, वह नहीं हो पा रहा. जब हमलोग स्पीड की, वंदे भारत की और न जाने कितनी बड़ी बातें करते हैं, उस समय में ऐसी दुर्घटना का होना कई सवाल खड़े करता है.


इससे पहले ऐसा भीषण हादसा फिरोजाबाद में हुआ था. तब पी. वी. नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे. उसमें भी बहुत ज्यादा जाने गयी थीं और दो ट्रेनों की टक्कर हुई थी. दोनों ही पैसेंजर ट्रेन थी और उसमें से एक पुरुषोत्तम एक्सप्रेस थी. उसके बाद तत्कालीन पीएम नरसिंह राव ने खुद सिग्नलिंग व्यवस्था को पूरा ओवरहॉल करवाया था. तब लोको पायलट यानी ट्रेन के ड्राइवर और गार्ड में कम्युनिकेशन का कोई जरिया नहीं था. उस दुर्घटना के बाद रेलवे में कई चीजें हुई थीं. दोनों के बीच कम्युनिकेशन सिस्टम तभी शुरू हुआ था. उसके साथ ही सिग्नलिंग पर भी बहुत काम हुआ था. उसी समय यानी 90 के दशक के दौरान ही कोंकण रेलवे ने टक्कररोधी उपकरण भी बनाया था. वह स्वदेशी उपकरण था. उसी को और विकसित कर, अपग्रेड कर कवच बनाया गया. अब पूरी रेल-प्रणाली पर उसको लगा देने की जरूरत है. उसमें ज्यादा लागत भी नहीं आएगी.


इसके पहले इंदौर में भी दुर्घटना हुई थी, लेकिन वह मूलतः प्राकृतिक कारणों से था. वेस्टर्न हिस्से की दुर्घटना के बाद सुरेश प्रभु को इस्तीफा देना पड़ा था, लेकिन ऐसी भयानक दुर्घटना तो अजीब है. इससे पहले कुछ ऐसी दुर्घटनाएं हुईं, जिसमें पुल के नीचे ट्रेन चली गयी, गैसल दुर्घटना भी वैसी ही थी, लेकिन यह तो बिल्कुल अजीब ही है. 


बुनियादी ढांचे को बेहतर करे रेलवे


भारत में तो अभी हम रेलवे ट्रैक भी 70 हजार किलोमीटर नहीं कर पाए हैं. चीन में आज से 100 साल पहले उतनी रेल लाइन भी नहीं थी, जितनी आज के यूपी में है, लेकिन आज तो चीन ने हमें बहुत पीछे छोड़ दिया. इसके पीछे कई बार राजनीति भी होती है. जैसे, मान लीजिए सीके जाफर शरीफ आ गये, तो वो कर्नाटक का करने लगे. नीतीश कुमार और लालूजी ने बिहार के लिए कोशिश की, क्योंकि वहां सबसे पुराना रेल कारखाना लगा, लेकिन उसके बाद कुछ हुआ ही नहीं. नीतीश कुमार ने कई योजनाएं शुरू कीं, लेकिन उनके समय बहुत दुर्घटनाएं हुईं. आपको अगर याद हो तो यूपीए सरकार के समय राष्ट्रीय संरक्षा कोष बना, जिसमें सुरक्षा और संरक्षा से जुड़े मसले सुलझाए गए. दिनेश त्रिवेदी ने भी इस पर काम करवाया और दो अलग कमेटी बनाकर रेलवे की सुरक्षा और संरक्षा को बारीकी से जांचा-परखा. उसमें से एक मसला तो सुलझ गया. वह मसला था- अनमैन्ड लेवल क्रॉसिंग का. वह मसला हालांकि पूरी तरह नहीं खत्म हुआ है, लेकिन महत्वपूर्ण औऱ बड़ी जगहों पर वह सुलझ गया है, तो अनमैन्ड लेवल क्रॉसिंग पर आजकल दुर्घनटनाएं नहीं होती हैं.


सुरेश प्रभु एक विजनरी रेलमंत्री थे. रेलों का चिंतन शिविर उन्होंने शुरू किया. रेलवे में भी पूरी एक चेन होती है. एक छोटी सी गलती भी कई लोगों की जान ले सकती है. उस पर बहुत ध्यान दिया गया और कई छोटी बातें सुलझाई गईं. 


जीरो दुर्घटना पूरा सत्य नहीं


अगर अभी आप गौर करेंगे तो संसद में रेलमंत्री ने लगातार इस बात का क्रेडिट रेलवे को दिया है कि जीरो दुर्घटना हुई है. हालांकि, ये पूरा सत्य नहीं है. रेलवे की दुर्घटना का मतलब ये नहीं होता है कि दो ट्रेनों की टक्कर हो गयी. कई तरह की दुर्घटनाएं होती हैं. ऑस्ट्रेलिया के बराबर आबादी हर दिन सफर करती है. कभी कोई ट्रेन से कट कर मर जाता है, कहीं कुछ हो जाता है, तो जीरो दुर्घटना का कोई मतलब नहीं है. ये हो भी नहीं सकता है.


एक अरब टन माल ढुलाई यूपीए की सरकार में ही शुरू हो गयी थी. जब सरकार ये दावा कर रही थी कि अब हम तकनीक में बहुत आगे जा रहे हैं, तो इस पर भी ध्यान दें. रेलवे के आधुनिकीकरण की जो योजनाएं यूपीए के समय बनीं थीं, अभी भी वही हैं और कुछ नया बना नहीं है. जो गोल्डन ट्रैक रूट है, जिस पर यूपी-बिहार औऱ बंगाल के लोग चलते हैं, उस पर अगर 100 ट्रेन चलनी चाहिए तो आज 150 चल रही है.


एक मजे की बात है. राजधानी से पहले भी जब फ्रंटियर ट्रेन चलती थी, तो सात सिग्नल को ग्रीन रखा जाता था. अब तकनीक बदल गयी है, भारी-भरकम ट्रेनें हो गयी हैं. कई इलाकों में तो प्लेटफॉर्म भी इस लायक नहीं होती तो लोग कहीं और दूर उतरते हैं.


यह सरकार के लिए आत्मनिरीक्षण का समय है. रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा है कि 1200 स्टेशनों को अपग्रेड करेंगे. उससे अधिक जरूरी है कि बहुत बारीकी के साथ एक्सपर्ट इस पर काम करें कि ऐसी दुर्घटना आखिर कैसे हो गयी. दुर्घटना होती है तो सरकार की आलोचना होती है, लेकिन उनसे दूर रहकर सरकार को अपने मजबूत पक्ष पर ध्यान देना चाहिए. तकनीक को सुधारने के साथ रेलवे के आधारभूत ढांचा को सुधारने के साथ ही बहुत अधिक निवेश की जरूरत है. बाहरी दुनिया में बहुतेरे परिवर्तन हो रहे हैं, उस पर काम करने और उन्हें अंगीकार करने की जरूरत है.


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)