'ओडिशा ट्रेन हादसा, जबरन सांप्रदायिक रंग देना, मस्जिद को बीच में लाना...न तो देश और न ही जनता के हित में'
बालासोर ट्रेन हादसा देश के सबसे भीषणतम हादसों में से एक है. ये काफी चिंताजनक है कि जब पूरा देश इस हादसे के बाद मातम में था, उस वक्त भी सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों से इस हादसे को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की जा रही थी.
घटनास्थल के पास की एक तस्वीर को वायरल किया जा गया, जिसमें घटनास्थल के पास में एक बिल्डिंग के मस्जिद होने का दावा किया गया. जबकि वास्तविकता में वो बिल्डिंग इस्कॉन मंदिर का था. उसी तरह से स्टेशन मास्टर को मुस्लिम बताकर घटना के बाद भाग जाने की बात फैलाई गई. हादसे का दिन शुक्रवार था, उसको लेकर भी मैसेज फैलाए गए. सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक रंग देकर इसे आतंकी साजिश के तौर पर बिना जांच के ही प्रचारित किया गया.
हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जहां हर मौके पर एक अवसर ढूंढ़ा जाता है. आपदा में भी अवसर ढूंढ़ने की कोशिश की जाती है. ये कोशिश की जाती है अगर हम आपदा को सांप्रदायिक दिखा दें, तो जो भी ऐसे मौके पर भी ध्रुवीकरण चाहता होगा, उसको लगता है कि इससे सारे वोट पोलेराइज हो जाएंगे और उनको बहुत फायदा होगा.
जिस तरह से ये चीजें हो रही है, उसे देखें तो वहां पर मस्जिद दिखाया गया, उसी ट्वीट में स्टेशन मास्टर को मुस्लिम बताने की कोशिश की गई. जबकि वास्तविकता में वे मुस्लिम नहीं थे.
इसमें एक चीज समझना पड़ेगा. देश में चुनाव आज से नहीं हो रहे हैं. चुनाव 1952 से हो रहे हैं. मैं 1957 से चुनाव को किसी न किसी रूप में देख रहा हूं, चाहे छात्र रूप में या फिर पत्रकार के तौर पर. कभी भी हमने नहीं देखा कि सरकारें चुनाव के बाद भी चुनाव के मोड में होती है. चुनाव के बाद सभी सरकारें अपने हिसाब से काम करने लगती हैं. सरकार और जनता के बीच में एक संवाद होता था. सामान्य तौर से पहले मैंने सरकार और जनता के बीच संघर्ष नहीं देखा.
शायद पहली बार 1974 में जब गुजरात में जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में नवनिर्माण आंदोलन हुआ, तब पहली बार सरकार, जनता की तरफ थोड़ी सी सशंकित होकर देखने लगी. उस फेनोमेनन का सीधे-सीधे चुनाव से कोई ताल्लुक नहीं था. जनता में कहीं न कहीं ये परसेप्शन था कि सरकार ठीक से काम नहीं कर रही है और आवाज उठानी चाहिए. अलग-अलग जगह से आवाज उठ भी रही थी.
लेकिन पिछले कुछ सालों से यहीं हो रहा है कि चाहे केंद्र का हो या राज्य का हो या फिर स्थानीय निकायों का हो. हर वक्त हमें दिखाया जाता है कि हम चुनाव में हैं, चुनाव के लिए ही हम जिंदा हैं और चुनाव ही सबकुछ हो गया है देश के लिए. चुनाव ही सबकुछ नहीं होता है. चुनाव इसलिए होता है कि सरकार की व्यवस्था चलती रहे और जनता उसमें हिस्सेदार हो.
हर घटना या मुद्दे को पॉलिटिकल प्रोसेस से जोड़ते रहना, जनता को उसी मोड में रखना, ये एक नया ट्रेंड हम देखते हैं. पहले सरकार कहती थी कि अब चुनाव खत्म हो चुका है और अब हम सबके लिए काम कर रहे हैं. वो जो एक सामान्य प्रक्रिया थी, उसमें कहीं न कहीं हमें बदलाव देखने को मिलता है. मैं मानता हूं कि ये जो कोशिश की जा रही है, ये न तो सरकार के हित में है, न जनता के हित में और न ही देश के हित में है.
भारत में ट्रेन हादसा पहले से ही होते रहे हैं और संसद समितियों, सीएजी और रेलवे की जो आंतरिक रिपोर्ट है, उसमें हर जगह यही दिखाया गया है कि ट्रैक मेंटेनेंस, सिग्नल मेंटेनेंस और बाकी तकनीकी पहलू ही हादसों के लिए जिम्मेदार रहे हैं.
2016 की ही हम बात करें तो पटना-इंदौर एक्सप्रेस कानपुर में डिरेल हो जाती है. डेढ़ सौ लोग मर जाते हैं. उसमें भी तमाम तरह के क्रिमिनल पहलू देखे जाते हैं. उसकी भी जांच एनआईए को सौंपी जाती है, जैसे बालासोर हादसे की जांच सीबीआई को दी गई है. अभी रेलवे के सेफ्टी कमिश्नर की जो इन्क्वायरी है, वो अभी शुरू होनी है. उससे पहले ही सीबीआई वहां पहुंच जाती है. सवाल है कि एनआईए या सीबीआई के पास इस तरह के हादसों की जांच के लिए टेक्निकल जांच की क्षमता है क्या. मैं समझता हूं कि ये तरीका भी गलत है.
किसी धर्म या संप्रदाय की छवि को नुकसान पहुंचाने की बजाय हादसों की सही वजह पता करने की जरूरत है. जिस तरह से सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई कि हादसे का दिन शुक्रवार था, पास में एक मस्जिद था, हालांकि वहां इस्कॉन का मंदिर था, ये सही नहीं है.
मैं समझता हूं कि जो भी ये कर रहे हैं,उनको ये नहीं करना चाहिए. बालासोर हादसे को सांप्रदायिक रंग देने से जुड़े जो भी पोस्ट हैं, मैंने देखा है कि वे कई भाषा में उड़िया, बांग्ला, हिंदी और अंग्रेजी में भी एक ही साथ समान भाव या कहें कंटेंट को लिए हुए वायरल किए गए. इसका मतलब है कि ये सारी चीजें किसी एक केंद्रीय बिन्दु से जारी की जा रही हैं. मुझे लगता है कि अगर सीबीआई को साजिश से जुड़े मसले पर काम करना है तो इस बिंदु को सबसे पहले देखना चाहिए कि ये सारे पोस्ट कहां से फैलाए गए हैं. इसमें कौन लोग थे और क्यों किया. वहां से उनको जांच करने की शुरुआत करनी चाहिए.
2016 पटना-इंदौर एक्सप्रेस के कानपुर में डिरेल होने का जो मामला था, उसमें एनआईए ने 2017 में ही ये संकेत दे दिया कि वे कोई चार्जशीट फाइल नहीं कर रहे हैं. एनआईए का काम तो क्रिमिनल काम है. आजतक उन्होंने ये नहीं कहा कि वे उस पर कोई कार्रवाई कर रहे हैं. उस वक्त भी किसी साजिश की आशंका जताई गई थी. एनआईए के रुख से साफ है कि वो साजिश को लेकर कोई सबूत नहीं जुटा पाई. इसका मतलब है कि वहां कोई क्रिमिनल कृत्य नहीं हुआ है. डिरेल की घटना की वजह ट्रैक से जुड़ी खामी या दूसरे तकनीकी पहलू रहे होंगे. हर जगह साजिश को लेकर माहौल बनाना और किसी ख़ास समुदाय के लोगों को टारगेट करना सही नहीं है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]