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Omicron Variant: ये महामारी है लेकिन चुनावी रैलियों में भीड़ जुटाना भी इन्हें जरुरी है!

Assembly Elections 2022:

"जरूरत और जबरदस्ती में अंतर तो समझो ,

ये एक महामारी है, इसे मजाक ना समझो."

देश में जब कोरोना की पहली लहर आई थी,तब किसी अनाम शायर ने ये पंक्तियां लिखी थीं.लेकिन पौने दो साल बाद यही अल्फ़ाज़ हमें दोबारा सावधान करते हुए इस महामारी के उसी पुराने अंज़ाम की याद दिला रहे हैं. आपने शायद इसे हल्के में लिया हो लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस अदृश्य दुश्मन के बदलते हुए नये भेस के संभावित हमले को बेहद गंभीरता से लिया है औऱ उससे बचने के लिए अपने विदेश जाने का दौरा टाल दिया है.उनके इस फैसले की तारीफ  होनी भी चाहिए लेकिन बड़ा सवाल ये उठता है कि अपने देश के पांच राज्यों में होने से चुनाव से पहले तमाम राजनीतिक पार्टियां आखिर इतनी बेपरवाह क्यों हो गई हैं?

कोरोना का विस्फोट करने वाली हर दिन हो रही ऐसी चुनावी रैलियों में इतनी जबरदस्त भीड़ जुटाने के लिए हमारे स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी भला इन सियासी दलों को नहीं,तोआखिर और किसे दोषी ठहराएंगे? लेकिन सच तो ये है कि महामारी का खौफ़ किसी भी पार्टी के एजेंडे में नहीं है,इसलिये कि चुनावी सभा में भीड़ जुटाकर अपनी ताकत की नुमाइश करना ही उनका मकसद है. यही मकसद सभी पार्टियों को उस महामारी की याद भुला देता है,जो लोगों के लिए सबसे बड़ा डर है और वे उसके शिकंजे में आने से हर तरह से बचना चाहते हैं.

सोचने वाली बात ये है कि किसी राज्य के चुनाव की रैलियां महत्वपूर्ण है या फिर इंसान की जिंदगी? इसका जवाब ये है कि सियासी पार्टियों को आम आदमी की जिंदगी से ज्यादा अपने वोटों की फिक्र है,जिसके भरोसे ही वो अपने राज्य की सत्ता में आना चाहती हैं.चूंकि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान अभी नहीं हुआ है,इसलिये हर पार्टी रैलियों में बेतहाशा भीड़ जुटाकर अपनी पूरी ताकत झोंक रही है.जाहिर है कि यूपी में बीजेपी इसमें अव्वल नंबर पर है और उसका जवाब देने में समाजवादी पार्टी भी ज्यादा पीछे नहीं है. आपने भी इन दोनों पार्टी के बड़े नेताओं की चुनावी-सभाओं में जुटी भीड़ में अधिकांश लोगों को मास्क न लगाते हुए देखा होगा और फिर ये भी सोचा होगा कि पांच लोगों के एक जगह पर इकट्ठा होने पर अपने शहर में चलने वाले कानून का डंडा आखिर ऐसी रैलियों में भला कहाँ गायब हो जाता है?

सवाल ये नहीं है कि देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव तय वक़्त पर आखिर क्यों नहीं होने चाहिए लेकिन उससे बड़ा और गंभीर मसला ये है कि राजनीतिक दलों को लोगों की जिंदगी से ज्यादा  अपनी रैलियों में हजारों लोगों की भीड़ जुटने-जुटाने से आखिर इतना मोह क्यों है? देश की जनता को कोरोना से बचाव के तरीकों का प्रवचन देने वाले तमाम दलों के नेता आखिर स्व-अनुशासन का पालन करते हुए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये अपनी बात जनता तक पहुंचाने से इतना डरते क्यों हैं? जिस वैश्विक महामारी के ख़तरों के बारे में आज एक स्कूली बच्चा भी जानता है,उसे समझाने और इन चुनावी रैलियों में भीड़ इकट्ठा करके तमाशा देखने-दिखाने की इस सियासी आदत को रोकने के लिए क्या ये जरूरी है कि कोई इंसान देश की शीर्ष अदालत की शरण ले और फिर सुप्रीम कोर्ट की फटकार खाने के बाद ही हमारे नेताओं को होश आये?

चूंकि इन पांच राज्यों में चुनाव की तारीख का ऐलान अभी नहीं हुआ है,लिहाज़ा इसके लिए केंद्रीय निर्वाचन आयोग को फिलहाल कटघरे में नहीं खड़ा कर सकते कि वे ऐसी भीड़ भरी रैलियों पर रोक लगाने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग क्यों नहीं करता.लेकिन हैरानी की बात ये है कि इस महामारी की दस्तक देते ही जिस WHO की गाइडलाइन के मुताबिक देश का स्वास्थ्य मंत्रालय पिछले पौने दो साल से हर राज्य सरकार पर अपने सख्त नियमों का चाबुक चलाता आ रहा है,उसे इस भीड़ के जरिये होने वाला कोरोना का विस्फ़ोट आखिर क्यों नहीं दिखाई दे रहा या फ़िर उसने जानबूझकर अपनी आंखें बंद कर रखी हैं? ये सवाल अभी तो चुभेगा लेकिन अगर वाकई ऐसी भीड़ की वजह से कोरोना ने अपना विकराल रुप धारण कर लिया,तब मंत्रालय में बैठे लोगों के पास भी शायद इसका जवाब नहीं होगा कि इस पर रोक लगाने के लिए आखिर किसने उनके हाथ बांध रखे थे.

बुधवार की शाम ये खबर आई कि कोरोना वायरस के नए वेरिएंट ओमिक्रोन के खतरे के मद्देनज़र प्रधानमंत्री मोदी ने यूएई और कुवैत का अपना दौरा फिलहाल टाल दिया है.बताया गया कि पीएम का ये दौरा नए साल पर छह जनवरी के आसपास होने की संभावना थी. साल 2022 में पीएम का ये पहला दौरा होता. दोनों पक्ष इसकी तारीख तय करने को लेकर विचार कर रहे थे. प्रधानमंत्री की रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण खाड़ी देश की प्रस्तावित यात्रा ऐसे समय में हो रही थी, जब दोनों देश अपने कूटनीतिक संबंधों के 50 साल पूरे कर रहे हैं. लेकिन कितना अच्छा होता कि अपनी इस विदेश यात्रा को टालने के फैसले को एक बड़ा जरिया बनाते हुए वे यह भी ऐलान कर देते कि ऐसी भीड़ भरी चुनांवी रैलियों पर फिलहाल रोक लगा देनी चाहिए और इसकी पहल खुद उनकी पार्टी की तरफ से ही होती, ताकि बाकी दल भी उसे अपनाते.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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