एक करोड़ का एक वोट, कैस बचेगा लोकतंत्र?
कोरोना चरम पर है लेकिन राजनीति को कोई फर्क नहीं पड़ता. यूपी से खबर आ रही है कि वहां पंचायत चुनाव के बाद जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख बनने के लिए करोड़ों का खेल चल रहा है. जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव जिला पंचायत सदस्य करते हैं और यूपी के स्थानीय अखबारों से लेकर सोशल मीडिया में आ रहा है कि एक-एक सदस्य की कीमत पचास लाख से लेकर एक करोड़ लगाई जा रही है. इसी तरह ब्लॉक प्रमुख के लिए सदस्यों का रेट तीन लाख जा रहा है. कहा जा रहा है कि निर्दलीयों पर ज्यादा ध्यान है लेकिन प्रमुख राजनीतिक दलों के निर्वाचित सदस्यों पर भी डोरे डाले जा रहे हैं. जब विधायक से लेकर सांसद हॉर्स ट्रेडिंग का हिस्सा हो सकते हैं तो पंचायत के प्रतिनिधि क्यों नहीं. अब बड़ा सवाल उठता है कि आखिर इतना पैसा क्यों खर्च किया जा रहा है और इतना पैसा खर्च करके जिला पंचायत अध्यक्ष कोई बन भी गया तो क्या हासिल कर पाएगा?
इस सवाल का जवाब देने से पहले कुछ साल आपको पीछे लेकर जाना चाहता हूं. नब्बे के दश्क की बात है. राजस्थान के राजसमंद जिले (तब जिला नहीं था, तब उदयपुर जिले का हिस्सा था) के देव डूंगरी गांव में अरुणा राय ने सूचना के अधिकार की लड़ाई की शुरुआत की थी. अरुणा राय आईएएस की नौकरी छोड़कर सूचना के अधिकार के लिए सड़क पर उतरी थी, मजदूर किसान शक्ति संगठन बनाया था और इस काम के लिए उन्हें मैग्सेसे पुरस्कार भी दिया गया था. खैर, उस समय मैं जयपुर से छपने वाले एक राष्ट्रीय अखबार में रिपोर्टर हुआ करता था. उस दौरान जवाजा नाम के गांव में जन सुनवाई में जाने का मौका मिला था. अरुणा राय ने ताजा-ताजा जन सुनवाई का सिलसिला शुरू किया था. यहां पूरा गांव जुटता था, सरपंच, बीडीओ (ब्लॉक विकास अधिकारी) पटवारी, जूनियर इंजीनियर आदि भी इसमें शामिल होते थे.
जन सुनवाई में गांव के विकास का पोस्टमॉर्टम किया जाता था. चौपाल भवन के नाम पर सरपंच के घर की दूसरी मंजिल बन गई. नहर प्रधानजी के खेत में जाकर संपन्न हो गयी. दस ट्राली पत्थर की जगह तीन ट्राली पत्थर ही लगा, सीमेंट में घोटाला किया गया. मस्टररोल में उन गांववालों को भी शामिल किया गया जो उस समय गुजरात में मजदूरी करने गए हुए थे. खैर, उस समय यानी तीस साल पहले राजस्थान की कुछ बड़ी पंचायतों में साल के एक लाख से ज्यादा रुपये विकास के लिए आते थे. यानी पांच साल के लिए पांच लाख रुपये. यह पैसा कैसे सरपंचों, पंचों, प्रधानों के खुद के या उनके परिवार के विकास पर खर्च होता था, उसकी पोल जन सुनवाई में खोली जा रही थी. तीस साल बाद भी यह सिलसिला चल रहा है तो कोई हैरान करने वाली बात नहीं है. अब विकास के लिए ज्यादा पैसा आ रहा है तो उसी के अनुपात में पैसा चुनाव में खर्च भी हो रहा है. अब अध्यक्षजी की कुर्सी मिल जाएगी तो दबाकर अपने हिसाब से विकास करने की गुंजाइश बढ़ जाएगी. लिहाजा पचास लाख से लेकर एक करोड़ रुपये भी खर्च करने में कोई बुराई नहीं है. यह एक ऐसा निवेश है जो अगले पांच साल कमा कर ही देने वाला है.
ओटीटी प्लेटफार्म पर एक फिल्म देखनी चाहिए. तमिल फिल्म है. नाम है ‘मंडेला’. एक छोटे से गांव की कहानी है जहां दो भाई पंचायत का चुनाव लड़ रहे हैं. गांव में कुल जितने वोट हैं उसके आधे-आधे दोनों के पास हैं. अचानक गांव में पेड़ के नीचे हजामत का काम करने वाला एक आदमी (जिसे गांव के लोग पगलेट, मूर्ख आदि कहा करते हैं) वोटर बन जाता है. उसका नाम है मंडेला. यह नाम भी पोस्ट ऑफिस में काम करने वाली महिला कर्मचारी रखती है. जहां वह आदमी खाता खुलवाने जाता है. खैर, अब गांव में कौन बनेगा सरपंच इसकी चाबी मंडेला के वोट में है. लिहाजा दोनों उम्मीदवार मंडेला पर कपड़ों, खाना पीना, पक्की दुकान, तमाम तरह की सुविधाओं की बारिश कर देते हैं. मंडेला दोनों को ही वोट देने का वायदा करता रहता है और सुख सुविधा का फायदा उठाता रहता है. ऐसा कुछ दिन चलता है. एक दिन पोस्ट ऑफिस की वही महिला कर्मचारी मंडेला को नेल्सन मंडेला के बारे में बताती है और वोट की कीमत बताती है. मंडेला अब एक भाई से गांव की सड़क ठीक करवाने को कहता है तो दूसरे भाई से स्कूल में नए कमरे बनाने को. एक भाई से शौचालय बनवाने को कहता है तो दूसरे भाई से बिजली के खंभे लगवाने को.
आगे क्या होता है उसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी लेकिन कुल मिलाकर कहानी यही है कि भारत में गांव हो या शहर राजनीति और भ्रष्टाचार का चोली दामन का साथ है. मंडेला के गांव में एक मल्टीनेशनल कंपनी को खान शुरू करने के लिए पंचायत की अनुमति चाहिए. अनुमति सरपंच ही दिलवा सकता है, जिसके लिए कंपनी सरपंच को तीस करोड़ रुपये देने को तैयार है. अब सरपंची के लिए लड़ रहे दोनों भाई मंडेला के वोट की पूरे गांव के सामने बोली लगाते हैं, जो लाखों से शुरू होकर करोड़ रुपये पार कर जाती है. दोनों भाई जानते हैं कि मंडेला पर एक दो करोड़ रुपये खर्च हो भी गए तो सौदा सस्ता ही है क्योंकि खान खोलने वाली कंपनी तो तीस करोड़ रुपये देने को तैयार है. यही हाल शायद यूपी के जिला पंचायत अध्यक्ष बनने के लिए पंचायत सदस्यों को एक करोड़ रुपये देने से जुड़ा है. एक करोड़ दे भी दिया तो क्यों पांच साल तक के लिए इससे कई गुना ज्यादा पैसा विकास फंड के नाम पर आएगा जो एक करोड़ रुपये की भरपाई आसानी से कर देगा. अब मंडेला फिल्म में तो जब मंडेला के एक वोट पर एक करोड़ रुपये की बोली लगती है तो वह समझता है कि उसके वोट की कीमत क्या है. मंडेला के आगे पीछे कोई नहीं है और वह अपने वोट के बदले गांव के विकास की शर्ते लगाता है.
खैर, यह तो एक फिल्म थी. निर्माता को हैप्पी एंडिंग करनी थी सो कर दी लेकिन हकीकत में अरुणा राय की जन सुनवाई की हैप्पी एंडिंग हुई होती तो आज यूपी में एक वोट के लिए एक करोड़ देने की खबरें सामने नहीं आती. (बात सिर्फ यूपी की नहीं है पूरे देश की है. बात सिर्फ पंचायत की नहीं है. विधायक से लेकर सांसद तक यही कहानी है) दरअसल, गांव की चौधराहट कोई छोड़ना नहीं चाहता. कहीं पैसा है तो कहीं रुतबा. तो कहीं सरपंच प्रधानी से होते हुए ही विधायकी और फिर संसद तक का रास्ता जाता है. एक बार कोई जिला पंचायत अध्यक्ष हो गया या ब्लॉक प्रमुख हो गया या सरपंच बन गया या प्रधानी संभाल ली तो पांच साल बाद विधायक के टिकट के प्रबल दावेदार आप बन जाते हैं. इस बीच पांच साल की कमाई और साख भी अपनी भूमिका अदा करती है. हरियाणा में हमने देखा था कि कैसे गांवों में नये कानूनों के तहत पंचायत चुनाव हुए तो अपनी चौधराहट को बचाने के लिए लोगों ने खुद दूसरी शादी ऐसी लड़की से की जो चुनाव लड़ने के नए नियमों को पूरा करती हो या फिर अपने लड़कों की शादियां ऐसी लड़कियों से करवा दी. दहेज तक नहीं लिया. उल्टे कुछ मामलों में तो अपनी जेब से दहेज तक दिया. ऐसा मेव इलाके में ज्यादा हुआ था. ऐसा ही कुछ यूपी से भी सुनने को मिला था .
चलिए, अरुणा राय की कहानी पूरी सुनाते हैं. तो जन सुनवाई का दौर चला. चर्चा में आया. इस बीच सूचना के अधिकार के लिए जन अभियान भी चलाया जाता रहा. इसका असर हुआ. राजस्थान में उस समय भैरोंसिंह शेखावत की सरकार हुआ करती थी. उन्होंने राज्य में सूचना का अधिकार कानून लागू किया. उत्तर भारत में राजस्थान पहला राज्य था जिसने सूचना के अधिकार कानून को लागू किया था. उस समय सोशल ऑडिट की बात कही गई थी. सामाजिक अंकेक्षण. गांव में हर छह महीने में हो या फिर कम से कम साल में एक बार तो हो ही. राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार थी. यहां सोशल ऑडिट की मंजूरी दी गई. भीलवाड़ा जैसे कुछ जिलों में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में. तब कई तरह की कहानियां सामने आई. पता चला कि एक जगह साइकिल का पंचर बनाने वाले के नाम से फर्जी कंपनी और खाता खोलकर चालीस लाख रुपये के विकास के काम उसके जरिए करवाया गया. इसी तरह दर्जनों सरपंच पकड़े गए. कानून का डर इस कदर हावी रहा कि सरपंचों ने घोटालों से कमाया पैसा वापस सरकारी खजाने में भरना शुरू कर दिया. सोशल ऑडिट की इससे बड़कर कामयाबी और क्या हो सकती है. लेकिन फिर सरपंच अड़ गए. उन्हें कांग्रेस के ही जनप्रतिनिधियों का साथ मिलने लगा. कहीं-कहीं तो सरपंचों की मांग का समर्थन विधायक तक करने लगे. सरपंचों का कहना था कि सोशल ऑडिट नहीं होनी चाहिए. अगर हो तो अरुणा राय जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं और उनके स्वयंसेवी संगठनों से नहीं करवाया जाना चाहिए. कुछ सरपंचों का कहना था कि इसमें समय का नुकसान हो रहा है. सरपंचों ने जयपुर में रैली निकाली. राज्य भर से आए. नई-नई बोलेरो गाड़ी में आए. तब गहलोत ने सरपंचों का नया नामकरण किया. बोलेरो सरपंच.
यूपी की खबर पढ़ रहा था. उसमें लिखा था कि वहां पंचायत सदस्यों को बोलेरो गाड़ी गिफ्ट में दी जा रही है. गहलोत के राज में बोलेरो सरपंच और यह सिलसिला राजस्थान से लेकर यूपी तक जारी रहता है. यहां तक कि मध्य प्रदेश में तो विधानसभा के अंदर उस समय एक प्रस्ताव पारित हुआ था जिसमें स्वयंसेवी संगठनों से सोशल ऑडिट नहीं करवाने की बात कही गयी थी. तब सरकार बीजेपी की थी लेकिन कांग्रेस के विधायकों ने भी प्रस्ताव का समर्थन किया था. इससे साफ होता है कि गांव के स्तर पर जनप्रतिनिथि सूचना के अधिकार से किस कदर डरते हैं. वैसे यह डर शहरों से लेकर लोकसभा तक फैला हुआ है. बस होता यह है कि केंद्र की राजनीति करने वाले अपने लिए माकूल व्यवस्था बैठाने में ज्यादा माहिर होते हैं. अंत में तो यही कहा जा सकता है कि जब पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हो तो क्या संसद क्या विधानसभा और क्या गांव की चौपाल का रोना रोया जाए.
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