विधि आयोग समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) पर जनता और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों से अपनी राय देने को कहा है. जो भी लोग या संस्था इस पर राय देना चाहते हैं, वे 30 दिन के भीतर अपने विचार से 22वें विधि आयोग को अवगत करा सकते हैं. हालांकि, इसके साथ ही यूसीसी पर राजनीति भी तेज हो गई है. जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख अरशद मदनी ने यह कहकर विवाद पैदा कर दिया है कि वह यूसीसी का विरोध करने भले सड़कों पर नहीं उतरेंगे, लेकिन मुसलमान इसकी मुखालफत जरूर करेंगे.
सेकुलरिज्म मतलब यूनिफॉर्म सिविल कोड
हमारा जो देश है भारतवर्ष, 140 करोड़ लोगों का निवास स्थल, विविध धर्मों और संस्कृतियों का मिलन-स्थल, जिसको हम 'यूनिटी इन डायवर्सिटी' कहते हैं, उसको पूरा करने के लिए और सेकुलरिज्म जो हमारे संविधान की प्रस्तावना का भी हिस्सा है, हमारी सभ्यता का भी हिस्सा है, उसको सही मायनों में लागू करने के लिए समान नागरिक संहिता लागू होना ही चाहिए.
इससे समानता आएगी, चाहे वह शादी, डिवोर्स, अडॉप्शन, संपत्ति में अधिकार की बात हो, या फिर महिलाओं और बच्चों के अधिकार संपूर्णता से लागू करने की बात हो. आज कई सारे मामले हैं, जहां महिलाओं के साथ अत्याचार होता है, लेकिन पर्सनल लॉ की वजह से 'स्टेट' उनकी रक्षा नहीं कर पाता है. कई सारे राज्यों में बालिकाओं के अधिकारों का हनन होता है, लेकिन बात फिर वही पर्सनल लॉ की आ जाती है, कई सारी कुप्रथाएं नहीं रुकतीं, कई जगह महिलाओं-बालिकाओं को संपत्ति में अधिकार नहीं मिलता, क्योंकि कानून कोडिफाइ नहीं है.
जिस तरह से 1954 में हिंदू समाज को एक कर, प्रगति की राह पर चलाया गया, हिंदू मैरिज एक्ट के तहत, हिंदुओं को कानूनन कोडिफाइड कर और आज हम देख रहे हैं कि किस तरह समग्र विकास हो रहा है, उसी तरह आज हिंदू, मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी इत्यादि सारे समाजों को एक बिंदु और एक छोर पर लाना है, उन्हें प्रगति के राह पर ले चल सकते हैं. इसके लिए यूसीसी अनिवार्य है.
संविधान का स्पष्ट निर्देश, यूसीसी करें लागू
भारत में जो लंबा लिटिगेशन का इतिहास है, करोड़ों मुकदमे चल रहे हैं, उनका एक कारण ये भी है कि कई समाजों के बहुतेरे और अलग कानून हैं. इससे बहुत दिक्कत और देरी होती है. यूनिफॉर्म सिविल कोड के आने के बाद जाहिर तौर पर इसमें भी कमी आएगी और कानूनी पचड़े कम होंगे.
इसके अलावा हमारा संविधान इस मसले पर बहुत स्पष्ट है. संविधान का अनुच्छेद 44 तो साफ तौर पर यह कहता है कि भारत सरकार का यह दायित्व है कि वह यूनिफॉर्म सिविल कोड लाए. हमारे संविधान निर्माताओं की भी यही मंशा थी. इसके साथ ही समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट और कई सारे हाईकोर्ट ने अपने फैसलों में स्पष्ट तौर से यूसीसी की जरूरत बताई है, उसे बनाने का समर्थन किया है.
इसके पीछे कारण यही है कि अदालतें देख रही हैं कि कई मसलों में बालिका, महिलाओं और ऐसे ही वल्नरेबल वर्ग का शोषण होता है, पर्सनल लॉ के नाम पर. यूनिफॉर्म सिविल कोड से कई सारी कुरीतियां मिटेंगी और जो भी इसका विरोध कर रहे हैं, वे अपने समाज को पीछे रखना चाह रहे हैं, प्रतिगामी बनाना चाह रहे हैं. संविधान निर्माता चाहे वे राजेंद्र बाबू हों या बाबा साहेब, उनकी भी यही इच्छा थी कि यूनिफॉर्म सिविल कोड आए, यहां तक कि जब नेहरू ने 1954 में हिंदू सिविल कोड को लागू किया, तो आशा जताई थी कि कभी न कभी यूनिफॉर्म सिविल कोड आएगा.
राजनीति और वोट बैंक न आने के पीछे कारण
अनुच्छेद 44 तो संविधान के लागू होने के साथ ही आया था. इसके साथ ही स्टेट्स यानी राज्यों से यह कहा गया कि वे अपने यहां शादी, तलाक, पैतृक अधिकार, गोद लेना इत्यादि के बारे में एक यूनिफॉर्म कोड बनाएं जिसे पूरे देश के स्तर पर लागू किया जा सके. इसका जो भी विरोध कर रहे हैं, वे केवल और केवल क्षुद्र राजनीति कर रहे हैं.
सबको पता है कि इस देश में माइनॉरिटी और रिलिजन एक बड़ा मसला है. जब भी आप मजहब के नाम पर वोट मांगते हैं, गोलबंद होते हैं तो उसके नाम पर आपको वोट मिलता भी है और उसी का फिर गलत फायदा भी उठाया जाता है. जैसे, देश में देखिए तो सबसे बड़ा समाज जो है, जो अनकोडिफाइड है, वह मुसलमानों का समाज है. उनमें चार शादियां हो सकती हैं, तीन तलाक के विभिन्न रूपों की बात होती है, लड़कियों की कम अवस्था में शादी होती है तो उसको आप कब और कैसे रोकेंगे?
अगर आपने यूसीसी नहीं लागू किया तो फिर उपाय क्या रह जाता है? इसका विरोध करने वाले भूल जाते हैं कि वह आखिर नुकसान किसका कर रहे हैं, इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार अपने कई आदेशों में ये साफ किया है कि यूसीसी को लागू करना ही चाहिए. इस देश को अगर आगे बढ़ाना है, प्रगति करनी है, तो जो कानून कोडिफाइड नहीं हैं, जो अपने 'स्कूल ऑफ थॉट' पर चलते हैं, उनको कोडिफाइ करने की जरूरत है.
समानता और बराबरी के लिए जरूरी
अरशद मदनी जैसे लोग कहते हैं कि 1400 वर्षों से किसी ने मुस्लिम पर्सनल लॉ को नहीं छेड़ा और यूसीसी लाना गलत है, तो वे ही लोग हैं जो समाज और देश का बंटाधार करने पर तुले हैं. जमीयत-उलेमा-ए-हिंद को थोड़ी जानकारी भी बढ़ानी चाहिए. कई इस्लामिक देशों में भी बहुतेरी बातें जोड़ी या घटाई गयी हैं. सऊदी अरब तक में बहुत सारे कानून बदले जा रहे हैं. इन जैसे लोगों की वजह से ही आज तक भारत का मुस्लिम समुदाय आगे बढ़कर समानता और बराबरी की राह पर चलने की बात नहीं कर पा रहा है, इन लोगों की वजह से ही हमेशा से वह समुदाय एक वोटबैंक बन कर रह गया है. मदनी जैसे लोग यह नहीं देखते कि हिंदू समाज जब 1954 में कोडिफाइ हुआ, तो उसकी कितनी प्रगति हुई है.
पहले तो हिंदू समाज भी कोडिफाइ नहीं था, वह भी 'स्कूल ऑफ थॉट' के हिसाब से ही चलता था, लेकिन आज आप हिंदू समाज में महिलाओं, पिछड़ों, दलितों, इत्यादि की स्थिति देख लें. उनके अधिकारों को लेकर कितनी प्रगति हुई है, लोग कितने जागरूक हुए हैं और कितनी संवेदनशीलता बढ़ी है. मदनी जैसे लोग यही सब देख नहीं पाते. वे कभी भी मुस्लिम समाज का भला नहीं चाहते, बस अपनी स्थिति मठाधीश वाली बनाए रखना चाहते हैं.
शुरुआत में तो हिंदू समाज ने भी बड़े स्तर पर इसका समर्थन नहीं किया था. आप इतिहास में झांकें तो अंबेडकर को अपना पद तक छोड़ना पड़ा था, क्योंकि वे सिविल कोड नहीं ला पाए थे. यहां तक कि नेहरू को भी काफी विरोध झेलना पड़ा था और उन्होंने कहा था कि ठीक है, जब वह जीत कर पीएम के तौर पर आएंगे, तभी इस तरह का कानून लाएंगे. फिर, जब उनकी पार्टी कांग्रेस जीती, वह पीएम बने, तभी हिंदू कोड बिल लाए थे.
जो नेता थे, सांसद थे और जिनको देश ने कानून बनाने की जिम्मेदारी दी थी, उन्होंने अपना काम किया. सामाजिक तौर पर तो तगड़ा विरोध झेलना पड़ा था. आज संसद में वे सारे लोग हैं जो इस देश के हरेक समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे देश के नेता हैं. संसद को जो अधिकार संविधान ने दिया है, वे करेंगे और मदनी जैसा कोई एक व्यक्ति विरोध करे तो उसे रोका नहीं जा सकता.
विधि आयोग का काम महत्वपूर्ण
यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि पिछले लॉ कमीशन ने कह दिया था कि देश में फिलहाल यूसीसी की जरूरत नहीं है. जब सर्वोच्च न्यायालय और हाईकोर्ट ने कई बार कहा है कि इसकी जरूरत है. शाहिदा बानो से लेकर शाह बानो तक के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि यूसीसी लागू होना चाहिए, तो लॉ कमीशन का यह कहना गलत था. नेहरू से लेकर मोदी तक, हरेक प्रधानमंत्री ने यह माना है कि जैसे ही यूसीसी आएगा, वैसे ही हमारे देश में सच्चे अर्थों में 'यूनिटी इन डायवर्सिटी' आएगी.
जिस देश के संविधान की प्रस्तावना में 'सेकुलरिज्म' है, वहां आप मजहबी आधार पर महिलाओं या किसी के साथ भेदभाव की इजाजत कैसे दे सकते हैं. संविधान को जो भी मानता है, वह राजनीति को इतर रखेगा और यूसीसी का समर्थन करेगा. एक बात यह समझनी होगी कि विधि आयोग का विचार सरकार का या संसद का नहीं कह सकते.
21वां लॉ कमीशन, जिसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बलबीर सिंह चौहान हेड कर रहे थे, वह उनके रिटायर होने के बाद खत्म हुआ. उसके बाद इस सरकार ने 22वां विधि आयोग बनाया. जब तक सिफारिशें नहीं आतीं, सरकार उस पर विचार कर अपना फैसला नहीं देती, तब तक हम ऐसा नहीं कह सकते कि यह सरकार की सोच है. चूंकि यह विधि आयोग लोगों से, धार्मिक संगठनों से रायशुमारी कर रही है, तो उम्मीद करें कि यह काम जल्द हो जाएगा और यूसीसी लागू होगा. तभी इस पर राजनीति खत्म होगी.
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