पेट्रोल-डीज़ल की बढ़ती हुई कीमतों से चौतरफा महंगाई की मार झेल रहे भारत के लिए भी आज की तारीख यानी 5 मई बेहद महत्वपूर्ण है. वह इसलिए कि रुस-यूक्रेन की इस जंग के बीच कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले और उसे दुनिया के बाजार में सप्लाई करने वाले दो दर्ज़न से ज्यादा देशों की आज एक अहम बैठक हो रही है. इसमें ये तय होगा कि अंतराष्ट्रीय बाजार में कितना तेल बेचना है और उसकी कीमत क्या होगी. चूंकि यूक्रेन का साथ दे रहे तमाम यूरोपीय देश रुस के ख़िलाफ़ आर्थिक प्रतिबंध लगा चुके हैं.ऐसी सूरत में रुस का सारा जोर न सिर्फ़ कच्चे तेल की आपूर्ति कम करने पर रहेगा,बल्कि उसकी कीमत बढ़ाने पर भी होगा.इस लिहाज से भारत के लिए इस बैठक में लिये गए फ़ैसलों का बहुत महत्व है.
दुनिया में कच्चे तेल के उत्पादक देशों का एक समूह है-ओपेक. इसका पूरा नाम है-ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ ऑयल एक्सपोर्टिंग कंट्रीज़ .इसमें मूल रुप से वैसे तो 13 ही सदस्य हैं, जिनमें मुख्य तौर पर मध्य पूर्वी और अफ़्रीकी देश हैं. लेकिन तकरीबन 62 साल पहले साल 1960 में जब इस समूह का गठन हुआ था, तब इसे तेल उत्पादक संघ का नाम इसलिए दिया गया था कि इसका मक़सद दुनिया में तेल की आपूर्ति और उसकी कीमतें तय करना था.
लेकिन साल 2016 में जब कच्चे तेल की कीमतें अंतराष्ट्रीय बाजार में 40-42 डॉलर प्रति बैरल तक नीचे आ गिरीं,तो ओपेक भी फिक्रमंद हो उठा.तब उसने अन्य 10 गैर-ओपेक तेल उत्पादक देशों के साथ मिलकर 'ओपेक प्लस' बनाया.इसमें रूस भी शामिल है, जो हर दिन करीब एक करोड़ बैरल तेल का उत्पादन करता है.वैसे अमेरिका और सऊदी अरब के बाद रुस ही दुनिया का तीसरा बड़ा तेल उत्पादक देश है.वो प्रतिदिन लगभग 50 लाख बैरल कच्चे तेल का निर्यात करता है.इसमें से आधे से अधिक तेल यूरोप को भेजा जाता है. रूस से होने वाला तेल आयात ब्रिटेन की कुल तेल ज़रूरतों का लगभग 8 फीसदी है है.दुनिया के कुल कच्चे तेल का तकरीबन 40 फ़ीसदी हिस्से का उत्पादन ये सब देश मिलकर ही करते हैं.
बड़ी बात ये है कि ओपेक प्लस देशों में रूस भी शामिल है,जो यूरोप को तेल व गैस का एक बड़ा निर्यातक देश है.हर महीने विएना में ओपेक प्लस देशों की बैठक होती है. इस बैठक में ये निर्णय किया जाता है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कितना कच्चा तेल देना है और उसकी कीमत क्या रखनी है.चूंकि इस समय अमेरिका समेत यूरोपीय देशों के साथ रुस का छत्तीस का आंकड़ा है,लिहाजा सबको ये आशंका सता रही है कि रुस इस बैठक में अपनी मनमानी करने और शर्तें लागू करवाने में इतनी आसानी से बाज नहीं आने वाला है.
दुनिया में कच्चे तेल के दाम इतने क्यों बढ़ जाते हैं,या फिर अचानक इतने कम क्यों हो जाते हैं.इसके लिए हमें इस बाजार की उस रणनीति को समझना होगा,जो तेल पैदा भी करते हैं और उसे बेचते भी हैं.लेकिन नुकसान का सौदा तो कोई भी नहीं करता, भले ही वो आपके पड़ोस का किराना दुकानदार हो या फिर कोई देश हो.वैश्विक तेल के बाजार की रणनीति समझने वाले विशेषज्ञों के मुताबिक ,ओपेक प्लस अक्सर अंतराष्ट्रीय बाज़ार को संतुलित रखने के लिए तेल की आपूर्ति और उसकी मांग को अनुकूल बनाने की पूरी कोशिश करता है.लेकिन जब भी कच्चे तेल की मांग में गिरावट आती है तो वे आपूर्ति को कम कर के इसकी कीमतें ऊंची रखते हैं.
आप समझे कि सारा खेल अर्थशास्त्र के मांग और आपूर्ति से जुड़ा हुआ है.अगर मांग ज्यादा होगी,तो कीमतें बढ़ेगी हीं,जो कि आज होने वाली इस बैठक में पूरी संभावना भी है.लेकिन एक सवाल पूछ रहा हूँ, जो आपको भी हैरान कर देगा. पिछले साल मार्च से मई के बीच जब कोरोना की दूसरी लहर अपना कहर बरपा रही थी,तब किसी पड़ोसी किराने वाले ने आपसे पूछा कि "भाईसाहब /बहनजी रिफाइंड तेल,आटा, या चावल बहुत ज्यादा आ गया है और मेरे पास इसे रखने का स्टॉक नहीं है,इसलिए कुछ मात्रा में आप इसे यों ही ले जाइये और ये कोई अहसान नहीं है?" मुझे यकीन है कि ऐसा वाकया देश में किसी के साथ भी नहीं हुआ होगा.
लेकिन आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि उसी 2021 के मार्च-मई महीने में जब दुनिया के तमाम देशों में लॉक डाउन लग रहे थे,तब ख़रीदारों की कमी की वजह से कच्चे तेल के दाम बेतहाशा गिर गए थे. आलम ये था कि उस समय कच्चे तेल के उत्पादक देशों ने लोगों को अपनी जेब से पैसे देकर तेल दिया था क्योंकि उनके पास इसे स्टोर करने के लिए पर्याप्त जगह नहीं थी.ये दुनिया के बाजार में ऐसा पहला और अनूठा वाकया था जिसे भारत के मीडिया ने तो नजरअंदाज कर दिया लेकिन इसे अंतराष्ट्रीय मीडिया ने अपनी सुर्खी बनाया था.
लेकिन आज की इस बैठक से पहले एक सवाल ये उठ रहा है कि ओपेक प्लस तेल के उत्पादन को बढ़ाएगा या नहीं. हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने बार-बार सऊदी अरब से तेल का उत्पादन बढ़ाने की अपील की है लेकिन इसका कोई ख़ास असर नहीं हुआ है.उधर,ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने भी सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से उत्पादन बढ़ाने की अपील की है लेकिन उसे भी अनसुना कर दिया गया.
विशेषज्ञ मानते हैं कि सऊदी अरब और यूएई दोनों के पास ही तेल उत्पादन की अतिरिक्त क्षमता है लेकिन वे उत्पादन बढ़ाने से ख़ुद ही इनकार कर रहे हैं. इसकी एक बड़ी वजह ये बताई जा रही है कि वे नहीं चाहते कि अमेरिका समेत अन्य पश्चिमी देश उन पर अपने आदेश थोपें.उनका मानना है कि आपूर्ति और मांग के बीच फ़ासला कम होता जा रहा है और अब तेल के ऊंचे दाम खरीदारों के मन में मौजूद डर को दिखा रहा है. आज होने वाली बैठक में तेल की आपूर्ति कम करने और कीमत बढ़ाने पर अगर कोई फैसला होता है,तो उसका सीधा असर भारत पर भी पड़ेगा.इसलिए सवाल ये है कि मोदी सरकार इस चुनौती से कैसे निपटेगी?
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)