मुझे नहीं पता कि शाहीन बाग में बैठे आप लोगों की संख्या कितनी है. सैंकड़ों में है या हजारों में. मुझे इससे कोई वास्ता भी नहीं है. मुझे नहीं मालूम कि इस संख्या में कितनी महिलाएं, कितने बच्चे, कितने पुरुष शामिल हैं. मुझे इससे भी कोई लेना देना नहीं है. मुझे नहीं इल्म कि बिरयानी कहां से आ रही है, कौन लंगर चला रहा है, कौन कंबल बांट रहा है, कौन पैसे दे रहा है. मुझे ये सब पता लगाना भी नहीं है. मैं बड़े नेताओं, बड़े मंत्रियों की तरह शाहीन बाग गया भी नहीं हूं . मैं जाना जरुर चाहता हूं लेकिन बड़े पत्रकारों की तरह नहीं, एक कवि की तरह . जयपुर के हमारे मित्र कवि कृष्ण कल्पित की तरह जो लिखते हैं, मैं जलियांवाला बाग से आया हूं, मुझे शाहीन बाग जाना है .


मैं ये भी नहीं गिन रहा कि शाहीन बाग को पचास दिन हो गये हैं या पचपन. मैं ये कयासबाजी भी नहीं लगा रहा कि शाहीन बाग को दिल्ली विधानसभा चुनावों के वोटिंग के दिन यानि 8 फरवरी से ठीक पहले जबरन उठवा दिया जाएगा या नहीं . मुझे ये पतंगबाजी भी नहीं करनी है कि शाहीन बाग के चलते रहने से किसे सियासी फायदा हो रहा है और कौन सियासी फायदा होने की उम्मीद लगाए बैठा है.


मेरी शाहीन बाग की महिलाओं, बच्चों, पुरुषों से हाथ जोड़ कर विनती करनी है कि अब उठ जाओ, गिरा दो शामियाने, उखाड़ फेंको तम्बू , निकाल बाहर करो माइक सब, पूरा देश पूरा हिन्दुस्तान क्या, पूरी दुनिया ने आपकी आवाज सुन ली है. अब आप लोग उठ जाओ. आवाज में असर होना चाहिए. आवाज का असर हर बार हो ये जरुरी तो नहीं. गालिब को समझो जिन्होंने 160 साल पहले लिखा था.


इतना आसान नहीं लहु रोना
दिल में ताकत, जिगर में वो हाल कहां .


आपने अपने जिगर का हाल बता दिया बस अब आप उठ जाइए, नहीं उठना चाहते तो मेरे एक सवाल का जवाब दीजिए. जिन तक आप अपनी आवाज पहुंचाना चाहते हैं वो आपको सुनना भी चाहते है या नहीं. आप का दावा है कि आप गांधी जी की तरह सत्याग्रह कर रहे हैं. लेकिन गांधी के तीन बंदर आज की राजनीति में अपने हिसाब से देखने सुनने बोलने लगे हैं. जब उन लोगों को कोई फर्क ही नहीं पड़ता तो फिर सर्द रातों में सर्द आसमान के नीचे कांपते रहना कब तक जारी रहेगा. जब वो कह ही चुके हैं कि शाहीन बाग को न तो सुना जाएगा और न ही देखा जाएगा तो यूं समय बरबाद करने का क्या फायदा. जब वो लोग शाहीन बाग के साथ होकर भी साथ नहीं है तो ऐसे साथ का क्या लाभ. जब वो शाहीन बाग आने से शरमा रहे हैं तो शाहीन बाग खाली करके ऐसे लोगों को शर्मसार करने का मौका मत चूकिए.


शाहीन बाग से इसलिए भी उठ जाना चाहिए क्योंकि उठ जाओगे तो उठने के बाद का सन्नाटा क्या पता उन लोगों के कान सुन्न कर दे और उन्हें लगे कि शाहीन बाग का तथाकथित भ्रम दूर करने चले ही जाते तो क्या बिगड़ जाता ....शाहीन बाग में बैठ कर ऐसा मौका दिया था . अब शाहीन बाग से उठकर एक दूसरा मौका देने में कोई बुराई नहीं . ...इसलिए शाहीन बाग के लोगों अब उठने का वक्त आ गया है .


शाहीन बाग से आप लोगों को इसलिए भी उठ जाना चाहिए क्योंकि आरोप है कि आप के कारण दिल्ली चुनाव हिंदु मुसलमान बनता जा रहा है. आप लोगों को शाहीन बाग इसलिए भी छोड़ देना चाहिए क्योंकि आप के कारण टीवी पत्रकार बिरादरी की दरारें खाइयों में बदल सकती है. आप लोगों को शाहीन बाग इसलिए भी त्याग देना चाहिए क्योंकि आप पाकिस्तान हो गये हैं. आप लोगों को तत्काल प्रभाव से शाहीन बाग की जमीन खाली कर देनी चाहिए क्योंकि दफ्तर जाने वालों को देर हो रही है. बोर्ड की परीक्षा देने वाले बच्चों को तकलीफ हो रही है .


आप इन बच्चों की खातिर उठ जाइए. आप दफ्तर देर से पहुंचने वालों की खातिर उठ जाइए. आप उन दुकानदारों की खातिर उठ जाइए जो बंद दुकानों के कारण रोजी रोटी का संकट झेल रहे हैं. आप अपने जैसे भाइयों की खातिर उठ जाइए जो आप की तरह चूल्हे चौके की लडाई लड़ रहे हैं. आप उन सियासतदानों की खातिर उठ जाइए जो नहीं चाहते कि आप उठें. यकीन मानिए आप के उठने से कुछ लोग बहुत परेशान होंगे विचलित होंगे. ऐसे लोगों को परेशान करने के लिए ही उठ जाइए .


कुल मिलाकर आप लोगों को शाहीन बाग इसलिए भी छोड़ देना चाहिए क्योंकि आपका इस्तेमाल होने लगा है.


क्या आप लोग इस्तेमाल की चीज हैं? क्या आप चाहते हैं कि आप के धरने का फायदा सियासी दलों को मिले? क्या ये धरना इसलिए दिया गया था कि शाहीन बाग के नाम पर वोट मांगा जाए या वोट न मांगा जाए. आपको कैसा लगता है जब टीवी वाले बोलते हैं अखबारवाले लिखते हैं कि दिल्ली विधानसभा का रास्ता शाहीन बाग से होकर जाता है. आप धरना दे रहे हैं या रास्ता दे रहे हैं. क्या ये धरना दिल्ली की 70 सीटों के लिए दिया जा रहा है या 130 करोड़ लोगों की संविधान के प्रति आस्था का प्रतीक है ये धऱना . धरने पर आप बैठे हैं तो आप को ही तय करना है. तय करिए और छोड़ दीजिए शाहीन बाग.


शाहीन बाग के लोगों , उठ जाइए क्योंकि हर लड़ाई का अंतिम मकसद उसे जीतना नहीं होता है और हर लडाई अंतिम लड़ाई भी नहीं होती है. कुछ लड़ाइयां हार का अहसास कराने के लिए हारी भी जाती हैं. उठ जाइए और सोचिए कि आप हार गये या जीत गये. जीत गये तो जीत का जश्न मनाइए , हार गये तो हार पर हंसिए लेकिन उठ जाइए.


अंत में ...फैज अहमद फैज का शेर आप लोगों के लिए, ये वही फैज हैं जिनकी नज्म हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे पर बवाल हो चुका है.


अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुक्कफल कर लो , अब यहां कोई नहीं कोई नहीं आएगा .


आगे जब लगे कि किवाड़ पर कोई दस्तक दे रहा है, कोई किवाड़ खटखटा रहा है तो फिर चले आना शाहीन बाग. शाहीन बाग आपका फिर स्वागत करेगा लेकिन फिलहाल के लिए उठ जाइए.


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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)