मध्य प्रदेश में विधान सभा चुनाव नवंबर में होना है. दिलचस्प बात है कि अभी चुनाव मध्य प्रदेश है, वो भी विधान सभा, लेकिन उसके जऱिये आम चुनाव, 2024 के लिए उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरणों को साधने में समाजवादी पार्टी जुटी है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस उम्मीदवारों की दूसरी सूची आने के बाद समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया जिस रूप में आयी है, उससे ऐसा ही ज़ाहिर होता है.


एमपी के बहाने यूपी के समीकरणों पर नज़र


मध्य प्रदेश विधान सभा में कुल 230 सीट हैं. कांग्रेस ने जैसे ही दूसरी सूची जारी की 229 उम्मीदवारों के नाम तय हो गये. इसके बाद अखिलेश यादव का कहना है कि कांग्रेस मे धोखे में रखा. उनका दावा है कि कांग्रेस की ओर से मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी के लिए 6 सीटें देने का वादा किया गया था. अखिलेश यादव इतने पर ही नहीं रुके. उन्होंने स्पष्ट तरीके से संदेश दे दिया है कि जिस तरह का व्यवहार कांग्रेस मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में उनके साथ कर रही है, कुछ वैसा ही व्यवहार उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी 2024 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस के साथ करेगी.


ऊपर से देखने पर लगता है कि अखिलेश यादव की बौखलाहट मध्य प्रदेश में उनकी पार्टी के लिए कांग्रेस की ओर से कुछ सीटें नहीं छोड़ने से जुड़ा है. दरअसल माजरा कुछ और ही है. अखिलेश यादव के बयान का असल संबंध मध्य प्रदेश से है ही नहीं. इसका सीधा संबंध समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच में लोक सभा चुनाव 2024 में  उत्तर प्रदेश में सीटों के बँटवारे से जुड़ा है.



पहली बात यह है कि 2024 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी के ख़िलाफ़ मज़बूत चुनौती पेश करने के लक्ष्य को लेकर ही 28 दलों के विपक्षी गठबंधन 'इंडिया'  अस्तित्व में आया है. इस गठबंधन का विधान सभा चुनावों से कोई सरोकार नहीं. यह कांग्रेस भी जानती है और अखिलेश यादव भी ब-ख़ूबी जानते हैं. इसके बावजूद उनका इस तरह का मत ज़ाहिर करना कि गठबंधन प्रदेश के स्तर पर नहीं है तो देशव्यापी स्तर पर भी नहीं हो सकता..कोई अचानक से आया बयान नहीं है. यह सोच-समझकर दिया गया बयान है, जिनसे उत्तर प्रदेश की सियासत से संबंधित कई पहलू जुड़े हैं.


मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी का जनाधार नहीं


अखिलेश यादव का बयान.. मध्य प्रदेश के लिहाज़ से इसलिए भी कोई ख़ास महत्व नहीं रखता है क्योंकि इस प्रदेश में समाजवादी पार्टी का कोई जनाधार है ही नहीं. यह बात समाजवादी पार्टी को भी पता है, अखिलेश यादव को भी पता है और कांग्रेस भी इसे भली-भाँति जानती है.


मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव, 2018 में समाजवादी पार्टी भले ही एक सीट जीतने में कामयाब रही हो, लेकिन यह जीत पार्टी की जीत से ज़्यादा उस क्षेत्र में उम्मीदवार के प्रभाव की जीत थी. उस वक़्त बिजावर सीट पर राजेश शुक्ला ने समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीत दर्ज की थी. हालांकि बाद में वे बीजेपी में शामिल हो गए. ऐसा नहीं है कि इस निर्वाचन क्षेत्र में समाजवादी पार्टी का जनाधार है, बल्कि राजेश शुक्ला यहाँ के पुराने नेता है. उन्होंने 2013 और 2008 में कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर यहां से चुनाव लड़ा था, हालांकि दोनों बार वे हार गये थे. पिछली बार कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने के कारण उन्होंने समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा था और जीत गये थे.


यह बात सच है कि समाजवादी पार्टी को 2003 में मध्य प्रदेश में 7 सीटों पर जीत मिल गई थी. लेकिन उसके बाद पार्टी का जनाधार धीरे-धीरे लगभग नगण्य होते गया.  समाजवादी पार्टी को 2008 में एक सीट पर जीत के साथ 1.9% वोट और 2013 बिना कोई सीट जीते 1.20% वोट मिले थे. जबकि 2018 में यहां समाजवादी पार्टी का वोट शेयर 1.30% रहा था. इन आँकड़ों से साफ है कि मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी का इस तरह का कोई जनाधार है, जिसको देखते हुए कांग्रेस उसे 5 से 6 सीटें दे देती. यह एक तरह से बीजेपी के फ़ाइदा पहुंचाना ही साबित होता.


क्या है उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति?


इन सारी परिस्थितियों से वाक़िफ़ होते हुए भी अगर अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ वैसा ही व्यवहार करने की बात कर रहे हैं, तो इसके पीछे जो मायने हैं, उसको समझने के लिए उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीतिक स्थिति को समझना होगा. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के हिस्सेदार हैं.


उत्तर प्रदेश देश का वो राज्य है, जो आबादी के लिहाज़ से सबसे बड़ा है, लोक सभा और विधान सभा सीट के नज़रिये से सबसे बड़ा है. यहां कुल 80 लोक सभा सीट और 403 विधान सभा सीट है. उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है, जहाँ बढ़त बनाकर केंद्र की सत्ता को आसानी से हासिल किया जा सकता है. बीजेपी फिलहाल उत्तर प्रदेश में बहुत मज़बूत है. मुलायम सिंह यादव के सशरीर नहीं  के बाद समाजवादी पार्टी के लिए 2024 का लोक सभा चुनाव पहली बड़ी परीक्षा होगी. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बेहद ही दयनीय स्थिति में पहुंच गई है. इसके अलावा मायावती न तो विपक्षी गठबंधन का हिस्सा हैं और न ही एनडीए का. ये सारे पहलू एक-दूसरे से जुड़कर उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीतिक स्थिति की वास्तविकता को जगज़ाहिर करते हैं.


उत्तर प्रदेश बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त


सबसे पहले बात करते हैं बीजेपी की बड़ी ताक़त के तौर पर उत्तर प्रदेश से जुड़े पहलू की. उत्तर प्रदेश में पिछले बार से बीजेपी बड़े मार्जिन से विधान सभा का चुनाव जीतते आ रही है. 2017 में बीजेपी को 403 में से 312 सीटों पर जीत मिली थी. उसके बाद 2022 में हुए विधान सभा चुनाव में भी बीजेपी 255 सीट जीतकर सत्ता को बरक़रार रखने में आसानी से कामयाब रही थी.


लोक सभा के नज़रिये से भी बीजेपी के विस्तार में पिछले तीन दशक से उत्तर प्रदेश की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण  रही है. बीजेपी को उत्तर प्रदेश में आम चुनाव 1991 में 51 सीटें मिली थी. उसके बाद 1996 में 52 सीट, 1998 में 57 सीट और 1999 में 29 सीटों पर जीत मिली थी. तब तक उत्तर प्रदेश में लोक सभा की 85 सीटें हुआ करती थी. उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद उत्तर प्रदेश में बीजेपी को आम चुनाव 2004 और 2009 में दस-दस सीटों पर जीत मिली थी. पिछले दो लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से बीजेपी का जमकर समर्थन मिला. इसी का नतीजा था कि बीजेपी पूरे दमख़म के साथ केंद्र में अपनी बदौलत सरकार बनाने की स्थिति में आ गई. आम चुनाव 2014 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 80 में 71 सीट और 2019 में 62 सीटों पर जीत मिली.


लोक सभा चुनाव में सपा की दयनीय स्थिति


उत्तर प्रदेश में बीजेपी 2014 से बहुत मज़बूत होते गई. उसका परिणाम हुआ कि प्रदेश में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा की स्थिति लगातार ख़राब होते गई. समाजवादी पार्टी की बात करें, तो समाजवादी पार्टी को 2014 के लोक सभा चुनाव में महज़ 5 सीटों से संतोष करना पड़ा. आम चुनाव 2019 में मायावती से हाथ मिलाने के बाद भी समाजवादी पार्टी को सीटों की संख्या में कोई इज़ाफ़ा नहीं हुआ. पार्टी 5 सीट पर ही जीत पायी.


सपा के लिए 2017 से सब कुछ गड़बड़


इस दरमियाँ समाजवादी पार्टी विधान सभा के नज़रिये से भी कमज़ोर होती गई.  विधान सभा चुनाव 2017 में कांग्रेस के गठजोड़ के बावजूद समाजवादी पार्टी को बीजेपी से शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा.पार्टी को महज़ 47 सीटें मिली और उसका वोट शेयर भी 29 से घटकर 22 फ़ीसदी से भी नीचे चला गया. इस हार से अखिलेश यादव के हाथ से उत्तर प्रदेश की सत्ता भी निकल गयी. पाँच साल बाद विधान सभा चुनाव 2022 में कांग्रेस से अलग होकर चुनाव लड़ने पर समाजवादी पार्टी की स्थिति थोड़ी सुधरी, लेकिन बीजेपी की चुनौती के सामने अखिलेश यादव सत्ता से कोसों दूर रह गये. उनकी पार्टी को 111 सीट पर ही जीत मिल सकी.


ख़ुद को 2024 में साबित करने की चुनौती


ऐसे भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश यादव ख़ुद को अभी साबित करके नहीं दिखा पाए है. हालांकि मार्च 2012 से मार्च 2017 वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चुके हैं. लेकिन विधान सभा चुनाव 2012 में समाजवादी पार्टी की जीत में उनके पिता मुलायम सिंह यादव की ही महत्वपूर्ण भूमिका थी. उस वक़्त समाजवादी पार्टी को 224 सीटों पर जीत मिली थी. ये अलग बात है कि सियासी जानकारों से लेकर मीडिया और आम लोगों को भी मुलायम सिंह यादव के एक फ़ैसले ने सबको चौंका दिया था. उन्होंने उस वक़्त 38 साल के अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला कर दिया था. ये पूरी तरह से मुलायम सिंह यादव की मेहनत और राजनीतिक रुतबे का कमाल था कि अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे थे.


उत्तर प्रदेश में 2017 में विधान सभा चुनाव के पहले नाटकीय घटनाक्रम में मुलायम सिंह यादव की अनदेखी कर अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी की कमान ख़ुद अपने हाथों में ले लेते हैं. तमाम विरोधाभास के बीच 2017 में विधान सभा चुनाव से पहले उन्हें मुलायम सिंह यादव का समर्थन हासिल हो जाता है.  इस चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर जाने का फ़ैसला भी अखिलेश यादव का ही होता है. हालांकि नतीजों की मानें तो अखिलेश यादव के इस क़दम से चुनाव में पार्टी को भारी नुक़सान होता है और प्रदेश की सत्ता हाथ से निकल जाती है.


अखिलेश यादव पर बेहतर प्रदर्शन का दबाव


उसके बाद अखिलेश यादव के कंधों पर पार्टी को 2019 के लोक सभा चुनाव और 2022 के विधान सभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने की ज़िम्मेदारी होती है. हालांकि चुनाव नतीजों से स्पष्ट है कि वे इसमें खरा नहीं उतरते हैं. अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी का दायरा उत्तर प्रदेश में लगातार सिकुड़ते गया है. मुलायम सिंह यादव का निधन पिछले साल 10 अक्टूबर को हो गया. समाजवादी पार्टी के लिए 2024 का लोक सभा चुनाव इस नज़रिये से भी बेहद महत्वपूर्ण है. मुलायम सिंह यादव की ग़ैरमौजूदगी में यह पहला विधान सभा या लोक सभा चुनाव होगा.


मुलायम सिंह की ग़ैरमौजूदगी में पहला चुनाव


मुलायम सिंह यादव ने जनता दल से अलग होकर अक्टूबर 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन किया था. उनकी मेहनत का ही नतीजा रहा है कि उत्तर प्रदेश में पिछले तीन दशक से यादव समुदाय समाजवादी पार्टी का कोर वोट बैंक रहा है. 2001 में गठित हुकुम सिंह पैनल के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में यादवों की संख्या 9 से 11 फ़ीसदी है. इसके साथ ही मुसलमानों का भी व्यापक समर्थन समाजवादी पार्टी को मिलते रहा है. प्रदेश में मुस्लिम आबादी 2011 की जनगणना के मुताबिक़ क़रीब 19 फ़ीसदी के आस-पास है. हालांकि पिछले एक दशक में समाजवादी पार्टी के लिए मुसलमानों के समर्थन में कमी आयी है. मुस्लिम वोटों का बिखराव मायावती, कांग्रेस के साथ कुछ हद तक बीजेपी के पक्ष में भी हुआ है. अखिलेश यादव के लिए 2024 में यह भी बड़ी चुनौती होगी कि यादव वोट बैंक के साथ मुस्लिम वोट बैंक को अपने साथ बनाकर रखा जाए.


मायावती का जनाधार लगातार सिकुड़ रहा है


जहाँ तक मायावती का प्रश्न है, बहुजन समाज पार्टी या'नी बसपा के लिए पिछला एक दशक बेहद ख़राब रहा है. मार्च 2012 में मायवती के हाथ से प्रदेश की सत्ता छीन गई. उस वक़्त हुए विधान सभा चुनाव में मायावती की पार्टी को महज़ 80 सीटों से संतोष करना पड़ा. पार्टी का वोट शेयर भी 30 प्रतिशत से नीचे पहुंच जाता है. बसपा को वोट शेयर 25.91% रह जाता है. विधान सभा चुनाव 2017 में बसपा 22.23% वोट शेयर के साथ 19 सीटों पर सिकुड़ जाती है.  मायावती और उनकी पार्टी के लिए 2022 का विधान सभा चुनाव किसी दुःस्वप्न से कम नहीं साबित होता है. इस चुनाव में बसपा 403 सीटों पर लड़ती है, लेकिन जीत सिर्फ़ एक सीट पर मिलती है. बसपा का वोट शेयर गिरकर 12.88 फ़ीसदी तक जा पहुँचता है.


यूपी में बसपा लगातार कमज़ोर होती गयी


लोक सभा चुनाव की बात करें तो बसपा को 2004 में 19 और 2009 में 20 सीटों पर जीत मिली थी. लेकिन 2014 में क़रीब 20 फ़ीसदी वोट पाने के बावजूद बसपा का लोक सभा पूरी तरह से सफ़ाया हो गया था. हालांकि आम चुनाव, 2019 में समाजवादी पार्टी से गठबंधन का बसपा को फ़ाइदा मिला. बसपा क़रीब पिछली बार जितना ही वोट पाने के बावजूद 2019 के लोक सभा चुनाव में 10 सीट जीतने में कामयाब हो गयी.


मायावती के रुख़ से भी सपा की बढ़ी चिंता


हालांकि 2024 में मायावती न तो अखिलेश यादव के साथ रहेंगी और न ही एनडीए के ख़ेमे में रहेंगी. यह एक तरह से अखिलेश यादव के लिए चिंता बढ़ाने वाली स्थिति है. मायावती के साथ एक पहलू जुड़ा है. तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद बसपा का उत्तर प्रदेश में एक अच्छा-ख़ासा वोट बैंक बरक़रार है.  2014 में कोई लोक सभा सीट नहीं जीतने का बावजूद बसपा का वोट शेयर 19.77% रहा था. उसी तरह से 2022 के विधान सभा चुनाव में सिर्फ़ एक सीट जीतने के बावजूद बसपा को वोट शेयर क़रीब 13 फ़ीसदी रहा था.


उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस का वोट बैंक एक तरह से बीजेपी विरोधी वोट है. इस वोट बैंक में बिखराव से बीजेपी को उत्तर प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन करने में मदद मिलती है. पिछले कुछ चुनाव में ये हम सब देख चुके हैं. भले ही 2024 में मायावती एनडीए के साथ नहीं होंगी, लेकिन विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' से बाहर रहने की वज्ह से उत्तर प्रदेश में विरोधी वोट के बँटने का सीधा लाभ बीजेपी को मिलेगा.


समाजवादी पार्टी की प्रासंगिकता का सवाल


अखिलेश यादव के सामने केंद्र की राजनीति में समाजवादी पार्टी की प्रासंगिकता को बनाये रखने की चुनौती है. ऐसे में मायावती के विपक्षी गठबंधन से किनारा करने के रुख़ से बसपा को कितना फ़ाइदा होगा, ये तो चुनाव नतीजों के बाद ही पचा चलेगा..लेकिन इतना तय है कि इससे बीजेपी को सबसे अधिक और समाजवादी पार्टी को सबसे ज़्यादा नुक़सान होने वाला है.


यूपी में कांग्रेस की स्थिति बेहद ही ख़राब


कांग्रेस की बात करें, तो फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में उसकी स्थिति ही सबसे दयनीय है. कभी उत्तर प्रदेश कांग्रेस का सबसे मज़बूत क़िला हुआ करता था. लेकिन पिछले क़रीब 34 साल से या'नी दिसंबर 1989 से कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर है.


विधान सभा चुनाव, 2022 में कांग्रेस प्रदेश में सिर्फ़ दो सीट जीत पाती है. उसका वोट शेयर महज़ 2.33% रहता है. उससे पहले समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद  2017 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ़ 7 सीट पर जीत मिलती है. उसका वोट शेयर दहाई अंक से भी नीचे आकर 6.25 प्रतिशत तक पहुंच जाता है. कांग्रेस को 2012 के विधान सभा चुनाव में 11.63% वोट शेयर के साथ 28 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 2007 के चुनाव में 8.61% वोट शेयर के साथ कांग्रेस के खाते में 22 सीट आई थी. 2002 में यह आँकड़ा क़रीब 9 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ 25 सीट था.


लोक सभा के लिहाज़ से बात करें, तो कांग्रेस की स्थिति उत्तर प्रदेश में और भी ख़राब है. आम चुनाव, 2019 में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में 6.36 वोट शेयर के साथ महज़ एक सीट पर जीत मिली थी. यह सीट रायबरेली की थी, जहाँ कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गाँधी को जीत मिली थी. कांग्रेस की स्थिति कितनी दयनीय हो गयी है, इसका अदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेठी से राहुल गाँधी को हार का सामना करना पड़ जाता है.


2019 से पहले अमेठी निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस सिर्फ़ दो बार 1977 और 1998 में हारी थी. वर्तमान में अमेठी संसदीय क्षेत्र में आने वाली 5 विधान सभा सीट में से कोई भी कांग्रेस के पास नहीं है. आम चुनाव, 2014 में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ दो सीट रायबरेली और अमेठी जीतने में सफल हो पायी थी. कांग्रेस का वोट शेयर 8 फ़ीसदी से भी कम रहा था. लोक सभा चुनाव 2009 में 21 सीट और 2004 में 9 सीट पर कांग्रेस को जीत मिली थी. एक वक़्त था जब 1984 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश की 85 में 83 सीटें जीतने में कामयाब रही थी.


प्रदेश में छवि संकट से जूझ रही है कांग्रेस


विधान सभा और लोक सभा चुनाव के आँकड़ो से समझा जा सकता है कि वर्तमान में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अस्तित्व की लड़ाई से जूझ रही है. सिर्फ़ जनाधार के लिहाज़ से ही स्थिति दयनीय नहीं है. पिछले एक दशक से उत्तर प्रदेश में अस्तित्व के साथ ही प्रदेश के लोगों के बीच छवि को लेकर भी कांग्रेस की स्थिति बेहद नाज़ुक है. कांग्रेस की स्थिति ऐसी हो गई है कि अपने बलबूते तो जीतने की क्षमता धीरे-धीरे खोती ही गई. साथ ही यह भी छवि बन गई है कि जिस पार्टी के साथ जुड़ेगी, उत्तर प्रदेश में उस दल का भी नुक़सान होगा.


कांग्रेस के साथ से सपा को नुक़सान का डर


कांग्रेस की दयनीय स्थिति और छवि ही अखिलेश यादव के डर को और बढ़ा रहा है. विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में अखिलेश यादव शामिल तो हो गये हैं, लेकिन उनको चिंता सता रही है कि गठबंधन धर्म के नाते उत्तर प्रदेश में कहीं कांग्रेस को अधिक सीटें देनी पड़ी, तो यह समाजवादी पार्टी के लिए बेहद नुक़सानदायक साबित हो सकता है.


अखिलेश यादव को 2017 के विधान सभा चुनाव में एक अनुभव हुआ था. उस अनुभव का डर उनमें अभी भी है. कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से विधान सभा चुनाव, 2017 में फ़ाइदे की जगह समाजवादी पार्टी को काफ़ी नुक़सान हुआ था, जो ऊपर बताए गये आँकड़ों से भी स्पष्ट होता है. उस वक़्त यह चर्चा ज़ोरों पर थी कि प्रदेश में कांग्रेस की नकारात्मक छवि का ख़म्याज़ा समाजवादी पार्टी को भगतना पड़ा था. राजनीतिक जानकारों के बीच इस पर भी ख़ूब बहस हुई थी कि क्या प्रदेश के लोग अखिलेश यादव के कांग्रेस से हाथ मिलाने से नाराज़ थे. समाजवादी पार्टी की हार का एक प्रमुख कारण इसको भी माना गया था.


पुराने अनुभव से सबक लेने की कोशिश


विधान सभा चुनाव, 2022 के नतीजों से भी उस बहस को एक तरह से बल मिला था. अखिलेश यादव 2022 में कांग्रेस से दूरी बनाते हैं. भले ही समाजवादी पार्टी बहुमत के आँकड़ों से बहुत ही दूर रह जाती है, भले ही बीजेपी को सत्ता से दूर नहीं कर पाती है, लेकिन 2017 की तुलना में पार्टी के प्रदर्शन में आश्चर्यजनक सुधार देखने को मिलता है. 2022 में समाजवादी पार्टी की सीटें 47 से बढ़कर 111 हो जाती हैं. समाजवादी पार्टी के वोट शेयर में भी 10 फ़ीसदी से भी अधिक का उछाल देखने को मिलता है. पार्टी का वोट शेयर 22 फ़ीसदी से बढ़कर 2022 में 32 फ़ीसदी के पार चला जाता है.


अखिलेश यादव कांग्रेस पर बना रहे हैं दबाव


गठबंधन धर्म के तहत अखिलेश यादव की मजबूरी हो गई है कि उत्तर प्रदेश में वो कांग्रेस और आरएलडी के साथ सीटों का बाँटवारा करें. जैसा कि अब कांग्रेस का रुख़ है, अखिलेश यादव को एहसास होने लगा है कि कांग्रेस 2024 के लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी पर उत्तर प्रदेश में 20 से 22 सीट देने का दबाव बनायेगी. मायावती के रुख़ और कांग्रेस को अधिक सीट देने से 2024 में समाजवादी पार्टी की अधिक सीटों पर जीतने की संभावना कम हो जाती है. अखिलेश यादव नहीं चाहते हैं कि आने वाले समय में वे इस पसोपेश में फँसें. वो मध्य प्रदेश के बहाने कांग्रेस पर या तो कम से कम सीटों पर लड़वे का दबाव बनाना चाहते है..या ऐसी परिस्थिति पैदा करना चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को कांग्रेस से सीटों का बँटवारा ही नहीं करना पड़े.


अखिलेश यादव ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते


इस बार अखिलेश यादव ऐसा कोई ख़तरा मोल लेना नहीं चाहते हैं, जिससे प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति और छवि का समाजवादी पार्टी के प्रदर्शन पर नकारात्मक असर पड़े. उनके सोचने का एक नज़रिया यही है कि समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ जुड़ने से कोई ख़ास लाभ नहीं होने वाला है, इसके उलट नुक़सान की संभावना अधिक होगी. इसलिए दबाव की राजनीति के तहत मध्य प्रदेश के मसले को बहाना बनाकर दरअसल अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' को भी स्पष्ट संदेश देने का काम किया है.


एमपी के बहाने विपक्षी गठबंधन को भी संदेश


मध्य प्रदेश में कांग्रेस के रवैये का उदाहरण देकर एक तरह से अखिलेश यादव ने जता दिया है कि उत्तर प्रदेश की अधिकांश सीटों पर समाजवादी पार्टी ही चुनाव लड़ेगी. अगर इस पर विपक्षी गठबंधन के तमाम दल तैयार होते हैं, तभी वे गठबंधन का हिस्सा बने रहेंगे, अन्यथा समाजवादी पार्टी 2024 में बिना कांग्रेस के भी उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार है. अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में सीट बँटवारे में हर तरह के विकल्प और अटकलों को विराम देने के नज़रिये से ही मध्य प्रदेश के मसले को इतना उछाला है.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]