इतिहास लिखना और उसकी सत्यता की पुष्टि करना शायद सबसे मुश्किल काम है. ये काम तब और मुश्किल हो जाता है जब इतिहास वास्तविक घटना के सैकड़ों साल बाद लिखा जाए. ऐसे में इतिहास लिखनेवाले की जिम्मेदारी होती है कि वो पहले अपना इतिहास बताए. यानि वो ये क्यों लिख रहे हैं. उनकी जानकारी का स्रोत क्या है. और उसके लिखे इतिहास में त्रुटियों की कितनी संभावना है. यहां मेरे कहने का ये आशय बिल्कुल नहीं है कि सिर्फ पेशेवर औऱ मान्यता प्राप्त इतिहासकारों को ही इतिहास लिखने की इजाजत होनी चाहिए. इतिहास कोई भी व्यक्ति लिख सकता है. लेकिन सवाल ये है कि पाठक किस पर विश्वास करें.
हाल ही में जयपुर में फिल्म की शूटिंग के दौरान राजपूत युवाओं के एक संगठन ‘करणी सेना’ ने फिल्म ‘पद्मावती’ के सेट पर फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली की पिटाई कर दी. भंसाली पर आरोप लगाया गया कि वो इतिहास से छेड़छाड़ कर रहे हैं. फिल्म में 14वीं सदी के शासक अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती के किरदारों के बीच आपत्तिजनक दृश्य हैं.
करणी सेना का दावा है कि वास्तव में खिलजी और पद्मावती ने कभी एक दूसरे को आमने सामने देखा तक नहीं और इतिहास की किसी किताब में भी इस तरह के सपने का कोई जिक्र नहीं है. उन्होंने कहा कि फिल्म में रानी पद्मावती की जो छवि दिखाई जा रही है उससे राजपूत महिलाओं के सम्मान को ठेस पहुंची है. विवाद के बाद भंसाली ने सफाई दी कि उन्होंने ऐसा कोई सीन नहीं फिल्माया. यहां तक कि उन्होंने करणी सेना से सुलह भी कर ली.
गुस्सा होने का औचित्य क्या है?

प्रमाणिक इतिहास की पहचान कैसे करें?
बहरहाल इस मौजूदा विवाद से जो विषय निकल के आता है वो ये है कि प्रमाणिक इतिहास की पहचान कैसे करें. प्रामाणिकता के पैमाने क्या हैं ? इतिहासकारों और इतिहास को आधार बनाकर उपन्यास लिखनेवालों में फर्क कैसे करें. पाठक अपनी सही समझ बनाने के लिए किन बातों का ध्यान रखें?
इतिहासकारों और उपन्यासकारों में फर्क की बात यहां इसलिए जरूरी है क्योंकि फिल्म ‘पद्मावती’ में रानी पद्मावती का किरदार ‘पद्मावत’ नाम के एक महाकाव्य से उपजा है. ‘पद्मावत’ के लेखक 16वीं सदी के मशहूर सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी थे. उन्होंने अवधी भाषा में ‘पद्मावत’ की रचना की थी. उन्होंने जिन ऐतिहासिक पात्रों को लेकर अपना महाकाव्य रचा वो पात्र असल में उनके जन्मकाल से करीब 250 साल पहले के थे. इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि इस विषय को समझने के लिए हमारे पास एक ताजा मिसाल भी है. हाल ही में ‘अकबर’ नाम का एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है जो 16वीं सदी के मुगल बादशाहर अकबर के जीवन पर आधारित है. इसके लेखक उपन्यासकार शाजी जमां हैं. ये उपन्यास अकबर के दौर से करीब 400 साल बाद लिखा गया है. एक और संयोग ये भी है कि बादशाह अकबर का जन्म सन 1542 ईसवीं में हुआ था और ‘पद्मावत’ को लिखने वाले मलिक मुहम्मद जायसी का इंतकाल भी उसी साल यानि 1542 ईसवीं में हुआ.
शाजी जमां के ‘अकबर’ औऱ मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ की रचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन से पहले ये जरूरी है कि ‘पद्मावत’ की ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर थोड़ा प्रकाश डाल लिया जाए. चूंकि जायसी आज अपनी बात रखने के लिए हमारे बीच नहीं हैं इसलिए उनकी और उनके साहित्यिक कृत्यों की जानकारी के लिए मान्यता प्राप्त इतिहासकारों की तरफ रुख करना ही होगा.
‘पद्मावत’ गढ़ा गया है?
‘पद्मावत’ में लिखा गया है कि अंत में रानी पद्मिनी अपने पति राजा रतन सिंह के साथ चिता पर सती हो जाती है.
इतिहासकार ये तो मानते हैं कि 14वीं सदी की शुरुआत में अलाउद्दीन खिलजी ने राजा रतन सिंह को मार कर चितौड़ पर कब्जा किया था. लेकिन उस काल में रानी पद्मिनी के होने की पुष्टि नहीं करते. प्रोफेसर इरफान हबीब कहते है कि सन् 1540 ईसवीं से पहले रानी पद्मिनी या पद्मावती का कोई ऐतिहासिक जिक्र नहीं मिलता. उनके मुताबिक रानी पद्मिनी का किरदार काल्पनिक था.
जोधपुर में रहनेवाले आज के दौर के एक औऱ मशहूर इतिहासकार प्रोफेसर जहूर खान मेहर को राजस्थानी इतिहास के बड़े इतिहासकारों में गिना जाता है. प्रोफेसर जहूर भी कहते हैं कि पद्मावती का किरदार काल्पनिक है. ये जायसी के मन की उपज थी. उनका कहना है कि इस विषय पर सबसे बेहतरीन औऱ गहराई से काम इतिहासकार कलिका रंजन कानुगो ने किया है. उनके मुताबिक कानुगो ने हर पैमाने पर ‘पद्मावत’ के किरदारों का अध्ययन कर ये पाया कि रानी पद्मावती का इतिहास में कोई जिक्र नहीं है. ‘पद्मावत’ में जो कहानी बताई गई है वो भी काल्पनिक है.
प्रोफेसर जहूर का कहना है कि राजा रतन के पिता समर सिंह का सन् 1302 ईसवीं का एक अभिलेख मौजूद है. इस अभिलेख में औप राजा रतन सिंह पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण में सिर्फ डेढ़ साल का ही अंतर था. यानि कि राजा रतन सिर्फ डेढ़ साल ही चितौड़ के राजा रहे. जबकि जायसी के ‘पद्मावत’ के मुताबिक राजा रतन सिंह 20 साल से ज्यादा समय तक राजा रहे. जायसी के ‘पद्मावत’ में राजा रतन सिंह और हीरामन नाम के तोते के बीच बातचीत का जिक्र है. प्रोफसर जहूर का कहना है कि इतिहास तोते की बातचीत को प्रामाणिक नहीं मानता. ऐसे में ऐतिहासिक प्रामाणिकता के जो पैमाने हैं उनपर जायसी का महाकाव्य ‘पद्मावत’ कई जगह खरा नहीं उतरता.
प्रोफेसर जहूर खान मेहर के मुताबिक सबसे दिलचस्प बात ये है कि मलिक मुहम्मद जायसी ने खुद भी माना था कि उनका काव्य काल्पनिक है. लेकिन आज के दौर में इस बात को नजरअंदाज किया जा रहा है. प्रोफसर जहूर के मुताबिक खुद जायसी ने लिखा है कि उन्होंने प्रतिबिंब बनाकर किसी पात्र को बुद्धि का, किसी पात्र को हृदय का सूचक बनाया. मसलन जायसी ने लिखा है कि उन्होंने सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को सांसारिक माया का प्रतिबिंब बनाकर कथा रची. प्रोफेसर जहूर कहते हैं कि कालांतर में इस कथा को सत्य मान लिया गया. हालांकि वो कहते हैं कि डॉ दशरथ शर्मा जैसे कई इतिहासकार ‘पद्मावत’ को सत्य मानते हैं.
इन इतिहासकारों का मानना था कि जायसी का महाकाव्य प्रामाणिक था लेकिन बाद में इसमें कई अंश जोड़ दिए गए जो सत्य नहीं है. ऐसे में ‘पद्मावत’ को लेकर ताजा बहस में ज्यादातर सुबूत इसके काल्पनिक होने की तरफ इशारा करते हैं.
शाजी जमां के इस बयान से साफ है कि उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों और किरादारों में कोई बदलाव नहीं किया है. उनका दावा है कि उन्होंने करीब 20 साल तक इस विषय पर शोध करने के बाद इस उपन्यास को रचा है. इस दौरान उपन्यास को प्रामाणिकता देने के लिए उन्होंने 16वीं सदी के इतिहासकार शेख अबुल फजल के ‘अकबरनामा’, निजामुद्दीन अहमद के ‘तबकाते अकबरी’, मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनी के ‘मुंतखबुत्तवारीख’ से लेकर एक अज्ञात लेखक की रचना ‘दलतपत विलास’ जैसे कई ऐतिहासिक दस्तावेज का अध्ययन किया.
दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ानेवाले इतिहासकार मुकुल केसवन ने उपन्यासकार शाजी जमां से एक कार्यक्रम में बहुत दिलचस्प सवाल पूछा. उन्होंने अपने सवाल में इतिहास औऱ ऐतिहासिक उपन्यास में अंतर का विषय उठाया. उन्होंने शाजी जमां से पूछा कि उनके उपन्यास में इतिहास क्या है और कल्पना क्या है? इस पर शाजी जमां का कहना था कि “ इतिहास घटनाओं को दर्ज करता है, तथ्यों को दर्ज करता है, लेकिन एक जगह खाली छोड़ देता है. वो मन:स्थिति को दर्ज नहीं करता. उस युग का इंसान क्या सोच रहा था, उसके ख्यालों की क्या हरकत थी, क्या जुंबिश थी, हालात का उसके ख्यालात पर क्या असर पड़ा और ख्यालात का हालात पर क्या असर पड़ा, इस तरफ इतिहासकार ध्यान नहीं देते. या फिर ये उनकी मजबूरी है कि जो तथ्यात्मक नहीं है उसपर ध्यान नहीं देंगे. लेकिन मुझे लगता है कि तथ्यों के आधार पर भी ख्यालात तक पहुंचा जा सकता है. वो बतौर उपन्यासकार मैंने करने की कोशिश की. लेकिन मेरा विश्वास है कि अगर आप ऐतिहासिक गद्य भी लिख रहे हैं तब भी जो हिस्सा प्रामाणिक रूप से ऐतिहासिक है, उसमें आप ऐतिहासिक तथ्यों या घटनाओं से छेड़छाड़ नहीं कर सकते. उस मर्यादा का आपको पालन करना पड़ेगा. जहां वो तथ्य खामोश हो जाते हैं, मसलन अकबर-ए-आजम इस मौके पर क्या सोच रहे थे या फिर अकबर ने ऐसा कहा तो इसके पीछे उनकी वैचारिक प्रक्रिया क्या थी, वहां बतौर उपन्यासकार मैंने कदम रखा है.“
चूंकि शाजी जमां आज मौजूद हैं इसलिए हम उनका पक्ष जान पाए हैं लेकिन जायसी अपनी बात रखने के लिए हमारे बीच मौजूद नहीं है. ऐसे में इतिहासकार ही हमारे आंख औऱ कान है. इस तरह के विषयों में उनके कहे को गंभीरता से लेना जरूरी है. क्योंकि दूसरा कोई विकल्प नहीं है.
मलिक मुहम्मद जायसी औऱ शाजी जमां के उपन्यासों में समानता ये है कि दोनों ने अपने उपन्यास में ऐतिहासिक किरदारों का इस्तेमाल किया है. दोनों ने ही वास्तविक घटना के सैंकड़ों साल बाद अपने उपन्यास की रचना की है. साथ ही ये भी समानता है कि दोनों ने अपने स्रोतों औऱ प्रमाणिकता को लेकर सफाई दी है. जायसी ने खुद लिखा है कि उनकी कहानी और कई किरदार काल्पनिक है. वहीं शाजी कहते हैं कि उनकी एक-एक घटना औऱ संवाद तक इतिहास पर आधिरत है. मनगढ़ंत कुछ भी नहीं है.
क्यों विवाद की गुंजाइश नहीं है?
कहने का सार ये है कि अगर लेखक ने अपनी स्थिति और अपनी परिस्थिति पाठकों के सामने सच्चाई से रख दी है तो फिर विवाद की गुंजाइश नहीं है. अगर सवाल हैं भी तो उन्हें उन रचनाओं की पृष्ठभूमि के आधार पर ही खड़े करने चाहिए. हमारे देश में शास्त्रार्थ की परंपरा रही है. ऐसे में शोध का जवाब शोध औऱ विद्वता का जवाब विद्वता से ही दिया जाना चाहिए. इतिहास इसी तरह की बहसों से ही समृद्ध हो सकता है.