पेड मेंस्ट्रुअल लीव या'नी माहवारी के दौरान कामकाजी महिलाओं को कुछ दिनों के लिए वेतन सहित अवकाश की मांग से जुड़ा मसला नया नहीं है. लंबे वक़्त से इसकी मांग हो रही है. अलग-अलग मंचों पर चर्चा भी हो रही है.


हालाँकि केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी के संसद में दिए बयान के बाद एक बार फिर से इस मसले पर सुगबुगाहट तेज़ हो गयी है. दरअसल संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र के दौरान 13 दिसंबर को राज्य सभा में प्रश्न काल के दौरान आरजेडी सांसद मनोज झा ने पेड मेंस्ट्रुअल लीव से जुड़े प्रस्ताव को लेकर सवाल पूछा था. इसी सवाल के जवाब में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कुछ ऐसी बातें कही, जिनसे यह स्पष्ट हो गया कि केंद्र सरकार मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को छुट्टी देने की किसी नीति को लाने पर विचार नहीं कर रही है.


पेड मेंस्ट्रुअल लीव पर सरकार का नज़रिया


यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन स्मृति ईरानी ने जो कहा, उससे स्पष्ट है कि देश में अधिकांश महिलाओं की स्थिति को लेकर उनकी समझ व्यापक आयाम लिए हुए नहीं है. राज्य सभा में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा था कि मासिक धर्म और मेंस्ट्रुअल साइकिल कोई विकलांगता नहीं है. यह महिला के जीवन का स्वाभाविक हिस्सा है. उन्होंने आगे कहा था  कि हमें  ऐसा मुद्दा प्रस्तावित नहीं करना चाहिए, जहाँ महिलाओं को केवल इसलिए समान मौक़ों से वंचित किया जाए कि जिसे माहवारी नहीं आती वो माहवारी के बारे में ख़ास तरह का मत रखता है.



महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी के इन टिप्पणियों पर जब विवाद बढ़ा, तब उन्होंने 15 दिसंबर को मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने माना कि मासिक धर्म की छुट्टियों का विरोध करने वाले संसद में उनके हालिया बयान से हंगामा हुआ है. हालांकि उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे अपने रुख़ पर अडिग हैं. उन्होंने कहा कि अगर इस दौरान छुट्टी की किसी नीति को अनुमति दे दी जाती है, तो इससे गोपनीयता को लेकर गहरी चिंता पैदा होंगी. उन्होंने मासिक धर्म की छुट्टी देने का फ़ैसले को दुकानों और प्रतिष्ठानों को नियंत्रित करने वाले मौजूदा कानूनों और औद्योगिक कानूनों के भी विपरीत बताया.


मेंस्ट्रुअल लीव पर नियम से क्यों है परहेज़?


कुल मिलाकर केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने स्पष्ट कर दिया कि निकट भविष्य में केंद्र सरकार ऐसे किसी प्रस्ताव पर आगे बढ़ने के बारे में बिल्कुल नहीं सोच रही है. स्मृति ईरानी ने इस मसले पर जो कुछ भी कहा, उससे कुछ बातें निकलकर सामने आती हैं. उन्होंने मेंस्ट्रुअल लीव को हर महिला के जीवन का स्वाभाविक हिस्सा बताया. इस तथ्य से किसी को इंकार नहीं है. न ही यह विकलांगता है, ऐसा कोई मानता है. यह मुद्दा काम करने के अवसरों से वंचित करने से भी जुड़ा नहीं है. जहाँ तक गोपनीयता का सवाल है, यह कोई अपराध नहीं है या फिर ऐसी चीज़ नहीं है जिस पर बात नहीं की जाए. यही stigma तो सदियों से बना हुआ है, जिसे ध्वस्त करने की ज़रूरत है.



मेंस्ट्रुअल लीव गंभीर और संवेदनशील मुद्दा


पेड मेंस्ट्रुअल लीव का मुद्दा बेहद गंभीर और संवेदनशील है. देश की आधी आबादी से जुड़ा मसला है. महिला और बाल विकास मंत्री होने के नाते स्मृति ईरानी को यह बात समझनी चाहिए कि देश की चंद फ़ीसदी प्रिवलिज्ड महिलाओं को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश कामकाजी महिलाओं के पास वो सुविधा उपलब्ध नहीं है, जिनसे माहवारी के दौरान कार्यस्थल पर सहज रहा जा सके. चाहे संगठित क्षेत्र हो या फिर असंगठित क्षेत्र, व्यवहार में स्थिति कमोबेश अच्छी नहीं है.


महिलाओं को होती है ख़ास ज़रूरत


इससे तो कोई इंकार नहीं कर सकता कि माहवारी के दौरान महिलाओं को कुछ ख़ास ज़रूरत होती है. चाहे बार-बार सैनिटरी पैड बदलने की बात हो या फिर असहनीय दर्द का पहलू हो..उस वक़्त के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण ज़रूरत है. इनके साथ ही उस दौरान मूड स्विंग, चिड़चिड़ापन, बेचैनी, रेस्टलेसनेस जैसी स्थिति आम बात है. इन सब चीज़ों से निपटने के लिए ख़ास माहौल की ज़रूरत होती है. इस दौरान चाहे दो से तीन दिन या कुछ मामलों में अधिक दिन भी हो सकता है, यह तथ्य है कि महिलाओं को गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ता है. चाहे शरीर में तकलीफ़ का मसला हो या फिर उस दौरान मानसिक स्थिति का मुद्दा हो...माहवारी के दौरान होने वाली परेशानी और दर्द के बारे में हम सब भलीभाँति वाक़िफ़ है.


अधिकांश कार्यस्थल पर सुविधाओं का अभाव


क़ाग़जी व्यवस्था को छोड़ दें, तो आज भी देश के अधिकांश ऑफिस, फैक्टरी और अन्य कार्यस्थलों पर न तो वैसी व्यवस्था है और न ही वैसा माहौल है, जब कामकाजी महिलाएं माहवारी के दौरान कंफर्ट फील कर सकें. चाहे कोई संस्था, कारख़ाना या दफ़्तर.. कितना भी दावा कर ले, सच्चाई बदल नहीं सकती. स्थिति अच्छी नहीं है. यहाँ अच्छी स्थिति से मतलब सुविधाओं के साथ संवेदनशील माहौल से भी है. हम विकास की कितनी भी बातें कर लें, अभी भी देश में कार्यस्थलों पर बाथरूम का अभाव और बाथरूम में साफ-सफाई का अभाव एक बड़ी समस्या है. मेंस्ट्रुअल लीव का संबंध सीधा संबंध इस समस्या से भी है.


कॉलेज जाने वाली लड़कियों से भी जुड़ा है मुद्दा


मेंस्ट्रुअल लीव मसला सिर्फ़ कामकाजी महिलाओं तक ही सीमित नहीं है. कॉलेज जाने वाली लड़कियों  के लिए भी यह मुद्दा बेहद गंभीर है. माहवारी के दौरान होने वाली परेशानियों को देखते हुए कई बार लड़कियाँ कॉलेज नहीं जा पाती है. इस वज्ह से उनके अटेंडेंस कम पड़ने की संभावना बढ़ जाती है. कई बार तो अटेंडेंस कम होने के कारण लड़कियाँ परीक्षा में बैठ नहीं पाती हैं.  ऐसे में कॉलेज जाने वाली लड़कियों को अगर मिनिमम अटेंडेंस के नियमों में छूट मिल जाती है, तो इससे उन्हें परीक्षा देने से वंचित नहीं होना पड़ेगा और बिना कोर्स ब्रेक के वो अपनी पढ़ाई जारी रख सकेंगी. इसके लिए भी राष्ट्रीय स्तर पर नीति बनाए जाने की ज़रूरत है.


सुप्रीम कोर्ट ने बताया था नीतिगत मसला


देश की हर नौकरीपेशा और कामकाजी महिलाओं के साथ ही छात्राओं को माहवारी के दौरान अवकाश की मांग से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में भी सुनवाई हो चुकी है. इस याचिका में माँग की गई थी कि देश के हर राज्य को इस मसले पर नियम बनाने के लिए आदेश दे. सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने इस साल 24 फरवरी को इस याचिका पर सुनवाई करने से इंकार कर दिया था. इस पीठ में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जेबी पारदीवाला शामिल थे. सुप्रीम कोर्ट ने इसे नीतिगत मामला मानते हुए सुनवाई से मना कर दिया था. उस वक़्त सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संबंधित हितधारकों को इस बाबत भारत सरकार के पास अपनी माँग रखनी चाहिए. हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि इस मसले से कई पहलू जुड़े हैं और इस पर एक नीति बनाए जाने की ज़रूरत है.


पेड मेंस्ट्रुअल लीव को लेकर बिहार में तीन दशक पहले पहल हुई थी. बिहार सरकार ने 1992-93 में एक नीति को मंजूरी दी थी, जिसके तहत  सरकारी महिला कर्मचारियों को हर महीने माहवारी के दौरान दो दिनों का अवकाश लेने की अनुमति दी गयी. हालाँकि कॉलेज की छात्राओं के लिए बिहार में भी सरकारी स्तर पर इस तरह का कोई नियम नहीं है. केरल की सरकार ने इस साल जनवरी में यूनिवर्सिटी छात्राओं के लिए माहवारी के दौरान अवकाश की सुविधा मुहैया कराने की घोषणा की थी.


मेंस्ट्रुअल लीव पर सार्थक पहल की ज़रूरत


कामकाजी महिलाओं के लिए पेड मेंस्ट्रुअल लीव और कॉलेज की छात्राओं के लिए भी छुट्टी की व्यवस्था को लेकर सार्थक पहल की ज़रूरत है. देशव्यापी नियम या कहें नीति बनाने की दिशा में भारत सरकार को विचार करना चाहिए. इसके लिए महिलाओं की ही एक ऐसी समिति बनायी जानी चाहिए, जिसमें हर फील्ड की महिलाएँ शामिल हों. इस समिति में डॉक्टर महिला भी हों. संगठित के साथ ही असंगठित क्षेत्र के लिए काम करने वाली महिलाओं को भी समिति में जगह मिलनी चाहिए. संवेदनशीलता और देश की आधी आबादी की ज़रूरत को समझते हुए व्यापक विचार विमर्श होना चाहिए. उसके बाद इस दिशा में राष्ट्रीय नीति बननी ही चाहिए.


शारीरिक और मानसिक दोनों पहलू पर विचार


एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि चाहे प्रतिशत कम हो या अधिक..माहवारी के दौरान पेड लीव नहीं होने के कारण महिलाओं को शारीरिक और मानसिक दोनों दिक़्क़त होती है. कुछ महिलाएँ तकलीफ़ में भी काम करने को मजबूर होती हैं. बाद में उन्हें स्वास्थ्यगत दूसरी परेशानियों का भी सामना करना पड़ जाता है. स्थिति बिगड़ने पड़ने पर किसी-किसी महिला को तो काम से लंबी छुट्टी तक लेनी पड़ती है.


विडंबना के साथ ही हक़ीक़त यह है कि नियम नहीं होने के कारण उस दौरान तकलीफ़ के बावजूद महिलाएँ दूसरे मद में अवकाश लेने में संकोच करती हैं. यह बताने में ही संकोच होता है कि उन्हें माहवारी के दौरान होने वाली परेशानियों के कारण छुट्टी चाहिए. महिलाओं को अभी उपहास और मज़ाक़ का भय भी सताते रहता है क्योंकि अभी भी पुरुष प्रधान व्यवस्था में वो माहौल नहीं मिल पाता है कि वे खुलकर इस पर बात कर सकें.


मेंस्ट्रुअल लीव का नियम होने से संकोच नहीं


इसका भी तोड़ पेड मेंस्ट्रुअल लीव से ही निकाला जा सकता है. अगर इसके लिए भारत सरकार की ओर से ही देशव्यापी स्तर पर नियम बन जाए, तो फिर महिलाओं का यह अधिकार होगा. इससे लाभ यह होगा कि माहवारी के दौरान महिलाओं को छुट्टी मांगने में जिस संकोच का सामना करना पड़ता था, उस संकोच से भी मुक्ति मिल जायेगी. यह बेहद ही महत्वपूर्ण पहलू है. इस नज़रिये से भी नीति की सख़्त ज़रूरत है. इस सिलसिले में जो भी नियम बने, वो संगठित के साथ ही असंगठित क्षेत्रों पर भी लागू हो, इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि असंगठित क्षेत्रों में तो और भी बुरा हाल है. असंगठित क्षेत्रों में महिलाओं के लिए कामकाज की दशा व्यवहार में काफ़ी जर्जर स्थिति में है. चाहे कोई कितना भी बेहतरी का दावा कर ले, सच्चाई यही है.


क़ानूनों में बदलाव नहीं है कोई समस्या


जहाँ तक सवाल है, दुकानों और प्रतिष्ठानों को नियंत्रित करने वाले मौजूदा कानूनों और औद्योगिक क़ानूनों के साथ तालमेल का, तो इसके लिए भी रास्ते बनाए जा सकते हैं. संसद से लेकर सरकार का काम ही यही है कि  देश के नागरिकों की बेहतरी की दिशा में क़ानूनों में संशोधन किया जाए, सके, ज़रूरत के हिसाब से नया क़ानून बनाया जाए. एक समय था जब मैटरनिटी लीव या मातृत्व अवकाश को लेकर भी कुछ ऐसी ही धारणा थी. लेकिन एक बार क़ानून बना, तो ज़रूरत के मुताबिक़ बाक़ी क़ानूनों में भी बदलाव किया गया. पेड मेंस्ट्रुअल लीव को लेकर भी उसी लीक पर आगे बढ़ने की ज़रूरत है.


यह ऐसा मसला है, जो गोपनीयता का मुद्दा नहीं है, खुलकर बात करने का मुद्दा है. ज़रूरत और अधिकार का विषय है. इसके साथ ही संवेदनशीलता का भी विषय है. संवेदनशीलता का यहाँ संबंध कमज़ोर होने या विकलांगता से नहीं है. संवेदनशीलता का संबंध देश के विकास के साथ ही मानव जाति के अस्तित्व और विकास में आधी आबादी के योगदान को देखते हुए उन्हें सम्मान देने और उनके लिए ऐसा माहौल बनाने से जुड़ा है, जिसमें उनकी सेहत पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]